नौकरी चाहने वालों के सपनों में जो कंपनियां बसती हैं, उनमें नौकरी करने वालों के सबसे बुरे सपने हकीकत बन गए हैं। गूगल ने एकमुश्त 1,000 कर्मचारियों को नौकरी से निकाल दिया। कहते हैं कि यह तो बड़ी छंटनी की शुरुआत भर है। टेस्ला वाले एलन मस्क करीब 6,000 कर्मचारियों को निकाल कर भारत आते हुए चीन पहुंच गए। बीते साल उन्होंने ट्वीटर (अब एक्स) के 4,000 लोग निकाले थे। मेटा वाले जुकरबर्ग ने बीते साल 11,000 लोगों को बेरोजगार किया।तकनीकी कारोबारों में रोजगारों का कत्लेआम मचा है। तकनीक की दुनिया के छोटे-बड़े सितारे कर्मचारियों को ऐसे निकाल रहे हैं, मानो प्रलय आ गई हो। इस साल ही दिग्गज तकनीकी कंपनियों में करीब 75,000 लोगों की नौकरी चली गई है। भारत में भी स्टार्ट-अप कंपनियां रोजगारों की कब्रगाह बन गई हैं।
तकनीकी कारोबारों में रोजगारों का कत्लेआम मचा है। तकनीक की दुनिया के छोटे-बड़े सितारे कर्मचारियों को ऐसे निकाल रहे हैं, मानो प्रलय आ गई हो। इस साल ही दिग्गज तकनीकी कंपनियों में करीब 75,000 लोगों की नौकरी चली गई है। भारत में भी स्टार्ट-अप कंपनियां रोजगारों की कब्रगाह बन गई हैं। बायजूस, चार्जबी, ओला, मीशो, कार 24, लीड, अनएकेडमी, ब्रेनली… रोजगारों को सूली पर चढ़ाने वालों की सूची बढ़ती जा रही है।
पूरी दुनिया के लोग मास ले-ऑफ की विपत्ति से वाकिफ हो चुके हैं। सामूहिक छंटनी को यह अभागा नाम अमेरिका में मिला था, जहां करीब 40 साल पहले तक इतने बड़े पैमाने पर एक साथ रोजगार खत्म नहीं किए जाते थे। तो रोजगारों का यह संहार आया कैसे? आइए, टाइम मशीन का कंडक्टर बुला रहा है, इंजन चालू है, सीट पकड़िए, उड़ चलते हैं अतीत में।
हम 1940 के दशक में पहुंच गए हैं। 1930 की महामंदी के बाद बेरोजगारी अमेरिका का सबसे बड़ा राजनीतिक खौफ बन चुकी थी। दूसरे विश्वयुद्ध के साथ अमेरिका में युद्ध संबंधी उत्पादन 40 फीसदी बढ़ गया। नई तकनीकें, नए रोजगार आए हैं, तो मंदी का दारिद्र्य दूर हो रहा है। इस कामयाबी से अमेरिकी नीति-निर्माताओं को महसूस हुआ कि सरकारी दखल से अर्थव्यवस्था की कायापलट हो सकती है। अमेरिकी अखबारों की सुर्खियां आपकी सीट के सामने की स्क्रीन पर तैर रही हैं। यह खबर फुल इंप्लायमेंट विधेयक के मसौदे की है और वक्त है 1945 का। पूर्ण रोजगार की सरकारी गारंटी देने के लिए कानून बनाने की तैयारी दुनिया ने इससे पहले कभी नहीं सुनी थी। इस विधेयक की प्रस्तावना में लिखा है कि अमेरिका के वे सभी लोग, जो स्कूलिंग पूरी कर चुके हैं और कोई घरेलू काम नहीं कर रहे हैं, अमेरिका की फेडरल सरकार इस कानून के तहत उन्हें अच्छे रोजगार के अवसर उपलब्ध कराएगी। याद दिला दें कि स्टीफन केम्प बेली ने इस कानून पर एक किताब लिखी थी-कांग्रेस मेक्स ए लॉः द स्टोरी बिहाइंड द इंप्लायमेंट ऐक्ट ऑफ 1946। यह किताब राजनीतिक क्लासिक की गिनती में आती है।
वैसे मसौदे से कानून तक आते-आते कई बदलाव हुए। रोजगार का वादा उतना दो टूक नहीं रहा, जितना मसौदे में था। कानून यह कहता था कि राज्यों और उद्योगों की मदद से अधिकतम रोजगार दिए जाएंगे और जनता की क्रयशक्ति (पर्चेजिंग पावर) बढ़ाई जाएगी। 20वीं सदी के आठ दशकों तक दुनिया के बाजारों को सामूहिक छंटनी यानी मास ले-ऑफ नाम की बला के बारे में कोई जानकारी नहीं थी।
अब टाइम मशीन 1980 में आ गई है। व्हाइट हाउस में रोनाल्ड रीगन विराज रहे हैं। उनकी नई आर्थिक नीति और निजीकरण की मदद से अमेरिका का कॉरपोरेट क्षेत्र तेजी से उभर रहा है। एयरलाइन बाजार में एयर ट्रैफिक कंट्रोलर्स महत्वपूर्ण बन गए हैं। यही तकनीकी लोग आकाश से जमीन तक विमानों की आवाजाही संभालते हैं। फरवरी, 1981 में अमेरिका के एविएशन रेगुलेटर फेडरल एविएशन और एयर ट्रैफिक कंट्रोलर्स के बीच नए वेतनमान और सुविधाओं को लेकर बातचीत शुरू हुई। कर्मचारियों और फेडरल सरकार के बीच विवाद की खबरें बढ़ रही हैं। यह जुलाई-अगस्त,1981 है। करीब छह महीने तक सौदेबाजी के बाद सरकार और एयर ट्रैफिक कंट्रोलर्स के बीच बातचीत टूट गई है। करीब 13,000 एयर ट्रैफिक कंट्रोलर्स हड़ताल पर चले गए।
रीगन ने दो दिन में हड़ताल खत्म करने की चेतावनी दी और अब वह होने वाला है, जो अमेरिका में कभी नहीं हुआ। रीगन प्रशासन ने 13,000 कर्मचारियों को नौकरियों से निकाल दिया। फेडरल एविएशन अथॉरिटी ने नई भर्ती शुरू कर दी। इस सनसनीखेज फैसले से अमेरिका में श्रम कानूनों का चेहरा-मोहरा बदल गया। अमेरिका के उद्योगों ने इस बदलाव को लपक लिया।
अब हमारी टाइम मशीन जनरल इलेक्ट्रिक के दफ्तर के करीब मंडरा रही है, जहां कंपनी के चेयरमैन जैक वेल्श नजर आ रहे हैं। अमेरिका के तेज-तर्रार सीईओ वेल्श की किताबें आगे प्रबंधन स्कूलों में पढ़ाई जाएंगी। वेल्श ने 1980 में जनरल इलेक्ट्रिक की कमान संभाली थी। उस वक्त जीई केवल बल्ब और कुछ घरेलू उपकरण बनाती थी। उन्होंने दस साल में जीई को अमेरिका की सबसे मूल्यवान कंपनियों में बदल दिया। वेल्श के नेतृत्व वाले 20 वर्षों में जीई 12 अरब डॉलर से 410 अरब डॉलर की कंपनी बन गई।
वेल्श ने ही मास ले-ऑफ यानी सामूहिक छंटनी की कुख्यात परंपरा शुरू की थी। 1980 से 1985 के बीच उन्होंने जीई में हर चार में से एक कर्मचारी को निकाल दिया और करीब 1.18 लाख कर्मचारियों की नौकरी ली। न्यूट्रॉन वेल्श!! कारोबार की दुनिया वेल्श को इसी नाम से बुला रही है। वह रोजगारों के बाजार में उस न्यूट्रॉन बम की तरह बन गए हैं, जो इमारतों या संपत्ति का ध्वंस नहीं करता, मगर लोगों की जान ले लेता है।
हम देख सकते हैं कि अमेरिका में मास ले-ऑफ तेजी से बढ़ने लगे हैं। यह क्या! 1990 में एटीएंडटी के सीईओ रॉबर्ट एलन ने 50,000 कर्मचारी निकाल दिए हैं। इस ‘महान’ कारोबारी सूझ के बाद उनके वेतन में जोरदार बढ़ोतरी हुई है। अखबारों के संपादकीय उन्हें लानतें भेज रहे हैं।
अब जरा सतर्क होकर बैठिए। हम मिलने जा रहे हैं रोजगारों के सबसे बड़े संहारक यानी अलबर्ट जे डनलप से। नौकरियों के विराट ध्वंस की कोई कहानी इनके बिना पूरी नहीं हो सकती।
यह 1990 के दशक के शुरुआती वर्ष हैं। कुख्यात और निर्मम कॉरपोरेट मैनेजर अलबर्ट जे डनलप ने मुनाफे के लिए कर्मचारियों को निकालना कॉरपोरेट प्रबंधन का हिस्सा बना दिया है। इस विध्वंसक रणनीति पर डनलप की किताब मीन बिजनेस खासी चर्चित रही है। यह बात दीगर कि टाइम पत्रिका ने 2010 में डनलप को अमेरिका के सबसे बुरे बॉस में शामिल किया था। न्यूयॉर्क टाइम्स के पत्रकार और लेखक लुइस अचिटेल की 2006 में आई चर्चित पुस्तक द डिस्पोजल अमेरिकनः ले-ऑफ ऐंड देयर कन्सक्वेंसेज 19वीं सदी के अंत से लेकर 2000 के दशक तक रोजगारों की छंटनी के संदर्भों से भरपूर है। 1990 और 2000 का दशक आते-आते कर्मचारियों की सामूहिक छंटनी सामान्य हो चुकी थी। कॉरपोरेट प्रबंधन के इस तरीके को प्रतिष्ठा मिल चुकी थी। लोगों ने नौकरियों की छंटनी को गंभीरता से लेना बंद कर दिया। निकाले गए कर्मचारियों को यह महसूस होने लगा कि यही उनकी नियति है। पूरी दुनिया में बेरोजगारी की सुर्खियों के बीच टाइम मशीन का यह सफर अब खत्म हो रहा है। क्या आप भी हैरत में हंै कि अरबों डॉलर के कारोबार, शानदार भविष्य और ग्रोथ की गारंटी देने वाली महाकाय कंपनियां चुनौतियों का छोटा-सा दौर भी झेल नहीं पातीं! वेल्श और डनलप के दौर में सामूहिक छंटनी करने वालों को अमेरिकी अखबारों में ‘कॉरपोरेट किलर्स’ जैसे विशेषण दिए जाते थे। आज जुकरबर्ग, एलन मस्क या बायजू रविंद्रन को इन्हीं नामों से बुलाया जा सकता है?