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कलियुग और परमानंद 

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            दिव्या गुप्ता, दिल्ली 

कलियुग का अर्थ होता है——जहां व्यर्थ का मूल्य है और सार्थक का कोई मूल्य नहीं; जहां संत का कोई मूल्य नहीं है, राजनेता का मूल्य है; जहां ध्यान का कोई मूल्य नहीं है, धन का मूल्य है; जहां प्रेम का कोई मूल्य नहीं है, चालबाजी, गणित, तर्क, चतुरता, इस सबका मूल्य है। 

    जहां प्रेमी लुट जाता है, लूट लिया जाता है, और जहां चालबाज सफल हो जाते हैं। जहां ईमानदारी मृत्यु बन जाती है और जहां बेईमानी जीवन का सार है! 

    जहां जो जितना सफल होता है, वह उसी मात्रा में सफल हो पाता है जिस मात्रा में चालबाज हो, चतुर हो, कुशल हो, जिस मात्रा में षडयंत्र की क्षमता हो। 

       कलियुग का अर्थ होता है——जहां सारे लोग व्यर्थ के लिए दौड़े जा रहे हैं, जहां कूड़ा—करकट मूल्यवान हो गया है! जहां परमात्मा की किसी को याद ही नहीं! जहां इस जिंदगी में और सब कर लेना है, सिर्फ परमात्मा को छोड़ देना है!

      ऐसे कलियुग में भी जो परम आनंद से जुड़ गया, वह नहीं डूबा। यह सारा संसार डुबाने को तत्पर रहा, लेकिन जो तेरे नाम से जुड़ गया, वह तिर गया! पाषाण भी नावें बन जाते हैं, उसके नाम का चमत्कार!

      जरा परम आनंद की प्यास से भरो, चकित होने लगोगे! जैसे ही उसकी याद  भीतर उतरनी शुरू होती है, वैसे ही   बाहर के जाल से टूटने लगते हो, बाहर के जाल की मूढ़ता दिखाई पड़ने लगती है।

     धीरे—धीरे बाजार में खड़े रह जाते हो, लेकिन अकेले। संबंध परमात्मा से जुड़ जाता है, भीड़ से टूट जाता है। यही उबरना है। जब तक भीड़ के हिस्से हो, तब तक डूबोगे, तब तक संसार ने जन्मों डुबाया है।

    संसार को छोड़ने का एक ही अर्थ होता है——भीड़ से मुक्त हो जाना। भीड़ ने  धारणाएं दी हैं, विचार दिए हैं; भीड़ ने वासनाएं दी हैं, एषणाएं दी हैं, महत्वाकांक्षाएं दी हैं। भीड़ से मुक्त हो जाने का अर्थ है——इन सबकी व्यर्थता को देख लेना।

    लेकिन यह तो तभी दिखाई पड़ेगा, जब परमानंद की भूख में थोड़ा रस जगे, परमात्मा में थोड़ी झलक मिले, परमात्मा में थोड़ी गति हो।

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