रिंकु यादव
जगदेव प्रसाद आजाद भारत में हिंदी पट्टी के ऐसे पहले राजनेता थे, जिन्होंने द्विजों पर निर्भरता और उनके नियंत्रण से मुक्त शोषितों का निछक्का दल बनाने का राजनीतिक साहस किया था। ब्राह्मणवाद को संपूर्णता में निशाने पर लेते हुए क्रांतिकारी राजनीति को खड़ा करने के लिए वे आगे बढ़े थे। वे हिंदी पट्टी में ब्राह्मणवाद विरोधी लड़ाई को तमिलनाडु के पेरियारवाद की ऊंचाई तक ले जाना चाहते थे और शोषितों का अखिल भारतीय संगठन बनाना चाहते थे। ऐसा करके वे शोषितों की स्वतंत्र राजनीतिक ताकत खड़ी करना चाहते थे। उन्होंने बड़ा सपना देखने का साहस किया और उसे जमीन पर उतारने के लिए साहसिक पहलकदमी भी ली थी, जबकि उस दौर के राष्ट्रीय परिदृश्य में जगदेव प्रसाद का राजनीतिक कद बहुत बड़ा नहीं था। शोषित दल भी बिहार में बड़ी अहमियत नहीं रखता था। उन्होंने बिहार की धरती से जिस राजनीति को गढ़ने का साहस किया, वह यूपी के रास्ते हिंदी पट्टी में आगे बढ़ती रही। अखिल भारतीय स्तर पर शोषितों की स्वतंत्र राजनीतिक ताकत तैयार करने के क्रम में वे डीएमके और दलित पैंथर जैसी ताकतों के साथ राजनीतिक संबंध कायम करने की दिशा में भी बढ़ रहे थे। खासतौर पर डीएमके के साथ राजनीतिक संबंध कायम करने को लेकर वे शुरू से ही काफी उत्सुक और लगातार प्रयासरत थे।
जैसे 14 जून, 1969 को उत्तर प्रदेश के राष्ट्रीय शोषित संघ (1960 के दशक के प्रारंभ में शिवदयाल सिंह चौरसिया, बी.जी. धनगर और लक्ष्मीशंकर यादव द्वारा स्थापित) के सालाना जलसे में उन्होंने साफ शब्दों में कहा था– “ऊंची जाति के साम्राज्यवादियों से मुक्ति दिलाने के लिए मद्रास में डीएमके, बिहार में शोषित दल और उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय शोषित संघ बना है। इसलिए हम लोग इन ऊंची जाति के ब्राह्मणवादियों को चेतावनी देते हैं कि जैसे मद्रास में हुआ, उसी तरह हम लोग भी पटककर छाती पर चढ़ जाएंगे और हुकूमत करने लगेंगे।” वे मानते थे कि हिंदुस्तान में एक तमिलनाडु को छोड़कर बाकी राज्यों में ऊंची जातियों की हुकूमत है।
जगदेव प्रसाद सामाजिक क्रांति को मूल मानने वाले डीएमके से ज्यादा सख्त शोषितों का एक निछक्का दल बनाने की जरूरत राष्ट्रीय स्तर पर महसूस करते थे। इस महान क्रांतिकारी लक्ष्य को सामने रखकर ही उन्होंने 25 अगस्त, 1967 को बिहार में शोषित दल की स्थापना की थी और वे इसको राष्ट्रीय स्तर पर संगठित करने को आवश्यक मानते थे। इसलिए वे शोषित दल बनाने के बाद भी रुके नहीं थे।
25 अगस्त, 1970 को शोषित दल की तीसरी वर्षगांठ के मौके पर अपने संबोधन में जगदेव प्रसाद ने कहा था– “शोषित दल ने ऊंची जाति के एकाधिकार को चुनौती देना और इनके जुल्म के खिलाफ मोर्चाबंदी करना शुरू कर दिया है। 25 अगस्त, 1967 को बिहार की राजधानी से शोषित इंकलाब का जो एक हल्का बवंडर उठा, वह अब बिहार के पांच करोड़ शोषितों को ऊंची जात के शोषण के खिलाफ जगाता और चेताता हुआ विशाल उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और अन्य हिंदी भाषी राज्यों के नब्बे प्रतिशत शोषितों के दिल और दिमाग को झकझोर रहा है।”
शोषित दल के गठन के हिंदी पट्टी में असर की ठोस अभिव्यक्ति हिंदुस्तानी शोषित दल के गठन से हुई थी। बिहार सहित उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बंगाल आदि राज्यों के प्रतिनिधियों को लेकर इसका गठन 20 नवंबर, 1970 को जगदेव प्रसाद द्वारा किया गया था। हालांकि इसके पहले ही मध्य प्रदेश में सक्रिय हरिजन आदिवासी सेवक संघ के सुंदर लाल माथुर ने शोषित दल की शाखा खोलने के लिए जगदेव प्रसाद को पत्र लिखा था। लेकिन सही समय पर पत्र नहीं पढ़ पाने के कारण जगदेव प्रसाद हिंदुस्तानी शोषित दल के गठन के बाद 21 जनवरी, 1971 को जवाबी पत्र लिखा और मध्य प्रदेश में दल की शाखा खोलने के बारे में उनके इरादे का स्वागत किया।
दूसरी तरफ, अखिल भारतीय स्तर पर शोषितों की स्वतंत्र राजनीतिक ताकत खड़ा करने के लिए वे हिंदी पट्टी सहित देश के दूसरे हिस्सों में सक्रिय दलों, संगठनों और सामाजिक-राजनीतिक तौर पर सक्रिय व्यक्तित्वों के साथ भी लगातार संवाद कर रहे थे। हिंदी पट्टी में उन्हें सफलता भी मिली थी। 14 नवंबर, 1969 को ‘शोषित’ पत्रिका में एक पाठक के सवाल का जवाब देते हुए जगदेव प्रसाद अखिल भारतीय शोषित दल बनाने के विचार और इस दिशा में जून महीने से शुरू किए गए प्रयास का उल्लेख करते हैं। रिपब्लिकन पार्टी, शेतकरी कामगार पक्ष (महाराष्ट्र), उत्तर प्रदेश में सक्रिय राष्ट्रीय शोषित संघ, झारखंड पार्टी सहित कुछ अन्य राजनीतिक व्यक्तियों जैसे शिवदयाल सिंह चौरसिया, रामलखन चंदापुरी, गुलाम सरवर और जुबैर आजम जाफरी आदि से उनकी सकारात्मक बातचीत होती है। डीएमके के कुछ नेताओं से दिल्ली में हुई बातचीत से जानकारी मिलती है कि वे भी शोषितों के राष्ट्रीय स्तर के राजनीतिक संगठन की जरूरत महसूस करते हैं, लेकिन हिंदी भाषा के वर्चस्ववाद के विरोधी होने के कारण वे हिंदी भाषी राज्यों को संदेह की निगाह से देखते हैं। हालांकि, वे विश्वास व्यक्त करते हैं कि थोड़ी कोशिश करने पर वे भी इसके लिए तैयार हो जाएंगे। अर्जक संघ की स्थापना 1 जून, 1968 को हुई। इसके संस्थापक रामस्वरूप वर्मा को जगदेव प्रसाद ने दो बार पत्र लिखा।
‘शोषित’ पत्रिका में संपादक के नाम चिट्ठी में एक पाठक द्वारा उठाए गए सवाल के जवाब में वह रामस्वरूप वर्मा से जवाब नहीं मिलने का जिक्र करते हैं। वे बताते हैं– “सुनने में आया है कि उनको [रामस्वरूप वर्मा को] ‘शोषित’ नाम पसंद नहीं है।” और जगदेव प्रसाद नाम पसंद होने या न होने को बहस का विषय मानते हैं।
जगदेव प्रसाद का मानना था कि राष्ट्रीय स्तर पर शोषितों के राजनीतिक संगठन का निर्माण दो रास्ते संभव है। एक रास्ता यह कि मद्रास के डीएमके, महाराष्ट्र के शेतकरी कामगार पक्ष, रिपब्लिकन पार्टी, झारखंड पार्टी और शोषित दल को मिलाकर राष्ट्रीय स्तर पर एक महासंघ बना दिया जाए, जिससे उपर्युक्त सभी पार्टियां केंद्रीय नेतृत्व और राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय नीतियों के लिए संबंद्ध हों! उनकी समझ थी कि इस महासंघ का नाम ‘शोषित महासंघ’ रखा जाना चाहिए, जिसे देश की 90 प्रतिशत शोषित जनता अपना राजनीतिक संगठन समझ सके। दूसरे रास्ते के बारे में वे बताते हैं कि उपर्युक्त राजनीतिक दलों को छोड़कर शोषित दल तथा शोषित समाज के कुछ राजनीतिक व्यक्तियों को लेकर एक नया अखिल भारतीय शोषित दल बना लिया जाए। उनके अनुसार, इस रास्ते से देश भर के शोषितों को संगठित करने में काफी वक्त लगेगा। वे उस दौर की स्थिति में देश के शोषितों को एक झंडे के नीचे लाने के लिए ‘शोषित महासंघ’ के रास्ते को सबसे बढ़िया और आसान बताते हैं।
हिंदुस्तानी शोषित दल के गठन के बाद 6 और 7 नवंबर, 1971 को बनारस के सरदार वल्लभ भाई पटेल स्मारक अतिथिशाला में बिहार और उत्तर प्रदेश के लगभग 300 प्रमुख कार्यकर्ताओं का प्रशिक्षण शिविर आयोजित हुआ था। इस आयोजन में शामिल कार्यकर्ताओं की सहमति के बाद एक बार फिर जगदेव प्रसाद ने 20 नवंबर, 1971 को रामस्वरूप वर्मा को पत्र लिखा। इस पत्र में वे स्पष्ट करते हैं– “पटना और लखनऊ से हिंदुस्तानी शोषित दल और अर्जक संघ के माध्यम से जो काम राजनीति और संस्कृति के क्षेत्र में हो रहे हैं, उनकी दिशा और दर्शन में कोई बुनियादी फर्क नहीं है।” वे आगे लिखते हैं कि पटना और लखनऊ का राजनीतिक मंच एक हो जाने पर सारे देश में महान शोषित जनता के लिए द्विजवादी शोषण से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त हो जाएगा। पत्र में वे दिसंबर के तीसरे या चौथे हफ्ते में अर्जक संघ के आयोजित होने वाले जलसे में शामिल होने के लिए कानपुर आने और शोषित इंकलाब को आगे बढ़ाने के बारे में उस मौके पर कोई फैसला लेने की चाहत व्यक्त करते हैं। वे इस जलसे में करुणानिधि के भी शामिल होने की चर्चा करते हुए उन्हें उत्तर भारत में लाने के लिए रामस्वरूप वर्मा को बधाई प्रेषित करते हैं।
वहीं, जगदेव प्रसाद 30 नवंबर, 1971 को चौधरी चरण सिंह को भी पत्र लिखते हैं। जबकि, इस पत्र से पहले 14 जून, 1969 को राष्ट्रीय शोषित संघ के सालाना जलसे में जगदेव प्रसाद ने उद्घाटन भाषण में चौधरी चरण सिंह पर तल्ख टिप्पणी की थी। उनके शब्दों में– “सुना है, आपके यहां चौधरी चरण सिंह की बड़ी इज्जत है। पिछड़ी जाति का आधार बनाकर उन्होंने यहां चुनाव लड़ा है। परंतु इधर वे जनसंघ और स्वतंत्र पार्टी जैसी प्रतिक्रियावादी पार्टियों के साथ गठबंधन करने को तुले हुए हैं। आप उनसे साफ कह दें कि वे खुलेआम पिछड़ी जाति की चर्चा करें, वे आपके हक की रक्षा के लिए लड़ाई लड़ें। यदि वे इस तरह की साफगोई नहीं करते हैं तो आपको हक है कि नेतृत्व का बदलाव करें।” उल्लेखनीय है कि 1969 के मध्यावधि चुनाव में पिछड़ों के अच्छे-खासे समर्थन के साथ चौधरी चरण सिंह की अगुआई में भारतीय क्रांति दल मुख्य विपक्षी पार्टी के बतौर उभरकर आई थी।
बनारस के प्रशिक्षण शिविर में शामिल कार्यकर्ताओं द्वारा रामस्वरूप वर्मा से बातचीत करने के लिए प्रेरित करने का जिक्र करते हुए जगदेव प्रसाद उन्हें लिखे पत्र में अपनी भावना व विचार इस तरह व्यक्त करते हैं– “आप शोषित समाज में पैदा हुए एक सामर्थ्यशाली नेता हैं। राजनीति में आपने भी काफी प्रयोग किए हैं और अब इस नतीजे पर पहुंचे होंगे कि ब्राह्मणों के खूनी चंगुल से नब्बे प्रतिशत विशाल शोषित जनता को मुक्त करने के लिए एक नई राजनीति गढ़ने और चलाने की जरूरत है। मैं चाहता हूं कि उस नई राजनीति को जिसका आधार देश की नब्बे प्रतिशत महान शोषित जनता होगी, गढ़ने और चलाने के लिए आपसे एक बार बातचीत हो।” वे दिसंबर में कानपुर में आयोजित अर्जक संघ के जलसे और उसमें करुणानिधि के शामिल होने का जिक्र करते हुए एक साथ मिलने का अच्छा मौका बताते हैं।
आखिरकार, 1972 के जून माह में कानपुर में आयोजित अर्जक संघ (उत्तर प्रदेश) के सालाना जलसे का उद्घाटन करने के लिए जगदेव प्रसाद को बुलाया जाता है। लखनऊ और कानपुर में तीन दलों– हिंदुस्तानी शोषित दल, समाज दल और रिपब्लिकन पार्टी को मिलाकर एक अखिल भारतीय दल बनाने पर चर्चा होती है। उल्लेखनीय है कि इससे पहले संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (संसोपा) से अलग होकर रामस्वरूप वर्मा की अगुआई में उत्तर प्रदेश में 14 जनवरी, 1971 को समाज दल का गठन भी हो चुका था। वहीं, आरपीआई की पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अच्छी उपस्थिति थी। इस क्षेत्र में आरपीआई ने 1962 और 1967 के विधानसभा चुनावों में क्रमश: 8 और 10 सीटें जीती थीं। इस क्षेत्र में आरपीआई को खड़ा करने में बी.पी. मौर्य की महत्वपूर्ण भूमिका थी। शुरुआत में ‘शोषित महासंघ’ बनाने के लिए जिन राजनीतिक दलों से जगदेव प्रसाद की बातचीत हुई थी, उनमें सबसे ज्यादा उत्सुकता रिपब्लिकन पार्टी के बी.पी. मौर्य और राष्ट्रीय शोषित संघ से मिली थी।
जगदेव प्रसाद के शब्दों में– “माननीय बी.पी. मौर्य ने तो यहां तक कहा कि शोषित दल और रिपब्लिकन पार्टी में कोई फर्क नहीं है, बल्कि ‘शोषित’ नाम सबसे बढ़िया नाम है।” लेकिन, इस बीच बी.पी. मौर्य कांग्रेस में शामिल हो चुके थे। आरपीआई टूट-बिखर रही थी। अंतत: 5 और 6 अगस्त को तीनों दलों के नुमाइंदों का पटना में आयोजित सम्मेलन के साथ सर्वसम्मति से 7 अगस्त, 1972 को ‘शोषित समाज दल’ की स्थापना होती है। बाद में शोषित समाज दल का पहला राष्ट्रीय सम्मेलन बिहार के डालमिया नगर में हुआ था, जिसमें रामस्वरूप वर्मा को राष्ट्रीय अध्यक्ष और जगदेव प्रसाद को राष्ट्रीय महामंत्री बनाया गया था। इस तरह से हिंदी पट्टी में ब्राह्मणवाद विरोधी क्रांतिकारी राजनीतिक धारा आगे बढ़ती है।