कनक तिवारी
राहुल गांधी के प्रकरण से एक चिंताजनक वैधानिक स्थिति पैदा हो गई है। मजिस्ट्रेट ने उन्हें 2 बरस की सजा क्या दे दी एक निजी परिवाद के आधार पर कि लोकसभा सचिवालय ने राजनीतिक आधारों पर दुर्भावना के रहते उनकी सदस्यता ही रद्द कर दी जबकि एक पूरी तौर पर असंवैधानिक है और अपरिपक्व है। किसी मजिस्ट्रेट के इजलास की क्या हालत होती है पूरे देश में। हम सब जानते हैं। इन अदालतों से कैसे भी आदेश किसी के भी खिलाफ हो जाते हैं या ले लिए जाते हैं। यदि किसी मजिस्ट्रेट को कोई अपने प्रभाव में ले ले और किसी निर्वाचित विधायक या सांसद के खिलाफ 2 बरस की सजा दिला दे तो उसके बाद तो उस मजिस्ट्रेट के फैसले के कारण बवंडर मचेगा। राजनीति में उथल-पुथल होगी। किसी का भाग्य या उसका भविष्य खराब भी हो सकता है। अंग्रेज ने जब यह कानून बनाया था, तब चुनाव कहां होते थे! तब मजिस्ट्रेट को केवल सजा देनी होती थी या छोड़ना होता था। अब उस सजा से चुनाव के अधिनियम को जोड़ दिया गया है। तब तो हंगामा होना स्वाभाविक है। ऐसे कई फैसले जानबूझकर कराए जा सकते हैं, जब देश के नेताओं के और बड़े अन्य निर्वाचित प्रतिनिधियों के खिलाफ प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी, इन्कम टैक्स , सीबीआई सब का हंगामा किया जाए। अब तो किसी को भी 2 वर्ष की सजा दिलाना कठिन नहीं होता है। कई मुकदमों में हो ही चुका है। लालू यादव का मुकदमा सबको याद रखना चाहिए। ऐसी हालत में संशोधन लोक प्रतिनिधित्व कानून में होना बहुत ज़रूरी है । जब तक कोई विशेष न्यायाधिकरण किसी वरिष्ठ जज का नहीं बने , तब तक उनके भाग्य को भारतीय दंड संहिता के तरह तरह के अपराधों के लिए छोड़ नहीं देना चाहिए। विधायकों, सांसदों के चुनाव की याचिका तो सीधे हाईकोर्ट में जाती है
यही उसका एक कारण है
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।इसी तरह अश्लीलता को लेकर भी भारतीय दंड संहिता में धारा 292,294 आदि हैं। वहां किसी भी लेखक की कृति को पुस्तक को कविता को उपन्यास को चित्रकला को नाटक को लेकर रिपोर्ट कर सकता है पुलिस में कि अश्लील है। पुलिस उसमें हस्तक्षेप कर सकती है। थानेदार एक कविता में अश्लीलता कैसे ढूंढ लेगा? लेकिन ढूंढ लेता है। मुकदमे हो जाते हैं और अगर सजा हो गई तो वह निर्वाचित प्रतिनिधि हुआ तो एक थानेदार के विवेक पर किसी नेता या निर्वाचित प्रतिनिधि का पूरा भविष्य सलीब पर हो सकता है । यह अनुमति भारतीय संविधान कैसे देगा? भारतीय राजव्यवस्था में बहुत झोल है। सब कुछ बहुत गंभीरता से सोचा जाना चाहिए और अब तो राजनेता इस तरह के हो गए हैं कि दूसरे की गर्दन मरोड़ने में गड्ढे में डालने में उन्हें कोई हिचक नहीं होती। उनके अंदर ईमान और परस्पर सहानुभूति का तो दौर खत्म हो गया है । आगे और बुरा दौर आने वाला है ।तैयार रहिए । ।।।।।।।।।।।।।गुजरात के ही एक मजिस्ट्रेट ने शायद सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के खिलाफ जमानती वारंट निकाल दिया था न! ।।।।।।।।।।।।
भारत के संविधान के अनुच्छेद 19(2) में है कि अभिव्यक्ति की आजा़दी पर प्रतिबंध लग सकता है यदि वहां लिखे हुए कुछ आधारों के खिलाफ हो। उसमें एक आधार मानहानि का भी हक है कि यदि उसके लिए अगर कोई सरकार अधिनियम बना दे। सरकार ने कोई अधिनियम नहीं बनाया है लेकिन भारतीय दंड संहिता इस संबंध में पहले से लागू है । भारतीय दंड संहिता की धारा 499 में मानहानि की परिभाषा दी गई है विस्तार से और उसके अपवाद भी दिए गए हैं। धारा 500 में 2 वर्ष की सजा या जुर्माने का प्रावधान है और केवल जुर्माने का भी है। पहली बार में तो अमूमन सजा नहीं ही दी जाती। थोड़ा सा जुर्माना लगा दिया जाता है। लेकिन राहुल गांधी के प्रकरण में मजिस्ट्रेट बहुत उत्साह में पाए गए हैं। एक वाक्य के ऊपर 2 बरस की सजा दे दी जो भारत के इतिहास में शायद अनोखी है । फिर भी मानहानि का मुकदमा पुलिस के हस्तक्षेप के लिए नहीं बनाया गया अर्थात उसमें वारंट ट्रायल नहीं होगा। जहां 3 वर्ष से अधिक की सजा का प्रावधान होता है वहां पुलिस हस्तक्षेप कर सकती है। इसीलिए जानबूझकर भारतीय दंड संहिता में 1860 से अभी तक अधिकतम 2 वर्ष की सजा का प्रावधान है और विकल्प जुर्माना भी है । इससे प्रकरण की गंभीरता समझ में आती है कि कानून बनाने वालों ने उसको बहुत महत्वपूर्ण नहीं माना है । वह एक निजी परिवाद के आधार पर चलता है। उसका कोई सार्वजनिक चेहरा नहीं होता। गुजरात की अदालत में तो सब कुछ महत्वपूर्ण होता है क्योंकि गुजरात सारी दुनिया में सबसे महत्वपूर्ण है। धारा 504 का भी प्रकरण बनाया गया जो बनता ही नहीं है। ऐसा लगा जैसे रबर के बदले केंचुए को खींचकर बढ़ाया जा रहा है । इस प्रकरण में भी अब सुप्रीम कोर्ट की न्यायप्रियता की परीक्षा होगी। मोदी सरकार ने तो लोकतंत्र को खत्म करने का वहशी इरादा जाहिर कर दिया है।