जन्मदिन 3 जनवरी (3.1.1903-20.3.1970)
अतुल कृष्ण बिस्वास
भारतीय सिविल सेवा को ठोकर मारने वाले सुभाष चन्द्र बोस अकेले व्यक्ति नहीं थे। जयपाल सिंह मुंडा ने भी ऐसा किया था जो बाद में संविधान सभा में आदिवासियों की आवाज बने और भारतीय समाज की मुख्यधारा में फैले जातिवाद और पितृसत्ता के खिलाफ आवाज उठाई।
आदिवासियों के हृदय पर राज करने वाले उनके आइकॉन को भारतीय इतिहास में वह महत्त्व नहीं दिया गया जिसके वे हकदार हैं। बाहरियों ने आदिवासियों का निर्मम शोषण किया और उनके साथ बेईमानी की। बर्बरता की हद तक यह सदियों तक निर्बाध चलता रहा। इसमें कोई शक नहीं है कि गैर-आदिवासियों की अनैतिक मंशा और कपट के कारण आदिवासी उन पर विश्वास नहीं करते।
संथालों ने 1855 में विद्रोह किया। हमारे समाज का एक हिस्सा इस विद्रोह को ऐसे पेश कर रहा है जैसे यह अंग्रेजी शासन के खिलाफ था। लेकिन सामान्य रूप से देखें, तो संथाल विद्रोह वास्तव में बाहरियों के खिलाफ था जिनको वे अपनी भाषा में दिकु कहते थे। दिकु मतलब – धोखेबाज, शोषक और जबरन वसूली करने वाला।
बिरसा मुंडा के नेतृत्व में दक्षिण रांची से उलगुलान (1895-1900) शुरू हुआ। उलगुलान का अर्थ है “महान विद्रोह”। उलगुलान आदिवासी भूमि पर अतिक्रमण और बेदखली के खिलाफ था। परंपरागत रूप से मुंडा समुदाय को “खुंटकट्टीदार” या जंगलों की मूल सफाई करने वालों के रूप में लगान की दर में तरजीही रियायत दी जाती थी। पर 19वीं सदी के दौरान “जागीरदारों” और “ठेकेदारों” ने खुंटकट्टी व्यवस्था को कमजोर करना शुरू कर दिया। ये जागीरदार और ठेकेदार बाहर से आए हुए लोग थे जो आदिवासी क्षेत्र में व्यापारियों और सूदखोरों के रूप में आए और धीरे-धीरे जंगल को इन्होंने रौंद डाला।
टपकारा के एक मुंडा गाँव, रांची, बिहार (अब झारखण्ड) में जयपाल का जन्म हुआ। जयपाल के परिवार ने ईसाई धर्म कबूल कर लिया था। एसपीजी मिशन, चर्च ऑफ़ इंग्लैंड, ने उनमें छिपी प्रतिभा और नेतृत्व क्षमता की शुरू में ही पहचान कर ली थी। सेंट पॉल के प्रधानाचार्य उनके संरक्षक बन गए और उन्हें उच्च शिक्षा के लिए ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय, इंग्लैंड भेज दिया। यहाँ पर एक प्रतिभाशाली हॉकी खिलाड़ी के रूप में अपना सिक्का जमाने में जयपाल को ज्यादा वक़्त नहीं लगा और शीघ्र ही वे ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय के हॉकी टीम में शामिल कर लिए गए। हॉकी के मैदान में एक रक्षक के रूप में उनके खेल की खूबी थी अपने प्रतिद्वंद्वियों को गेंद पर काबू नहीं करने देना। उनकी सूझबूझ विलक्षण थी। हॉकी में ऑक्सफ़ोर्ड ब्लू का ख़िताब पाने वाले वे पहले भारतीय छात्र बने।
देशभक्ति निजी हितों से ऊपर
जयपाल ने साक्षात्कार में सर्वाधिक अंक लेकर आईसीएस की परीक्षा पास की। उनसे पहले इस परीक्षा को पास करने वाले भारतीय धनी और अभिजातीय भूस्वामियों के वर्ग से आते थे। जयपाल एक विशिष्ट अपवाद थे।
इंग्लैंड में आईसीएस प्रोबेशनर के रूप में प्रशिक्षण लेने के दौरान उन्हें एम्स्टर्डम में होने वाले ग्रीष्मकालीन ओलंपिक में भारत का प्रतिनिधित्व करने का न्योता मिला। लंदन स्थित इंडिया ऑफिस से संपर्क कर जयपाल ने एम्स्टर्डम जाने के लिए छुट्टी मांगी। पर उनका आवेदन अस्वीकार कर दिया गया।
जयपाल सिंह मुंडा उस भारतीय हाकी टीम के कप्तान थे, जिसने 1928 में संपन्न हुए ओलंपिक में गोल्ड मेडल जीता था। यह ओलंपिक हालैंड के एम्सटरडम में संपन्न हुआ था
उनकी दुविधा थी-देश के लिए खेलें या फिर आईसीएस में बने रहें। पर उन्होंने देश के लिए खेलना पसंद किया।
फाइनल में भारत ने हॉलैंड को 3-0 से हरा दिया। जर्मनी और बेल्जियम को क्रमशः तीसरे और चौथे स्थान से संतोष करना पड़ा। भारत को ओलंपिक में मिला यह पहला स्वर्ण पदक था।
शादी
वे भारत लौट आए और एक बहुराष्ट्रीय तेल कंपनी बर्मा शेल में नौकरी कर ली। नौकरी के दौरान वे कलकत्ता में रह रहे थे। तारा विन्फ्रेड मजूमदार, व्योमेश चन्द्र बनर्जी की पोती से उनकी शादी हुई। बनर्जी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संस्थापकों में से थे और इसके प्रथम अध्यक्ष (1885) भी रहे। हालांकि, यह शादी ज्यादा दिन तक नहीं टिकी।
रायपुर में राजकुमार कॉलेज के प्राचार्य पद पर रहते हुए, अपनी उत्कृष्ट शैक्षणिक योग्यता, खेल सहित अन्य क्षेत्रों में उपलब्धियों, सामर्थ्य और नेतृत्व की क्षमता के बावजूद उनको यहाँ पर जाति आधारित घृणा और भेदभाव का निशाना बनाया गया। इसलिए जयपाल वहाँ से एक बार फिर अध्यापन कार्य के लिए गोल्ड कोस्ट, अफ्रीका चले गए।
जब वे भारत लौटे तो उनको बीकानेर राजघराने ने उपनिवेशन मंत्री और राजस्व आयुक्त नियुक्त किया। उनको पदोन्नति देकर बीकानेर स्टेट का विदेश सचिव बना दिया गया।
अपने लोगों के बीच वापसी
इस समय तक आते-आते उनको अंदर से यह लगने लगा कि उन्हें अपने लोगों के लिए कुछ करना चाहिए। उनके ये अपने लोग थे बिहार में छोटानागपुर के उपेक्षित और शोषित आदिवासी। वे बिहार वापस आए। बिहार और उड़ीसा के गवर्नर सर मौरिस हॉलेट और मुख्य सचिव रोबर्ट रसेल दोनों ने उनको आदिवासियों के हित के लिए काम करने को कहा। जयपाल सिंह रांची गए जहाँ आदिवासियों ने उनका गर्मजोशी से शानदार स्वागत किया।
संविधान सभा में अपने लोगों का प्रतिनिधित्व
1946 में वे बिहार के एक आम निर्वाचन क्षेत्र से संविधान सभा के लिए चुने गए। जयपाल ने पहली बार 19 दिसंबर 1946 को संविधान सभा में अपना भाषण दिया। एक “जंगली” – जंगल में रहने वाले के रूप में अपना परिचय देते हुए उन्होंने अज्ञात लोगों के बारे में बात की। “ये अज्ञात लोग स्वतंत्रता के गैर मान्यता प्राप्त लड़ाके थे। ये भारत के मूलनिवासी हैं जिन्हें पिछड़ी/आदिम/आपराधिक जनजाति और न जाने किस-किस नाम से जाना जाता है। सर, मैं एक जंगली कहलाने में गौरव का अनुभव करता हूँ – इस देश के अपने हिस्से में इसी नाम से हम जाने जाते हैं।”
जयपाल सिंह ने अपने “आदिम लोगों” की शिकायतों को स्वर देने में कोई कोताही नहीं बरती। उनका कहना था कि “उनके लोगों के साथ दुर्व्यवहार हो रहा है … उनका निरादार हो रहा है और पिछले 6000 सालों से उनकी उपेक्षा की जा रही है”।
जयपाल सिंह मुंडा ने संविधान सभा में कहा : “सिंधु घाटी की सभ्यता की हम पैदाइश हैं। यह सभ्यता हमें स्पष्ट रूप से यह बताती है कि नवागंतुकों ने हमारे लोगों को सिंधु सभ्यता से जंगल में खदेड़ दिया। यहाँ बैठे आप जैसे अधिकाँश लोग ऐसे ही नवागंतुक घुसपैठिये हैं।”
नवगठित संविधान सभा के “इज्जतदार लोगों” की संभवतः यह सर्वाधिक कटु आलोचना थी। ये सब के सब सुशिक्षित लोग थे जो देश के विभिन्न भागों से चुनकर संविधान सभा में पहुंचे थे। अगर इतिहासकारों ने इस बयान को भारतीय इतिहास लेखन में दर्ज नहीं किया है, तो यह इस बात को रेखांकित करता है कि उनमें ऐसा करने की हिम्मत नहीं थी। यह इतिहास लेखन में उनके दबदबे, उनकी गहरी दुर्भावना और पक्षपात को दर्शाता है।
संविधान सभा के सभी (प्रांतीय विधायिकाओं द्वारा चुने गए 292 + 93 भारतीय रियासतों के प्रतिनिधि + 4 चीफ कमिश्नर के प्रांतों के प्रतिनिधि) सदस्य चुपचाप जयपाल को सुनते रहे जो उनको भारत के वैकल्पिक इतिहास से रूबरू करा रहे थे।
अपने भाषण में जयपाल सिंह मुंडा ने कैबिनेट मिशन द्वारा आदिवासियों के प्रति दिखाई गयी बेरुखी और उपेक्षा भाव की तीखी आलोचना की। उन्होंने अफसोस जताते हुए कहा कि इस 3 करोड़ लोगों का प्रतिनिधित्व करने के लिए “संविधान सभा में मात्र छह आदिबासी सदस्य” हैं।
आदिवासी समुदायों की जेंडर समानता में दृढ़ता से विश्वास करने वाले जयपाल ने विधायिका में “ज्यादा संख्या में आदिवासियों” को शामिल करने की मांग की ताकि उनके हितों का प्रतिनिधित्व हो सके और कहा, “महाशय, मेरा अभिप्राय सिर्फ (आदिबासी) पुरुषों से ही नहीं बल्कि महिलाओं से भी है। संविधान सभा में जरूरत से ज्यादा पुरुष हैं। हम चाहते हैं ज्यादा महिलाएं यहाँ हों…” स्वतंत्र भारत को स्वरूप देने और उसके निर्माण में महिलाओं की भागीदारी पर जोर देने वाले जयपाल सिंह निश्चित रूप से ऐसे पहले लोगों में से थे।
आगे कहा,
“आप आदिवासियों को लोकतंत्र का पाठ नहीं पढ़ा सकते; आपको उनसे लोकतांत्रिक तरीके सीखने हैं। वे इस धरती के सर्वाधिक लोकतांत्रिक लोग हैं।” आदिवासी समुदायों में जिस तरह की लोकतांत्रिक परंपराएं मौजूद हैं और जिस तरह वे उन पर अमल करते हैं, यह देश उन पर गर्व कर सकता है। आदिवासी समुदाय समतावादी समाज के जीवंत उदाहरण हैं। जाति का अस्तित्व नहीं है। हम सब बराबर हैं। इनमें समुदाय का एक हिस्सा बिना किसी कारण और तर्क के दूसरे हिस्से से भेदभाव नहीं करता, उनके जीवन को दुष्कर नहीं बनाता।
महाशय, हमारे लोगों को मंत्रियों से सुरक्षा चाहिए। हम किसी विशेष सुरक्षा की मांग नहीं करते हैं। हम चाहते हैं कि हमारे साथ भी अन्य सभी भारतीयों की तरह ही बर्ताव हो”।
उन्होंने अनुच्छेद 13(1)(b) के तहत स्वतंत्रता और अधिकारों के मुद्दे की चर्चा की जिसमें “शांतिपूर्ण तरीके से एकत्र होने और बिना किसी हथियार के प्रदर्शन” की बात शामिल थी। उन्होंने कहा, “आर्म्स एक्ट के इस प्रावधान को बहुत ही शरारतपूर्ण तरीके से आदिबासियों पर लागू किया गया है। कुछ राजनीतिक दलों ने तो यह कह कर हद ही कर दी कि आदिबासी लोग आज भी तीर-कमान, लाठी और कुल्हाड़ी लेकर चलते हैं। इसका मतलब यह है कि वे लोग हमारे लिए मुश्किल पैदा करने वाले हैं। पर आदिबासी लोग तो ऐसा पीढी दर पीढी करते आए हैं और जो आज कर रहे हैं उसे पहले भी करते रहे हैं।”
“मैं एक और दृष्टांत दूंगा। छोटानागपुर में यह रिवाज है कि हर सात साल पर वहाँ ‘एरा सेंद्रा’ (जनशिकार) का आयोजन होता है। महिलाएं पुरुष का वेष धारण कर जंगलों में शिकार करती हैं। वे पुरुषों की तरह तीर-कमान, लाठियों, भालों और इस तरह के अन्य हथियारों से लैश होती हैं। महाशय, अब संविधान के इस नए अनुच्छेद के अनुसार सरकार यह मान सकती है कि हर सात साल पर महिलाएं कुछ खतरनाक उद्देश्यों के लिए जमा होती रही हैं। मैं सदन से आग्रह करता हूँ कि वह ऐसा कुछ भी न करे जो इन सीधे-सादे लोगों को परेशानी में डाल दे। ये लोग हमारे देश के सर्वाधिक शांतिप्रिय नागरिकों में हैं। हमें ऐसा कुछ नहीं करना चाहिए जिससे उनमें गलतफहमी पैदा हो और मुश्किलें और बढ़ जाएं।”
जयपाल काफी अच्छे वक्ता थे और किसी भी डिबेट में वो आदिवासियों की बात रखने का बहाना ढूंढ ही लेते थे, जब नेशनल फ्लैग पर चर्चा चल रही थी तो तो जयपाल ने कहा, ‘’इस सभा के अधिकांश सदस्य यही समझते हैं कि आर्यों में झंडा फहराने की परम्परा रही है, लेकिन मैं आप सबको बता देना चाहता हूं कि आदिवासी झंडा फहराने का काम हजारों सालों से कर रहे हैं, वो पहले हैं। हर कबीले के अपना अलग झंडा होता है और वो उसके लिए लड़मर भी जाते हैं। अब उनके दो झंडे होंगे, एक वह जिसे वो 6000 साल से फहराते आ रहे हैं, और एक नेशनल फ्लैग जो इस बात का प्रतीक होगा कि अब उनकी 6000 साल की गुलामी खत्म हो गई है और अब वो भी उतने ही स्वतंत्र होंगे जितने कि बाकी लोग हैं।‘’ दरअसल उस वक्त आर्यों के बाहर से आने की थ्यौरी काफी चर्चा में थी।
जयपाल के आदिवासी परम्पराओं और रहन सहन के ज्ञान और वाकपटुता का किसी के पास भी कोई जवाब नहीं हुआ करता था। तभी तो आदिवासियों को उनका हक दिलाने के उद्देश्य से एक सब कमेटी सोशल वर्कर एवी ठक्कर की अगुआई में बना दी गई थी। जिसकी सिफारिशों पर आदिवासियों को संविधान में तमाम अधिकार मिले।
जयपाल बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। वह एक निपुण लेखक, हॉकी के जादूगर, विलक्षण वक्ता, दूरदर्शी, महान देशभक्त और आदिवासियों के मुद्दों और उनके अधिकारों के अथक हिमायती थे।
उनकी उपलब्धियां आज की पीढ़ी को शायद ही पता होंगी।
आओ!
हम भी जयपाल सिंह मुंडा जी के प्रेरक जीवन से प्रेरणा लेकर वंचितों के जीवन में खुशियाँ लाने का प्रयास करें।
संदर्भ
लेखक अतुल कृष्ण बिस्वास पूर्व आईएएस अधिकारी हैं और बी.आर.अंबेडकर विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर बिहार के कुलपति रह चुके हैं।