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नाटक से दूर रहा कर्नाटक

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राकेश श्रीवास्तव 

कर्नाटक के परिणाम अप्रत्याशित भले ही लगें पर निष्पक्ष विश्लेषण करने वालों को इन की आशा थी।यदि कुछ आश्चर्यजनक है तो वह है सीटों की संख्या। डी के शिवकुमार जरूर 140 सीट की बात करते रहे और वह लगभग सही साबित हुये। कांग्रेस की 136 सीटें उनके विश्वास की पुष्टि करती हैं। परिणामों ने एक स्पष्ट जनादेश देते हुए कांग्रेस के हाथ मे सत्ता सौंप दी है।यह परिणाम यही नहीं वरन् एक तरह से दक्षिण भारत मे भाजपा के पराभव का संकेत है। भाजपा को शायद पहले ही अंदेशा हो गया था कि इस बार ध्रुवीकरण का दांव काम नहीं करेगा।इसी कारण चुनाव से पहले ही पार्टी की तरफ से संकेत दिया गया था कि चुनाव मे हिजाब, हलाल जैसे संवेदनशील मुद्दों को नहीं उठाया जाएगा। तेजस्वी सूर्या जैसे नेताओं को भी बहुत प्रमुखता नहीं दी गई। 

इस चुनाव मे भाजपा अपने उपर लगे चालीस प्रतिशत भ्रष्टाचार के आरोपों पर कोई संतोषजनक जवाब नहीं दे पायी।इसके अतिरिक्त भाजपा के न चाहते हुए भी इंफ्रास्ट्रक्चर, विकास,शिक्षा,महंगाई,बेरोजगारी आदि मुख्य मुद्दों मे बने 

रहे।बीजेपी की पिच पर न खेलने का जो माडल तेजस्वी ने बिहार मे दिया और जिस पर ममता बनर्जी भी पश्चिमी बंगाल मे चली,उसका कांग्रेस ने भी अनुसरण किया। इसका इन दलों को भी लाभ मिला।

तीसरी महत्वपूर्ण बात रही कि कांग्रेस संगठन भी बहुत मजबूत रहा।मल्लिकार्जुन खरगे के अध्यक्ष बनने के बाद कांग्रेस संगठन मे नई ऊर्जा का संचार हुआ है।उनके नेतृत्व मे सिद्धारमैया तथा डी के शिवकुमार भी पूरी मजबूती से जुड़े रहे।जो कुछ कमी भी थी उसे जगदीश सेट्टार और लक्ष्मण सावदी को अडवाणी – जोशी बनाने की भाजपा नेतृत्व की कोशिशों ने कर दिया।इन सभी नेताओं ने प्रदेश के अन्य नेताओं के साथ अभूतपूर्व तालमेल के साथ काम किया जिसके सकारात्मक परिणाम मिले। डीके शिवकुमार और सिद्धारमैया ने एकजुटता बनाए रखते हुए अनेकों रैलियां और रोड शो भी किये।कांग्रेस ने अपने स्थानीय लोगों को बहुत अहमियत दी। 

इसके अतिरिक्त इन चुनावों से निम्न बातें भी सामने आ रही है। जनता वादे और उनके क्रियान्वयन मे भारी अन्तर को समझ रही है।लम्बे समय तक केवल नारों से काम नहीं चल सकता है।आप भले ही झूठ बोलकर अपनी पीठ थपथपा लें और जनता उसका प्रतिकार न करे पर वह सब समझती है और समय आने पर वोट के रूप मे अपना जवाब देती है।महिला पहलवानों के धरने के मुद्दे पर खेल मंत्री अनुराग यादव की बदजुबानी,महिला मंत्रियों और प्रधानमंत्री की चुप्पी ने दिखाया कि बेटी बचाओ,बेटी पढाओ नारे के प्रति संवेदनशीलता की कमी है।दक्षिण भारत मे पारम्परिक धार्मिक पूजा-पाठ का बहुत प्रभाव है। बरसों से जगह जगह घूमने के अपने व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर मै कह सकता हूं कि वहां पर पूजन दर्शन जीवन का आवश्यक अंग है और अभी बहुत से आडम्बरों से बचा है।शायद यही कारण रहा हो कि भाजपा बजरंगबली के नाम पर जनता को लुभा नहीं सकी।माननीय प्रधानमंत्री महोदय ने इस चुनाव मे गाली,केरल स्टोरी और बजरंगबली के नाम से चुनावों को प्रभावित करने की कोशिश की परंतु परिणाम संकेत देते हैं कि कर्नाटक की जनता इससे प्रभावित नहीं हुई।बजरंगबली ने चुनावी राजनीति मे अपना नाम घसीटना पसंद नहीं किया। लगता है कि कर्नाटक की जनता को नफरत की बाजार के बजाय राहुल गांधी की मुहब्बत की दुकान पसंद आ गई है।अब देखना है कि इस परिणाम का तेलंगाना,मध्यप्रदेश,राजस्थान, छत्तीसगढ़ पर कितना असर पड़ेगा। 

यह फिलहाल एक त्वरित टिप्पणी है, विस्तृत विश्लेषण का इंतजार करिए।

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