महेंद्र मिश्र
कुछ सालों पहले बातचीत और भाषण सुनने के बाद लगा था कि आरएलडी नेता जयंत चौधरी अपने पिता की राह पर नहीं चलेंगे और राजनीति में उससे कुछ अलग रास्ता बनाएंगे, जो बिल्कुल स्वतंत्र होने के साथ ही अपनी बनायी नींव पर खड़ा होगा। लेकिन जयंत ऐसा नहीं कर सके। और मौजूदा दौर में बीजेपी के साथ जुड़ने का उन्होंने जो फैसला लिया है वह न केवल उनकी स्वतंत्रता को मारने का काम करेगा बल्कि उनके मान-सम्मान को भी गिरवी रखने जैसा है। पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह को मिले ‘भारत रत्न’ के सम्मान पर तो मैं बाद में आऊंगा और उससे उनका कितना सम्मान बढ़ा है और कितना उनका इस्तेमाल किया गया है। इस पर बाद में बात होगी। लेकिन उससे पहले जयंत चौधरी और उनके पिता अजित सिंह की बात करते हैं। कहा जाता है कि जाट अपने सम्मान की रक्षा के लिए जान दे देता है।
उसके लिए पेट से बढ़ कर अपनी आन-बान और शान होती है। अनायास नहीं देश की सरहदों पर सिर कटाने की बारी आती है तो उसकी सबसे अगली कतार में जाट खड़ा होता है। वह अपने देश की आन-बान और शान को बचाने के लिए नहीं तो भला किसके लिए करता है? और जो शख्स देश की ख़ातिर अपना सिर कटाने के लिए तैयार है अपने खुद के सम्मान की रक्षा की बारी आएगी तो वह क्या करेगा? क्या वह समझौता कर लेगा? कतई नहीं। खुद को जाटों का नेता कहने वाले जयंत चौधरी और चौधरी अजित सिंह शायद इस बात को नहीं समझ सके। इसीलिए शायद दोनों जाटों के सच्चे नेता भी नहीं बन सके। और तोहफे में मिली चौधरी चरण सिंह की इतनी बड़ी विरासत को भी बाप और बेटे ने यूं ही गवां दिया।
जिस बीजेपी के साथ जाने के लिए जयंत चौधरी पुलकित दिख रहे हैं। और चरण सिंह को दिए गए सम्मान पर मोदी के लिए ‘दिल जीत लिया’ कह कर बयान दे रहे हैं। उस मोदी सरकार ने खुद उनके और उनके पिता के साथ क्या किया था इसको भी उन्हें याद कर लेना चाहिए। आपको याद होगा तुगलक रोड का वह बंगला जिसमें कभी चौधरी अजित सिंह रहा करते थे। जब से वह राजनीति में आए। सांसद रहे या नहीं रहे वह बंगला ही उनका घर था। दरअसल उस बंगले से उनकी यादें जुड़ी थीं। क्योंकि इसी बंगले में कभी उनके पिता चौधरी चरण सिंह रहा करते थे। उस बंगले में रहते हुए उनको अपने पिता की खुशबू महसूस होती थी। यह बंगला उन्हें अपने पिता के करीब रहने का एहसास दिलाता था। लिहाजा उससे बड़ा लगाव था। लेकिन जैसे ही चौधरी अजित सिंह एक चुनाव हारे और संयोग से ऊपरी सदन के भी सदस्य नहीं बन सके तो रातों-रात केंद्र की मोदी सरकार ने उसे खाली करने का फरमान जारी कर दिया।
और जब उन्होंने सरकार से कुछ दिनों के लिए विस्तार चाहा या फिर उसे चौधरी चरण सिंह के स्मारक के तौर पर घोषित करने की इच्छा जाहिर की तो उस प्रस्ताव को सिरे से खारिज कर दिया गया। चौधरी चरण सिंह को भारत रत्न देने वाली इस सरकार को उस समय उनकी विरासत और सम्मान का ख्याल नहीं आया। क्या उस समय चौधरी चरण सिंह बदल गए थे या फिर उनकी रूह कहीं खो गयी थी? उस समय भी वही चौधरी चरण सिंह थे जो आज हैं। और जब समय रहते अजित सिंह ने बंगला नहीं खाली किया तो सरकार ने उनके सामानों को निकाल कर उन्हें सड़कों पर फिंकवा दिया।
और फिर मजबूरन अजित सिंह को वह बंगला छोड़ना पड़ा। यह न केवल अजित सिंह का अपमान था बल्कि चौधरी चरण सिंह और उनकी विरासत का भी अपमान था। क्योंकि वह उसी बंगले में रहे थे। लेकिन मोदी सरकार ने उसका रत्ती भर भी ख्याल नहीं रखा। उस समय तो जयंत जी बालिग हो गए थे और शायद सांसद भी बन चुके थे। क्या उन्होंने अपनी नंगी आंखों से यह सब कुछ नहीं देखा था? अपने पिता के साथ यह उनका भी अपमान था। क्या जयंत चौधरी अपने इस अपमान को भूल गए?
यह तो एक घटना रही। अब दूसरी घटना की आपको याद दिलाते हैं। हाथरस में दलित बच्ची के साथ सवर्णों ने बलात्कार किया था और फिर उसकी हत्या कर दी थी। घटना के बाद पुलिस ने उसकी लाश को रातों-रात बगैर परिजनों की उपस्थिति के जला दिया। बड़ा मुद्दा बना था। और विपक्ष के नेताओं समेत सामाजिक कार्यकर्ता से लेकर पत्रकार तक में मौके का दौरा करने की होड़ लग गयी। लेकिन योगी प्रशासन वहां किसी को भी जाने नहीं दे रहा था। उसी दौरान जयंत चौधरी भी मौके पर जाना चाहते थे और परिजनों से मिलकर उन्हें सांत्वना और भरोसा दिलाना चाहते थे। चूंकि मामला पश्चिमी उत्तर प्रदेश का था लिहाजा यह उनकी नैतिक जिम्मेदारी भी बन जाती थी। लेकिन कौन कहे जयंत को मौके पर ले जाकर परिजनों से मिलवाने के योगी की पुलिस ने उनका लाठियों से स्वागत किया। जयंत चौधरी के साथ वह अपमानजनक व्यवहार किया गया जिसकी कोई दूसरी मिसाल नहीं मिलेगी।
उन्हें दस-पंद्रह पुलिसकर्मियों ने बाकायदा घेर लिया और फिर उन पर लाठियां बरसानी शुरू कर दी। वो तो कहिए कुछ समर्पित कार्यकर्ता थे जो कवच बनकर खड़े हो गए और हमले को अपने ऊपर ले लिया। वरना तो पुलिस ने उन्हें मार कर बेसुध करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। ऐसा नहीं है कि जयंत चौधरी को पुलिस वाले पहचानते नहीं थे। यह सब कुछ बिल्कुल होशो-हवास और सोचे समझे तरीके से किया गया था। याद करने पर पूरा दृश्य आज भी आंखों के सामने जिंदा हो जाता है। अगर थोड़े से भी स्वाभिमान और आत्मसम्मान वाला नेता होता तो वहीं कसम खाता और योगी-मोदी सरकार को जड़ से उखाड़ने का संकल्प ले लेता। एकबारगी लगा था कि इस अपमान के बाद जयंत उसी रास्ते पर बढ़ेंगे।
और जाटों ने भी सभा कर के इसका जबर्दस्त प्रतिकार किया था। लेकिन जयंत के मौजूदा फैसले ने बता दिया है कि उनके भीतर कोई आत्मसम्मान नाम की चीज नहीं बची है। वह एक तरह से बेपेंदी के लोटे हैं। आगे बढ़ने से पहले यहां एक चीज स्पष्ट करनी जरूरी है कि जो शख्स अपने स्वाभिमान की रक्षा नहीं कर सकता वह किसी दूसरे शख्स या फिर समाज के सम्मान की भी रक्षा नहीं कर सकता है। हां ऊपर से उस पर समय-समय पर दाग लगाने के लिए वह ज़रूर जिम्मेदार रहेगा।
अब आइये बात चौधरी चरण सिंह को मिले सम्मान की करते हैं। इस बात में कोई शक नहीं कि चौधरी साहब भारत रत्न मिलने के काबिल हैं। और उन्हें यह सम्मान पहले ही मिल जाना चाहिए था। लेकिन अगर मौजूदा सरकार ने दिया है तो यह भी देखा जाना चाहिए कि उसके पीछे उसकी मंशा क्या है? वह कितना चौधरी की विरासत का सम्मान करती है और कितनी उसकी हिफ़ाज़त। यह बात कही जाए तो और ज्यादा सच होगी कि इस फैसले के पीछे सम्मान से ज्यादा उनका इस्तेमाल प्रमुख वजह है। बीजेपी ने जाटों या फिर किसानों के साथ जो किया है चरण सिंह जिंदा रहते तो लेने की बात दूर वह इस सम्मान को लात मार देते। दिल्ली पड़ाव के दौरान 800 से ज्यादा किसानों की मौत हुई थी।
क्या चौधरी उनकी लाशों पर चढ़ कर इस सम्मान को लेना कबूल करते? कतई नहीं। जिन तकलीफों से किसानों को गुजरना पड़ा और जिन कठिनाइयों का उन्हें सामना करना पड़ा क्या चौधरी उसके बाद भी बीजेपी के करीब जाते। या मोदी सरकार के लिए किसी भी तरीके से मददगार साबित होते? बिल्कुल नहीं। चौधरी चरण सिंह का मयार इतना छोटा नहीं था। वह कभी भी विचारधारा से समझौता नहीं कर सकते थे। जाट बेल्ट में हिदू-मुस्लिम भाईचारे के बीच दरार डालकर साम्प्रदायिक वोटों की फसल काटने वाली बीजेपी के साथ एक पल के लिए भी खड़ा होना उनके लिए गुनाह होता। भाई-भाई के बीच भेद पैदा करने वाली बीजेपी कभी भी उनके लिए पनाहगाह नहीं साबित होती। अनायास नहीं उनके जिंदा रहने तक इलाके के मुस्लिम वोटों को कोई दूसरी पार्टी नहीं ले सकी।
और हां एक और सबसे महत्वपूर्ण बात। चौधरी जिंदा होते तो वह बीजेपी-संघ की तानाशाही का विरोध कर रहे होते। क्योंकि उन्होंने इमरजेंसी का विरोध किया था। और उसके विरोध में जेल की सजा भुगती थी और 1000 वाट के जलते बल्ब का सामना किया था जो जेल में उन्हें रात को सोने नहीं देता था। और अब जबकि इमरजेंसी से भी कड़ी शासन-व्यवस्था चल रही है तब उससे सम्मान लेने की जगह वह उसका विरोध कर रहे होते। पोते के तौर पर उनकी विरासत को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी आप की थी लेकिन अफसोस! निरंकुश सत्ता के सामने आपने समर्पण कर दिया।
इसलिए हर तरीके से आपने ने बीजेपी के साथ जाकर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी है। इससे कितना आपको राजनीतिक फायदा होगा और भविष्य में कितना नुकसान यह अलग ही आकलन का विषय है। लेकिन एक बात तो तय है कि आपने इस फैसले से न केवल अपना स्वतंत्र वजूद खो दिया है बल्कि भविष्य की अपनी राजनीतिक संभावनाओं को भी अंधेरे रास्ते पर धकेल दिया है।
(महेंद्र मिश्र जनचौक के संस्थापक संपादक हैं।)
जनचौक से साभार