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प्राकृतिक आपदा नहीं, अनियंत्रित विकास का विनाश है जोशीमठ संकट

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 सुधा सिंह 

      भारत चीन सीमा पर उत्तराखंड में बसे देश के अंतिम शहर जोशीमठ (चमोली) का धार्मिक, सामरिक, पर्यटन और पर्यावरणीय दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थान है जिसके अस्तित्व पर गंभीर खतरा उत्पन्न हो गया है। 

       यह शहर आदि जगद्गुरु शंकराचार्य के गुरु की पवित्र साधना-स्थली के साथ ही उनके द्वारा स्थापित चार पीठों में से एक ज्योतिष्पीठ और बदरीनाथ की शीतकालीन पीठ नृसिंह मंदिर स्थित हैं। यहां कत्यूरी राजवंश की राजधानी भी रही है।

       यह उत्तराखंड की शीतकालीन खेलों की राजधानी औली का प्रवेश द्वार है जो यहां से बमुश्किल 16 किलोमीटर दूर है।

विश्वप्रसिद्ध पवित्र तीर्थस्थल बदरीनाथ और सिखों का हेमकुंड साहिब गुरुद्वारा भी यहां से ज्यादा दूर नहीं हैं। जहां हर साल लाखों तीर्थयात्री आते हैं। 

     इस ऐतिहासिक और पौराणिक नगर के नीचे बहती अलकनंदा नदी की ओर जमीन लगातार धंसने के कारण सैकड़ों मकानों में दरारें आ गयी हैं। जिनकी तीव्रता बढ़ गई है। लोगों के घर, होटल, रिसॉर्ट, सड़क, खेत हर जगह दरारें हैं। 

     लगभग 30,000 की आबादी वाला यह शहर धीरे-धीरे उजड़ता जा रहा है क्योंकि स्थानीय निवासी और किरायेदार घरों के गिरने के डर से सुरक्षित क्षेत्रों की ओर पलायन कर रहे हैं। कुछ मूल निवासी ढहने की कगार पर पहुंचे अपने जर्जर मकानों में कड़ाके की सर्दी में भी डरते हुए रखवाली को मजबूर हैं। 

     चमोली जिला प्रशासन के अनुसार, कुल 561 घरों और दो होटलों में हाल ही में दरारें आ गई हैं और कुल 29 परिवार अपना घर छोड़कर अस्थायी आवास में रह रहे हैं।

इस संकट की जद में सेना की ब्रिगेड, गढ़वाल स्काउट्स और भारत तिब्बत सीमा पुलिस की बटालियन भी है। 

     पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील जोशीमठ और तपोवन के बीच का इलाका पुराने भूस्खलन सामग्री पर स्थित है‌। प्रतिकूल रूप से बदलती जलवायु के साथ-साथ क्षेत्र में अनियंत्रित भारी निर्माण से अपनी ही इमारतों के असह्य बोझ तले दबा 60 के दशक के अंत में जोशीमठ कई स्थानों पर धंसना शुरू हुआ था और अब यहां के घरों से निकलने वाले पानी के दलदल में तेजी से धंसता जा रहा है।

       यह संकट 1970 के दशक से अनुभव किया जा रहा है मगर न तो राज्य विभाजन से पहले उत्तर प्रदेश और न ही उत्तराखंड की सरकारों ने इसे बचाने के लिए अब तक कोई ठोस कार्ययोजना बनाई।

इस क्षेत्र का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिकों और स्थानीय ग्रामीणों का कहना है कि यह धीरे-धीरे धंस रहा है। यहां के रविग्राम, गांधीनगर और सुनील में सबसे ज्यादा धंसाव देखा गया है जिसकी वजह से हजारों लोग विस्थापित हो सकते हैं।

      यहां का लगभग 150 घरों वाला रविग्राम वार्ड सुनील गाँव से बहुत ज्यादा दूर नहीं है। डर के साए में जी रहे यहां के निवासियों का कहना है कि यहां के मकानों में दरारें 2020 में दिखाई देने लगीं थीं, लेकिन 7 फरवरी, 2021 को रैणी की बाढ़ के बाद दरारों की लंबाई, चौड़ाई और गहराई बढ़ गई है जिससे ये धीरे-धीरे धंस रहे हैं।

      रुड़की स्थित सेंट्रल बिल्डिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट के प्रमुख वैज्ञानिक देबी प्रसाद कानूनगो ने पत्रकारों से कहा, “जोशीमठ अत्यधिक रूपांतरित चट्टानों पर बसा हुआ है जो भारी और लगातार बारिश की वजह से बदल रहा है।” 

जोशीमठ और आस-पास के गाँवों में बहने वाले कई बारहमासी जलस्रोत समय के साथ ढलानों पर मिट्टी की ऊपरी परत (रेत, गाद, मिट्टी) को हटा देते हैं और बड़ा गैप बना देते हैं जो धँसाव की वजहों में से एक है। 

      देहरादून के वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के लैंडस्लाइड विशेषज्ञ विक्रम गुप्ता के अनुसार रविग्राम, गांधीनगर और सुनील के वार्डों में सबसे ज्यादा धँसान देखी गई है।

      इसके अलावा औली-जोशीमठ सड़क के किनारे व्यापक दरारें और धँसान दिखाई दे रहा है, जैसा कि इस साल अगस्त में जोशीमठ क्षेत्र का सर्वेक्षण, अध्ययन और अनुसंधान करने वाले भूवैज्ञानिकों की एक विशेषज्ञ टीम ने अपनी रिपोर्ट में उल्लेख किया है। 

इस बहु-संस्थागत टीम का गठन उत्तराखंड राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण द्वारा किया गया था। पीयूष रौतेला (कार्यकारी निदेशक, उत्तराखंड राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण) और एम.पी.एस. बिष्ट (निदेशक, उत्तराखंड अंतरिक्ष अनुप्रयोग केंद्र) ने 2009 में जलविद्युत परियोजना के लिए राष्ट्रीय ताप विद्युत निगम (एनटीपीसी) द्वारा खोदी गई एक भूमिगत सुरंग के विनाशकारी परिणामों की चेतावनी दी थी।

     इसी सुरंग खोदने की प्रक्रिया में मशीनरी ने भूमिगत जल-प्रवाहिकाओं को पंचर कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप प्रतिदिन लगभग 60-70 मिलियन लीटर पानी बहने लगा। करेंट साइंस में प्रकाशित अपनी रिपोर्ट में उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा है कि यह बड़े पैमाने पर निर्वहन, जिसका प्रभाव उस समय के आसपास नगण्य रूप से दिखाई दे रहा था, भविष्य में संकट का कारण बनेगा। इस साल अगस्त में इलाके का सर्वेक्षण, अध्ययन और अनुसंधान करने वाली टीम में रौतेला भी शामिल थे।

       यदि परिस्थितियों का सही आकलन किया जाए तो यही निष्कर्ष निकलता है कि यह आपदा प्राकृतिक नहीं है. यह अविवेकपूर्ण तथा अंधाधुंध किये जाने वाले कथित विकास के कार्यों का विनाशक नतीजा है।

      फिलहाल सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता यहां रहने वाले हजारों लोगों को निकाल कर सुरक्षित स्थानों पर ले जाने की तो है ही, साथ ही साथ तमाम विरोध प्रदर्शन और जनदबावों की उपेक्षा कर भी जोशीमठ के नीचे बनाई जा रही हेलंग-मारवाड़ी सड़क के निर्माण का इरादा छोड़ दिया जाए जिसे इस हड़कंप के बाद फिलहाल रोक दिया गया है। शहर और इसके आसपास भवन निर्माण कार्य भी रोका जाए।

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