आरके सिन्हा
अगर आपकी उम्र 45-50 साल से अधिक होगी तो आपको याद होगा कि पहले हर शहर की हर कॉलोनी में वे डॉक्टर प्रैक्टिस करते थे, जिन पर सैकड़ों परिवार भरोसा रखते थे। वे परिवार के किसी भी सदस्य के बीमार होने पर उसके पास तुरंत चले जाते थे। वे डॉक्टर रोगी का कायदे से इलाज करते थे क्योंकि, वे रोगी को पहले से ही अच्छी तरह से जानते थे।
वे रोगी की सारी व्यथा सुनने के बाद सही दवाई बताते थे। क्योंकि उसे रोगी के परिवार के हरेक सदस्य के बारे में विस्तार से जानकारी हुआ करती थी। इन डॉक्टरों के तो रोगियों से पारिवारिक संबंध भी हुआ करते थे। उन्हें ही कहा जाता था फैमिली डॉक्टर।
अब फैमिली डॉक्टरों की संस्था लुप्तप्राय सी हो गई है। उनकी जगह ले ली है क्लीनिकों, नर्सिग होम्स और बड़े-बड़े अस्पतालों में बैठने वाले डॉक्टरों ने। इनका अपने किसी भी रोगी से कोई संबंध नहीं होता। ये फैमिली डॉक्टर्स से बिलकुल ही अलग होते हैं।
फैमिली डॉक्टर को जब भी बुलाया जाता था तो वे अपने मेडिकल बैग लेकर मरीज के पास पहुंच जाते थे। रोगी को देखने के बाद रोगी के घर में चाय-नाश्ता करने के बाद ही जाते। डॉक्टर का रोगी के साथ आत्मीय लगाव होता था। लेकिन अब वह परंपरा पूरी तरह से ख़त्म हो गई है।
बिहार के बेगूसराय में डॉ. अमृता सैकड़ों परिवारों की फैमिली डॉक्टर हुआ करती थीं। बीती दीवाली से पहले उनके निधन से उनके अनगिनत रोगी शोक में डूब गए। जानी-मानी गायनकोलॉजिस्ट डॉक्टर अमृता डेंगू संक्रमण का शिकार हो गयीं। प्रतिभाशाली डॉक्टर अमृता जी सहृदय और संवेदनशील चिकित्सक थीं। हरेक रोगी का पूरे मन से इलाज करती थी।
डॉ. अमृता ग़रीब और दूरदराज से आये रोगियों को भी अपना समझकर इलाज करती थीं। उनके रोगी आज के दिन अपने को अनाथ महसूस कर रहे हैं। उनके लिए सांत्वना के कोई शब्द नहीं मिलते। नियति की क्रूरता का कोई उत्तर नहीं मिलता। वह सचमुच एक समर्पित फैमिली डॉक्टर थीं।
श्रमिकों के शहर कानपुर के रहने वाले मित्र बताते हैं कि वहां कुछ साल पहले तक हर मोहल्ले में दो-तीन फैमिली डॉक्टर सक्रिय रहते थे। वे तेज बुखार, जोड़ों में भयंकर पीड़ा और शरीर के बाकी भागों में किसी तकलीफ की स्थिति में रोगियों का इलाज कर दिया करते थे।
वे दवाएं लिखते और रोगी उन्हें लेने के बाद ठीक होने लगता। इतना बोल देते कि अगर दवा काम नहीं करेंगी तभी जांच कराएंगे। पर आमतौर पर फैमिली डॉक्टर की दवा लेने के बाद मरीज का बुखार उतर जाता, उल्टियां नहीं होती और बदन दर्द में भी आराम मिल जाया करता था।
राजधानी के करोल बाग में भी कुछ साल पहले तक डॉ. कुसुम जौली भल्ला नाम की एक मशहूर फैमिली डॉक्टर थीं। वह जनरल फिजिशियन के साथ स्त्री रोग विशेषज्ञ भी थीं। उनके पास वेस्ट दिल्ली के बहुत सारे लोग आते। डॉ. कुसुम अपने रोगियों से पारिवारिक संबंध बना लेती थीं। वह कथाकार भीष्म साहनी से लेकर न जाने कितने परिवारों की फैमिली डॉक्टर भी थीं।
डॉ. कुसुम के रोगी उन्हें सुबह पार्क में ही घेर लेते थे। वहां पर रोगी और डॉक्टर के बीच संवाद चालू हो जाता और दवाई बता दी जाती। ये सिलसिला लगातार जारी ही रहता था। उनके क्लीनिक में “तमस” जैसी कालजयी रचना के लेखक भीष्म साहनी भी आते थे। भीष्म साहनी की मृत्यु के बाद डॉ. कुसुम बेमन से ही कभी-कभार पार्क जातीं। अब उनका वक्त अपने मेडिकल सेंटर में ही बीतता। सुबह से शाम तक रोगी आते-जाते रहते। उनमें महिलाएं ही अधिक होतीं।
मौलाना आजाद मेडिकल कॉलेज से एमडी करने के बाद डॉ.कुसुम ने “अपना होप” नाम से क्लीनिक खोला था। उनका बांझ स्त्रियों के इलाज में महत्वपूर्ण शोध था। डॉ. कुसुम देश की उन पहली चिकित्सकों में थीं, जिन्होंने सैकड़ों निःसंतान दम्पत्तियों को कृत्रिम गर्भाधान विधि से संतान सुख दिया था।
वह महिला बांझपन के लक्षण, कारण, इलाज, दवा, उपचार पर निरंतर अपने रिसर्च पेपर देश-विदेश में होने वाले सम्मेलनों में प्रस्तुत कर ही रही थीं कि असमय उनकी मौत से इसपर विराम लग गया। 2013 में उनकी अकाल मृत्यु के बाद उनके रोगी खुद को अनाथ सा महसूस करने लगे। कितने ही रोगी उनके चले जाने पर उन्हें याद कर बहुत रोए।
अब तो रोगी डॉक्टरों के पास जाने के नाम से ही भयभीत रहते हैं। उन्हें पता होता है कि डॉक्टर साहब उन्हें एक बाद एक टेस्ट करवाने के लिए कहेंगे। यह अच्छी बात है कि कुछ डॉक्टरों ने रोगियों के अनाप-शनाप टेस्ट करवाने की बढ़ती मानसिकता पर विरोध भी जताया है। वे इन टेस्ट को बंद करने की जोरदार तरीके से वकालत कर रहे हैं।
किसी डॉक्टर को कायदे से रोगी को कितने टेस्ट करवाने के लिए कहना चाहिए? इस सवाल का जवाब तो डॉक्टर ही दे सकते हैं, पर रोगियों को अनेकों गैरजरूरी टेस्ट करवाने के लिए कहना अब रोगियों और उनके संबंधियों के लिए जी का जंजाल बन चुका है।
अब तो डॉक्टर रोगियों को पैसा बनाने की मशीन समझने लगे हैं। उस दीन-हीन रोगी को पता ही नहीं होता कि जिन टेस्ट को करवाने के लिए उससे कहा जा रहा है, उसकी उनके इलाज में कितनी उपयोगिता है। चूंकि डॉक्टर साहब का आदेश है तो उसका पालन करना उस बेचारे रोगी की मजबूरी होती है।
डॉ. कुसुम और डॉ. अमृता जैसे डॉक्टर अब विरले ही मिलते हैं। इन जैसे डॉक्टरों का समाज में सम्मान था। उन्हें भगवान समझा जाता था। अब तो बहुत कम रोगी मिलेंगे जिसे डॉक्टर ने बहुत से टेस्ट करवाने के लिए न कहा हो। ऐसे समय में भी रोगियों के बरक्स मुनाफे को तरजीह देनेवाले प्राइवेट संस्थानों, हॉस्पिटलों और डॉक्टरों की इसी सोच को चुनौती दी जा रही है।
और इस तरह की चुनौतियां कुछ संवेदनशील डॉक्टर्स दे रहे हैं जिनमें राजधानी के राम मनोहर लोहिया अस्पताल के डॉ. राजीव सूद, एम्स के प्रख्यात कार्डियालोजिस्ट डॉ. बलराम भार्गव और सर गगांराम अस्पताल के गेस्ट्रो विभाग में वरिष्ठ चिकित्सक डॉ. समीरन नंदी हैं।
डॉ. राजीव सूद मौलाना आजाद मेडिकल कॉलेज तथा एम्स के छात्र रहे। एम्स से यूरोलोजी की डिग्री लेने के बाद वे राम मनोहर लोहिया अस्पताल से जुड़े। डॉ राजीव सूद 40 सालों की सरकारी सेवा करने के बाद हाल ही में रिटाय़र हुए तो उनके सैकड़ों रोगी परेशान हैं। वे निस्वार्थ भाव से रोगियों का इलाज कर रहे थे। इनके जैसे डॉक्टर मुश्किल से मिलते हैं जो इस मुनाफाखोर व्यवस्था में भी गरीब और लाचार रोगियों के बारे में सोचते और जहां तक हो सके उनकी मदद करते हैं।
क्या आज भी मेडिकल क्षेत्र को मानवीय संवेदनाओं से युक्त बनाने की कोशिश की जा सकती है? क्या देश औऱ राज्य की सरकारें हमारे सार्वजनिक अस्पतालों की दशा और दिशा सुधारने की ओर ध्यान देंगी जिससे आमजन को वैसी ही सुविधाएं हासिल हो सकें जैसी कि बड़े और महंगे अस्पतालों में मिलती हैं?
हमें उम्मीद है कि आनेवाले समय में ऐसी सरकारें आऐंगी और जनोन्मुखी व्यवस्था का निर्माण करेंगी। यदि हम राष्ट्रहित और समाजहित में फिर से फैमिली डॉक्टर की संस्था को जिंदा कर सकें तो बेहतर होगा।
(आरके सिन्हा लेखक, वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं)