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भारत के पहले क्रांतिकारी कवि थे कबीर

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   ,,,,,, मुनेश त्यागी

 यह संत कबीर दास की के जन्म दिवस जेष्ठ पूर्णिमा का अवसर है। कबीर दास जेठ पूर्णिमा को 1398 में वाराणसी के पास लहरतारा में पैदा हुए थे। उनके माता-पिता जुलाहा समाज से संबंधित थे। उनके पिता नीरू और माता नीमा थीं। कबीर दास भक्ति काल की निर्गुण धारा के प्रतिनिधि कवि हैं।
 वे अपनी बात को साफ एवं दो टूक शब्दों में प्रभावी ढंग से रखते थे। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उन्हें "वाणी का डिक्टेटर" कहा है। "बीजक" उनकी प्रमुख रचना है जिसमें साखी, सबद और रमैनी संकलित हैं। कुछ लोग उन्हें अनपढ़ कहते हैं, यह बात बिल्कुल गलत है। वे एक पढ़े लिखे, शिक्षित और ज्ञानी थे। उनके गुरु रामानंद थे। उनसे उन्होंने सब कुछ सीखा। सत्संग, देशाटन, सत्य, चिंतन और मनन से उन्होंने बहुत कुछ सीखा था।
 कबीर दास मेहनतकश इंसान और उच्च कोटि के कवि थे और मेहनत करके अपना जीवन यापन करते थे। वे हरामखोरी का विरोध करते थे। कबीर शब्द का अर्थ है "महान"। सच में कबीरदास महान ही थे। वे अपने समय के और भारत के सबसे पहले क्रांतिकारी कवि थे। 
वे एक बड़े समाज सुधारक थे। विधवा विवाह के समर्थक थे। उन्होंने विधवा से विवाह किया और इस प्रकार भारतीय समाज में हजारों साल से चली आ रही औरत विरोधी मान्यताओं और सोच व मानसिकता का विरोध मुखर होकर विरोध किया और औरत उद्धार को स्वयं करके दिखाया, जब उन्होंने एक विधवा औरत ,,,"लोई"  से विवाह किया। उन्होंने भारतीय समाज में विधवा औरतों की दुर्दशा अपने कानों सुनी थी और आंखों से देखी थी इसलिए सुधार के पहले व्यक्ति थे।
 कबीर दास कर्मकांड, आडंबरविरोधी और पाखंड विरोधी थे, जातिभेद, वर्ण भेद और सांप्रदायिक भेदभाव के स्थान पर, प्रेम, सद्भावना और समानता का समर्थन करते थे। कबीरदास भारतीय समाज में छाई वर्ण व्यवस्था के घोर विरोधी थे। वे ब्राह्मणवादी पाखंडों के नितांत विरोधी थे, जाति प्रथा का खुलकर विरोध करते थे। कबीरदास सभी प्रकार की पूजा पद्धति के विरोधी थे। वे सांप्रदायिक, अंधविश्वासी, पाखंडी, डपोरशंखी और धर्मांध हिंदूओं और मुसलमानों के, मंदिर मस्जिद के विरोध में थे। देखिए हिंदुओं को कैसे लताडते हैं,,,

पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पूजू पहाड़
या ते तो चाकी भली पीस खाए संसार।

 वहीं दूसरी ओर धर्मांध मुसलमानों को लताडने में भी कोई कोर कसर नहीं छोड़ते मुसलमानों को लताडते हुए वे कहते हैं,,,,

कांकर पाथर जोडि के मस्जिद लयी चुनाय
ता चढ़ी मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय?

 भारतीय समाज के इतिहास में इससे पहले इस प्रकार की बातें और विचार किसी भी कवि ने नहीं व्यक्त किए थे। जैसे वे भगवान के तो पीछे ही पड़े हुए थे। भगवान और गुरु की बात की बराबरी में वे गुरु को भगवान से ज्यादा ऊंचा स्थान देते हैं। वे कहते हैं,,,,

गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागू पाय
बलिहारी गुरु आपने जिन गोविंद दियो बताए।

और कमाल यह है कि कबीर दास की यह मान्यता आज भी पूरे समाज में मानी और सराही जाती है। हमारे समाज में आज भी, सच्चे गुरु को सर्वोच्च स्थान और मान सम्मान दिया जाता है। वैसे आज के बहुत से गुरूओं (अध्यापकों) को कबीरदास से सीखने की जरूरत है क्योंकि आज के समाज के गुरुओं (अध्यापकों) की कारस्तानियों को देखकर वे उनके खिलाफ खुलेआम और बेबाक होकर लिखते और उन्हें बुरी तरह से लताड़ने से नहीं चूकते।
कबीरदास अपने समय के समाज में समान व्यवहार और समानता की बात करते थे, ऊंच-नीच और छोटे बड़े की सोच और मानसिकता में यकीन नहीं रखते थे। वे इनके एकदम विरोधी थे। वे एक समरस समाज की कल्पना करते थे। वे महात्मा बुद्ध की तरह समाज में सब लोगों का भला चाहते थे। देखिए वे कहते हैं,,,,
कबीरा खड़ा बाजार में मांगे सबकी खैर
ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर।
देखिए फिर सबकी खैरियत के लिए समाज के अत्याचारी और शासकों को भी माफ कर देते हैं और वे सब की खैरियत और खुशी की बात करते हैं। यहां कबीर दास सबसे बड़े विचारक के रूप में खड़े पाए जाते हैं। कबीर दास जी एक व्यक्ति नहीं, बल्कि एक विचार और एक विचारधारा थे। उनकी विचारधारा मानव कल्याण की बात करती थी।
कबीरदास हिंदू-मुस्लिम एकता के बहुत बड़े हामी थे। यहीं पर वे कहते हैं ,,,,
देख कबीरा दंग रह गया मिला न कोई मीत,
मंदिर मस्जिद के चक्कर में खत्म हो गई प्रीत।

 कबीर दास ने अपने जीवन में, अपने दोहों में, अपनी रचनाओं में, बहुत बड़ा होने पर चोट की है, निंदक पास रखने की बात की है, सबकी खैर की बात की है, मधुर वाणी बोलने की बात की है, ज्ञान की बात की है, प्रेम की बात की है, इन पर दोहे लिखे हैं, रचनाएं की हैं। इन्हीं से संबंधित कुछ दोहों को यहां पर आपकी नजर पेश किया जा रहा है,,,,,

बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर
पंछी को छाया नहीं फल लागे अति दूर।

निंदक नियरे राखिए आंगन कुटी बनाएं
बिन साबुन पानी बिना निर्मल करे सुभाय।

कबीरा खड़ा बाजार में मांगे सबकी खैर
ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर।

ऐसी बानी बोलिए मन का आपा खोय
औरन को शीतल करे आपहु शीतल होय।

माटी कहे कुम्हार से तु क्या रौंदे मोय
एक दिन ऐसा आएगा मैं रौदूंगी तोय।

काल करे सो आज कर आज करे सो अब
पल में प्रलय होएगी बहुरि करोगे कब।

जाति न पूछो साधु की पूछ लीजिए ज्ञान
मोल करो तलवार का पड़ी रहने दो म्यान।

पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ पंडित भया न कोय
ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।

साईं इतना दीजिए जामे कुटुंब समाय
मैं भी भूखा ना रहूं साधु न भूखा जाए।

 कबीरदास अपनी सोच और विचारों से सामंती सोच और प्रथाओं के खिलाफ थे। वे धर्मांधता, पाखंडों और पुरातन पंथी सोच का विरोध करते थे, समाज में समानता और समरसता की स्थापना करना चाहते थे, इसलिए आज की स्वार्थी और समस्त जन विरोधी ताकतें कबीरदास को पसंद नहीं करतीं। उनको पाठ्यक्रमों से निकाला जा रहा है, जैसे उनको भुला देना ही चाहतीं हैं। इसी बारे में हमारे दोस्त प्रगतिशील कवि रामगोपाल भारतीय कहते हैं,,, 

ये क्या हुआ दोस्तों हमारे जमीर को,
भुला दिया है हमने गांधी बुध कबीर को।
हम यहां पर यही कहेंगे कि कबीर दास एक विचार थे, एक सोच थे। उन्होंने लोगों को वाणी दी, विचार दिए। उन्हें कभी नहीं भुलाया जा सकता, वे कभी नहीं मरेंगे, उन्हें कोई नहीं मार सकता, वे सदा अमर रहेंगे। उनकी महानता और विरासत को भुलाया नहीं जा सकता आज आज इस बात की महती आवश्यकता है कि हम उनके विचारों को, उनकी विरासत को आगे बढ़ाएं और समाज में हिंदू मुसलमान के नाम पर फैली नफरत का माकूल जवाब दें। इसमें कबीरदास हमारी सबसे बड़े काम के हैं।

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