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जयप्रकाश नारायण ….समाजवादी आंदोलन अपने ही अंतर्द्वंद्वों का शिकार

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हम यहां से अपनी बात शुरू कर सकते हैं कि जयप्रकाश की नजर में समाजवाद का मुख्य आधार उत्पादनों के साधनों का सामाजिकीकरण है, जिसके द्वारा धन के विषम वितरण और शोषण-जनित बुराइयों को दूर किया जा सकता है। बता रही हैं संयुक्ता भारती

अपनी किताब ‘समाजवाद क्यों?’ में जयप्रकाश नारायण साफ-साफ लिखते हैं– “समाजवाद एक व्यक्तिगत आचरण संहिता न होकर सामाजिक संगठन की एक प्रणाली है तथा सामाजिक संगठन का उद्देश्य यह है कि पद-संस्कृति एवं अवसर की विषमताओं को दूर किया जाय, जीवन की श्रेष्ठ वस्तुओं के कष्टमय असमान वितरण को समाप्त किया जाय और उस दशा को समाप्त किया जाय जिसमें अधिकांश व्यक्ति गरीबी, भूख, गंदगी, रोग एंव अज्ञान का जीवन बसर करते हैं और कुछ थोड़े से लोग आराम, संस्कृति, पद और सत्ता का आनंद उठाते हैं।” 

हम यहां से अपनी बात शुरू कर सकते हैं कि जयप्रकाश की नजर में समाजवाद का मुख्य आधार उत्पादनों के साधनों का सामाजिकीकरण है, जिसके द्वारा धन के विषम वितरण और शोषण-जनित बुराइयों को दूर किया जा सकता है। यह उपयुक्त है कि भूमि का स्वामित्व जोतनेवाले के हाथ में हो और सरकारी कृषि को प्रोत्साहन दिया जाय। जयप्रकाश नारायण चाहते थे कि उत्पादन-साधनों के व्यक्तिगत स्वामित्व और स्वतंत्र उद्योग पर आधारित वर्तमान सामाजिक व्यवस्था के स्थान पर उत्पादन साधनों पर राजकीय नियंत्रण और स्वामित्व की नवीन सामाजिक व्यवस्था लाई जानी चाहिए और यह तभी संभव है जब शासन सूत्र समाजवादियों के अधिकार में हो। दूसरे शब्दों में जयप्रकाश नारायण अपने इच्छित आर्थिक एवं सामाजिक पुनर्निर्माण के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए यह आवश्यक मानते थे कि समाजवादी शासन तंत्र पर अपना अधिकार जमाए। यह तो तभी मुमकिन था जबकि देश आजाद होता। पराधीनता की स्थिति में यह मुमकिन नहीं था। इसलिए उनका व अन्य समाजवादियों का पहला जोर स्वतंत्रता प्राप्ति पर था।

वैसे भारत में समाजवाद की अवधारणा का उल्लेख वैसे तो इतिहास के पन्नों में उस तरह से दर्ज नहीं है, जिस तरह से राजा-महाराजाओं का इतिहास दर्ज है। इसकी एक वजह यह भी मुमकिन है कि भारतीय सामाजिक व्यवस्था में समाजवाद अपने मूल स्वरूप में था ही नहीं। तब भी यह देश चातुर्वर्णी व्यवस्था के तहत संचालित होता था। बाहरी शासकों ने भी इसके इस स्वरूप में कोई खास हस्तक्षेप नहीं किया। हालांकि मध्यकाल में कबीर और रैदास आदि की रचनाओं में समाजवाद के कुछ सिद्धांत जरूर मिलते हैं। लेकिन हमें यह याद रखना होगा कि कबीर और रैदास, दोनों के लिए राजनीति बहुत अधिक महत्वपूर्ण नहीं रही थी। उनका तत्कालीन शासकों से टकराव भी होता है, लेकिन कुल मिलाकर यह उनका साहित्यिक प्रयास ही था।

इस तरह अतीत का अवलोकन करें तो भारत में समाजवाद की बुनियाद 17 मई, 1934 को हुई। इसी दिन कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना हुई थी। तब से लेकर आजतक इसके रंग और तेवर में बहुत फर्क आया है। आज भले ही नवउदारवाद ने अपनी चपेट में लगभग सभी तरह की विचारधाराओं को ले लिया है, लेकिन समाजवाद को आज भी एक बेहतर विकल्प माना जाता है। यह आज भी करोड़ों लोगों का सपना है। यह वही सपना है, जो जर्मनी के कार्ल मार्क्स और उनके साथी एंगेल्स ने देखा था। भारत में यह सपना जिस व्यक्ति ने सबसे अधिक संजोया और सबसे अधिक प्रतिबद्धता का उदाहरण प्रस्तुत किया, उनका नाम जयप्रकाश नारायण है। 

आप किसी भी किताब को उठाइये पुराना इतिहास या वर्त्तमान इतिहास। सन् 1905 से 1947 के बीच का या 1947 से 2019 के बीच का– सभी अच्छे प्रयासों में, उसकी बुनियाद में आपको समाजवादियों का योगदान मिलेगा। यह इसके बावजूद कि आज की परिस्थितियां क्या हैं। हम चाहें तो कह सकते हैं और यह अतिश्योक्ति भी नहीं होगी कि हमारी अपनी क्षमता और प्रभाव बढ़ा है। हमारा अपना जीवन पहले से ज्यादा साधन संपन्न है। लेकिन खतरे भी उसी अनुपात में सामने आए हैं। खासकर यदि हम शासकों में बढ़ते फासीवाद का अवलोकन करें। पूंजी आधारित सियासत ने लोकतांत्रिक शासन-व्यवस्था की चूलें हिला दी हैं। नतीजा यह हो रहा है कि आज देश में निजीकरण को बढ़ावा दिया जा रहा है। यह केवल यही तक सीमित भी नहीं है। यही वह परिस्थितियां थीं, जिनके बारे में जयप्रकाश नारायण चिंतन किया करते थे। यह कहना भी अतिश्योक्ति नहीं होगी कि उन्होंने संपूर्ण क्रांति आंदोलन का आह्वान भी इसलिए किया था ताकि इस देश की संप्रभुता पूंजीपतियाें के यहां गिरवी ना रख दी जाय। 

लेकिन हम पलटकर देखते हैं तो आखिर कौन है कसूरवार? आज भारत में समाजवाद एक ऐसा घर बन गया है, जिसमें कमरे तो अनेक हैं, लेकिन छत नहीं है और बुनियाद की ईंटों में दीमकों का वास है। हर चुनावी बरसात में घर में पानी भर जाता है। कुछ लोग समाजवादी धारा से निकल के सत्ता की तलाश में सिद्धांतों से समझौता करते हुए, कुछ तात्कालिक उपलब्धियों के लिए घर से बाहर चले जाते हैं। 

स्वयं जयप्रकाश नारायण भी इससे नावाकिफ नहीं थे। पटना के अंजुमन इस्लामिया हॉल में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की घोषणा के समय वे मौजूद थे। उस समय स्वतंत्रता ही अपने आप में एक सपना थी। विदेशी राज से मुक्ति का कोई रास्ता दिखाई नहीं पड़ रहा था। और, दूसरी तरफ गुलामी से बेचैनी थी। शोषण से मुक्ति की जरुरत थी। उनमें संगठन की क्षमता नहीं थी। व्यापक अशिक्षा और निरक्षरता थी। भयंकर जाति भेद, गहराई तक साम्प्रदायिकता और उस सबसे ऊपर देशियों के द्वारा ही विदेशियों के इशारे पर देशियों का भयंकर शोषण मौजूद था। जमींदारी प्रथा चरम पर थी। देशी जमींदार किसी भी मायने में अंग्रेजों से कम नहीं थे। भारतीय समाज का उत्पादक वर्ग उनके जुल्म से कराह रहा था। कांग्रेस अपने अंतर्द्वंद्वों के चक्रव्यूह में स्वयं फंस चुकी थी। हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग भारतीयता की गंगा-जमुनी परिभाषा को अपने-अपने हिसाब से गढ़ने में लगी थीं। गांधी तब 9 अगस्त, 1942 को करो या मरो का आह्वान करते हैं। समाजवादियों ने इसमें जमकर भाग लिया। लोहिया और जयप्रकाश ने, अच्युत पटवर्धन, युसूफ मेहर अली ने, अरुणा आसफ अली और पूर्णिमा बैनर्जी ने– इन लोगों ने तो अपनी जान की बाज़ी ही लगा दी थी। लेकिन यह बात तो तब की है जब देश पराधीन था। स्वाधीन भारत में कांग्रेस शासक बनी। और देखते ही देखते वह अपने ही सिद्धांतों से पीछे हटते गयी। समाजवाद अपने लिए जगह बनाने को छटपटा रहा था। हालांकि जब देश में गैर कांग्रेसवाद की लहर चली,| शुरू में उसमें समाजवादियों का साथ कम्युनिस्टों ने भी दिया। बाद में 1967 में सत्ता की छोटी सी एक गुंजाईश की खिड़की खुलने के बाद कम्युनिस्टों का एक बड़ा हिस्सा, 1969 के बाद समाजवादियों का एक छोटा सा हिस्सा कांग्रेस की तरफ मुड़ गया। कांग्रेस खुद अन्तर्विरोध ग्रस्त होकर टूट गयी।

1969 से लेकर 1973 तक के लिए ऐसा लगा कि केंद्र की सत्ता समाजवाद की तरफ मुड़ रही है। बैंकों का राष्ट्रीयकरण, राजाओं के प्रीवी पर्स का खात्मा, गरीबों को रोजगार के लिए छोटी-बड़ी मदद। अनाज और उद्योग के बीच में सरकार की ज्यादा भूमिका। मजदूर आन्दोलन का प्रबल होना। विद्यार्थियों की मांगों का सुना जाना। किसानों की बेहतर दाम मिलना। हरित क्रांति के बेहतर परिणाम का आना – जैसी कई चीजें हुईं। लेकिन परिणाम यही हुआ कि बेताल फिर से अपनी पुरानी डाल पर जा बैठा।  

सन् 1974 से 77 की काली रातें किसे नहीं याद होंगी! उन्हीं को नहीं याद होंगी, जो 1979 तक होशोहवास में नहीं थे। यानी जो लोग आज की उम्र में एकतरह से कुल मिलाकर के 55 वर्ष से कम उम्र की हैं, उनके लिए 1974 उतनी ही दूर है, उनसे पहले की पीढ़ी के लिए जितना 1942 था। फिर 1991-92 का जमाना आया। आपातकाल तो चला गया। लेकिन सामाजिक न्याय की तलाश में जो लोग थे, अस्मिता की राजनीति को जो लोग ज़रूरी मानते थे, औपनिवेशिकता से आगे जाने के लिए धर्म, भाषा, जाति से जुड़े बंधनों को जो ढीला करना चाहते थे, वंचना को खत्म करना चाहते थे, उस वंचित भारत की तरफ से ललकार हुई और तब एक नया त्रिकोण बना। 

आज हम जिस मुकाम पर हैं, उसके पीछे को देखें तो हम पाते हैं कि समाजवादियों के लिए आज पराजय और असफलता का संकट नहीं है। संकट तो सफलता का है। इस देश में समाजवादी 1942 में सफल हुए। वे 1964-67 में सफल हुए। लेकिन गैर कांग्रेसवाद की जो राजनीतिक परिणिति थी वह इंदिरा गांधी की वर्चस्वता और आपातकाल में बदल गयी। उसी तरह से 1991-92 में मंडलीकरण, सामाजिक न्याय की लड़ाई, मंदिर बनाओ, हिन्दू अस्मिता की लड़ाई और भूमंडलीकरण। भारतीय पूंजीपतियों का खुल करके मध्यमवर्ग से मिल करके भारतीय राष्ट्रीयता पर प्रहार करते हुए वैश्विक पूँजी के साथ नए तरह की रिश्तेदारी की कोशिश। आज मंदिर की ताकतें और बाजारीकरण यानि भूमंडलीकरण की ताकतें – दोनों का एक नया गठजोड़ बन गया। इसका कुछ सकारात्मक हासिल देश को तो नहीं ही हुआ, एक विषम माहौल जरुर बन गया है। ऊंची जातियों या सवर्ण जातियों के नौजवानों को वैचारिक धुंध के कारण ऐसा लगा कि मंडल की नीति, आरक्षण की नीति उनके ऊपर हमला है। उन्होंने यह नहीं देखा कि ये जनतंत्र को गहरा करने की कोशिश है। सत्ता व्यवस्था में वंचित भारत की हिस्सेदारी के लिए एक अधूरे काम को पूरा करने की कोशिश है। 

आज के भारत के जो सबसे सम्पन्न इलाके हैं, वहां का पानी न पीने लायक और ना ही हवा जीने लायक बची है। और वहां का प्रबंधन, कुल मिला करके अमीरों की दुनिया है। सवाल हैं कि मुंह बाए खड़े हैं। सर्वोच्च न्यायालय किसका है? प्रशासन तंत्र किसका है? हमारी पुलिस व्यवस्था किसकी है? हमारे विधायक, सांसद, मंत्री किसके लिए हैं? कहने को कहा जा सकता है कि आम लोगों के लिए, लेकिन अगर ये आम लोगों के लिए होते तो आज जैसी स्थिति नहीं होती। कहने को इस देश में समाजवादी राजनीति के ध्वजवाहक हैं, लेकिन दिक्कत यह है कि जनता उनके साथ खड़ी नहीं है। यही आज के समाजवादियों का संकट है। नयी पीढी के लोगों के लिए गाँधी 1948 में मारे गए। लोहिया का 1967 में निधन हो गया। जयप्रकाश 1979 में गुजर गए। गांधी, लोहिया, जय प्रकाश और डॉ. आंबेडकर को भी जोड़ लीजिये तो वह तो 1956 में ही दिवंगत हो गए। वर्तमान में नवउदारवाद हर तरफ हावी है।

अब हम दलित और समाजवादी आंदोलन पर विचार करते हैं। आज भी दलित पीड़ित हैं। निरक्षरता उनमें सबसे ज्यादा है। दलित औरत हिन्दुस्तान की सबसे निरक्षर जमात का नाम है। लेकिन क्या वह चुप है? इसका उत्तर मिलेगा – जी , नहीं ! दलित बोल रहा है। दलित महिला बोल रही है। डॉ. आंबेडकर यह बार-बार कहते रहे और जयप्रकाश नारायण भी इससे असहमत नहीं थे कि जहां तक दलित की आवाज़ जाएगी, समाजवाद का सपना हरा रहेगा। क्योंकि बिना जाति विहीन भारत को बनाये, दलितों के बीच से हजारों सांसद पैदा कर लीजिये, लाखों करोड़पति पैदा कर लीजिये, लेकिन जब तक जाति व्यवस्था का तर्क रहेगा, आप अपनी एक जाति को लेकर आगे जा सकते हैं, लेकिन छुआछूत और जाति आधारित दमन और अपमान और वंचना – उसके लिए तो समाजवादी रास्ता ही चाहिए। आप उस रास्ते से अलग हो जाते हैं कि आपको सत्ता मिल गयी। आपकी जाति का महत्त्व बढ़ गया। आप दलित से दबंग जाति का हिस्सा बन गए। लेकिन जाति व्यवस्था नहीं गयी। देश में पंद्रह प्रतिशत लोग दलित हैं। और अगर अति-पिछड़ी जातियों को भी जोड़ लिया जाय तो उनकी तादात पैंतीस फीसदी हो जाती है। उसमें अगर आदिवासियों को जोड़ लिया जाय तो उनकी तादात 43 फीसदी। जब देश की अनुमानित आाबदी 130 करोड़ है तो 43 फीसदी का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है। करीब दस फीसदी घुमंतू और बंजारे भी हैं। किसी भी देश के लिए 53 फीसदी लोगों का विकास की मुख्यधारा से अलग-थलग रहना अनेक सवाल खड़े करता है। समाजवादी आंदोलन की यह एक बड़ी विफलता है और कायदे से यह बड़ी चुनौती भी है।

दरअसल, भारत में समाजवाद की ताकत तभी कमजोर पड़ गयी थी जब जयप्रकाश नारायण ने सियासत से एक तरह का संन्यास ले लिया था। तब इसका पूरा दरोमदार डॉ. राममनोहर लोहिया के कंधों पर था। वह समझते थे कि इस देश को यदि आगे ले जाना है तो समाजवाद ही एक मात्र विकल्प है और इसकी शुरूआत इसी से की जा सकती है कि शासन-प्रशासन में सभी तबकों की समुचित भागीदारी हो। तभी उन्होंने नारा दिया था – “संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़ा पावे सौ में साठ”। जयप्रकाश और डॉ. लाेहिया के बीच मतभेद के अनेक बिंदुओं एक बिंदू यह भी था। जयप्रकाश के समाजवाद में आरक्षण का आधार आर्थिक था जब लोहिया और आंबेडकर सामाजिक आधार को अहम मानते थे। समाजवाद के सामने एक चुनौती और रही। वह है सांस्कृतिक समाजवाद का मसला। इस ओर जितना ध्यान दिया जाना चाहिए था, नहीं दिया गया। यह भी समाजवाद की विफलताओं से एक है। उलटे हुआ यह है कि आज संस्कृति के संबंध में समाजवादियों का आचरण बहुसंख्यक हिंदू धर्म के कट्टर पुरोहितों के समतुल्य हैं। 

बहरहाल, भारत में समाजवादी आंदोलन अपने ही अंतर्द्वंद्वों का शिकार हुआ है। लेकिन इसमें बाहरी हस्तक्षेपों की भी अहम भूमिका रही है। जयप्रकाश नारायण के कारण भले ही इस देश में संपूर्ण क्रांति आंदोलन हुआ, लेकिन उसका फलाफल अपेक्षा के अनुरूप नहीं रहा। जाहिर तौर पर इसके लिए समाजवादियों के अपने कृत्य भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। लेकिन इन सबके बावजूद यह कहना अतिरेक नहीं है कि समाजवाद ही वह वाद है, जो इस देश को आज की विषमतम स्थिति से बाहर निकालकर आगे ले जा सकता है। शर्त बस इतनी है कि समाजवादी समाजवाद को समझें और उसके अनुरूप उसे व्यवहार में लाएं।

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