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नाम बदलने से नहीं नीयत बदलने से ही मिलेगा न्याय

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,मुनेश त्यागी

     आजकल भारत की सरकार बड़े जोर शोर से भारत के कानूनों को बदलने की बात कर रही है। उसके लिए उसने संसद में तीन विधेयक पेश किए हैं। सरसरी तौर पर देखने पर लगता है कि ये कानून जनता के न्यायिक अधिकारों पर बहुत बड़ा हमला हैं। इन कानून के द्वारा सरकार जनता पर पूर्ण नियंत्रण करना चाहती है। वह अपने विरोधियों पर, सच की पड़ताल करने वालों पर, सच की रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों पर और सरकार की हां में हां न मिलाने वाले दलों, व्यक्तियों, कवियों, लेखकों और सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों पर अपना मनमाफिक शिकंजा कसना चाहती है, उन सबकी विरोध और आलोचना की आवाज को सदा सदा के लिए दबा देना चाहती है।

      सरकार इन कानूनों के द्वारा समयबद्ध न्याय देने की बात कर रही है और मामलों की छानबीन और केस के ट्रायल में आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल करने पर जोर दे रही है। मगर वे सब तौर तरीके कहां है जिनकी वजह से जनता को न्याय मिलेगा और उन सब कारणों पर भी चर्चा नहीं हो रही है जिनकी वजह से जनता को सस्ता और सुलभ न्याय नहीं मिल रहा है और उसके साथ लगातार अन्याय होता चला रहा जा रहा है और उसके मुकदमों का समय से निपटारा नहीं हो रहा है और अदालत में लगातार मुकदमों के पहाड़ खड़े होते जा रहे हैं।

      सरकार ने जनता को दिखाने और भरमाने के लिए जो काम किया है, वह इन बिलों का नाम बदलना है, उनका अंग्रेज़ी नाम बदलकर हिंदी में कर देना है जैसे आईपीसी को बदलकर भारतीय न्याय संहिता, सीआरपीसी को बदलकर भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता और इंडियन एविडेंस एक्ट को बदलकर भारतीय साक्ष्य बिल कर दिया गया है। यहां पर यह बात भी नोट करने वाली है कि ये तथाकथित नए बनने वाले कानून 90% पुराने कानूनों की ही नकल भर है। इनमें न्याय करने के लिए आधुनिकतम सिद्धांतों को शामिल नहीं किया गया है

      इन बिलों में न्याय की बात कम हो रही है। इनका बखान और प्रोपेगंडा ज्यादा किया जा रहा है। जनता को सस्ता और सुलभ बनाया कैसे मिलेगा? इस पर तो कोई चर्चा ही नहीं हो रही है। ये सारे कानून न्याय न करके, पुलिस को और सरकार को ज्यादा अधिकार देने की बात कर रहे हैं। इन कानूनों के बनने के बाद पुलिस को असीमित पावर दे दी जाएगी और पुलिस ही असली मां बाप बन जाएगी। ये कानून जनता के अधिकारों पर और ज्यादा कुठाराघात करने जा रहे हैं, और उसके विरोध और सच कहने, लिखने और बोलने की आजादी को हमेशा के लिए खत्म कर देना चाहती है। न्याय के रास्ते में जो खतरे पैदा हो गये हैं, उन खतरों पर कोई बात या बहस नहीं की जा रही है।

      इन विधेयकों के कानून बन जाने पर अब पुलिस हिरासत की मियाद 15 दिन के स्थान पर 60 से 90 दिन कर दी गई है। ऐसा करने से पुलिस ज्यादतियों की भरमार हो जाएगी। अब पुलिस खुलकर मनमानी करेगी, लोगों को जान पूछ कर झूठ केसों  में फंसाएगी। अब राष्ट्र की संप्रभुता, एकता, अखंडता और सुरक्षा के नाम पर लोगों के अधिकारों के साथ खुल्लम-खुल्ला खिलवाड़ किया जाएगा।

      देशद्रोह के अपराध को और ज्यादा व्यापक कर दिया गया है। यही काम संगठित अपराध और आतंकवादी गतिविधि के नाम पर किया जाएगा। अब पुलिस अधिकारियों को बेलगाम पावर दी जा रही है। ये विधेयक आपराधिक न्याय व्यवस्था में बुनियादी बदलाव की बात कर रहे हैं। पर आपराधिक न्याय प्रणाली में किन कारणों की वजह से जनता के साथ अन्याय हो रहा है, किन कारणों की वजह से उन्हें बेगुनाह होने पर भी, गुनहगार बनाकर जेल में बंद किया जा रहा है, अपराधी बनाया जा रहा है, उन्हें समय से जमानत नहीं दी जा रही है, उनके केस में समय से फैसला नहीं किया जा रहा है, इन समस्त कारणों पर कोई चर्चा इन विधेयकों में नहीं की गई है । आने वाले भविष्य में ये सब कारण, जनता के सामने भयानक समस्याएं और अन्याय के पहाड़ खड़े  करने जा रहे हैं।

     यहां पर यह भी अचंभित करने वाली बात है कि सरकार इन विधेयकों पर विपक्षी दलों के साथ या संबंधित कानून विशेषज्ञों के साथ पर्याप्त रूप से विचार विमर्श करने को तैयार नहीं है, उनकी बात सुनने को तैयार नहीं है। विपक्षी दल इन विधेयकों की कमियों को लेकर जो चर्चा करना चाहते हैं, सरकार उन्हें समय देने को भी तैयार नहीं है। इन बिलों में जो खामियां दिखाई दे रही हैं, सरकार उन पर भी विशेषज्ञों और विपक्षी दलों की बात सुनने को तैयार नहीं है।

      इन बिलों में न्याय को लेकर जो सबसे बड़ी खामियां हैं, उनकी इन बिलों में कोई चर्चा नहीं की गई है। उन कमियों को दूर करने के लिए, इन विधेयकों में कोई चर्चा नहीं की गई है। वर्तमान न्यायपालिका की और सस्ते एवं सुलभ न्याय देने के रास्ते में जो सबसे बड़ी बाधाएं और रुकावटें हैं, वे हैं वर्तमान न्यायपालिका पर काम का बढ़ता हुआ अत्यधिक बोझ और न्यायाधीशों के हजारों लाखों की संख्या में खाली पड़े हुए पद, जिन्हें भरने का कोई भी जिक्र इन विधेयकों में नहीं किया गया है।

      यहां पर यह ध्यान दिलाने की जरूरत है कि हमारे देश में वर्तमान समय में 5 करोड़ से ज्यादा मुकदमें अदालतों में पेंडिंग है जिनके समय से निस्तारण का सरकार के पास कोई खाका नहीं है और सरकार इस बारे में कोई ध्यान भी नहीं दे रही है। किसी भी सरकार के लिए 10 साल का समय बहुत होता है जिसमें वह जनता के साथ न्याय कर सकती है, कानून की कमियों को दूर कर सकती है, मगर इस सरकार की न्याय देने की कोई मंशा नहीं है, न्याय उसके एजेंडे में ही शामिल नहीं है, इसलिए उसने जनता को सस्ता और सुलभ न्याय देने की दिशा में कोई काम नहीं किया है और जनता को न्याय देने के मामले में आने वाली बाधाओं और रुकावटों को दूर करने की कोई कोशिश नहीं की है।

       अब यहां पर सवाल उठता है कि ऐसे में क्या होना चाहिए? जनता को सस्ता और सुलभ न्याय देने के लिए कुछ अति आवश्यक काम करने जरूरी है जैसे,1. जजों के हजारों खाली पड़े हुए पदों पर शीघ्र भर्ती करना, 2. न्यायालय में खाली पड़े हुए स्टेनो, पेशकार और सहायक कर्मचारियों के लाखों पदों की तुरंत भर्ती करना, 3. मुकदमों के अनुपात में जजों की नियुक्तियां की जाए, 4. मुकदमों के अनुपात में नए न्यायालयों को बनाया जाए, 5. मुकदमों के न्यायपूर्ण निपटारे तक, वैश्विक अनुपात के आधार पर, नए न्यायाधीशों, स्टेनों, पेशकारों एवं सहायक कर्मचारियों की नियुक्तियां की जाएं, 6. अपराधों को जन्म देने वाली तमाम परिस्थितियों का खात्मा किया जाए, 7. इस सबके खर्च के लिए न्यायपालिका के बजट में पर्याप्त वृद्धि की जाए।

      मगर अफसोस की बात है कि इन बिलों में सरकार वादकारियों को सस्ता और सुलभ न्याय देने वाली परिस्थितियों की बात का कोई जिक्र भी नहीं कर रही है। ऐसा करने का कोई उपाय भी नहीं सुझा रही है। न्याय के रास्ते में आने वाली बाधाओं और अड़चनों पर सरकार कोई चर्चा ही नहीं कर रही है। इन समस्याओं और बाधाओं का समाधान किए बिना, इन विधायकों के कोई मायने नहीं हैं। सरकार के दूसरे क्रियाकलापों को देखते हुए ये नये बनने वाले कानून भी भविष्य में जाकर केवल जुमलेबाजी में बदल कर रह जाएंगे।

      हकीकत यह है कि ये विधेयक जनता को वांछित न्याय नहीं प्रदान कर सकते। इनका शोर मचाकर जनता को भरमाया और गुमराह तो किया जा सकता है, मगर उसे वांछित, सस्ता एवं सुलभ न्याय नहीं दिया जा सकता। आज सरकार को कानूनों का नाम बदलने की नहीं, बल्कि अपनी नीयत बदलने की जरूरत है, केवल तभी जनता को सस्ता और सुलभ न्याय मिल सकता है और सस्ता और सुलभ न्याय देने के संवैधानिक आदर्शों और सिद्धांतों को कामयाब बनाया जा सकता है।

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