*रितेश विद्यार्थी*
भाकपा माले(लिबरेशन) की पोलित ब्यूरो सदस्य रहीं कविता कृष्णन ने हाल ही में अपनी पार्टी के सभी महत्वपूर्ण पदों से यह कहते हुए इस्तीफा दे दिया कि “कम्युनिस्ट शासन प्रणाली से मेरी कुछ गंभीर राजनीतिक असहमतियाँ हैं, पार्टी में रहते हुए उस पर खुलकर अपनी बात रखने में मुझे परेशानी आ रही है।” हालांकि पार्टी के महत्वपूर्ण पदों से इस्तीफा देने से पहले ही(अभी उन्होंने पार्टी की आम सदस्यता से इस्तीफा नहीं दिया है) उन्होंने विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन के मार्गदर्शक नेता और सिद्धांतकार स्तालिन और तत्कालीन सोवियत समाजवादी शासन प्रणाली को साम्राज्यवादी व सबसे खराब अधिनायकवादी व्यवस्था बताते हुए हमला शुरू कर दिया था। उन्होंने स्तालिन को एक साम्राज्यवादी, तानाशाह और यूक्रेन के किसानों का हत्यारा बताया था। जिसके बाद से कम्युनिस्ट क्रांतिकारी हलकों में उनकी तीखी आलोचना हुई थी। बावजूद इसके सीपीआई (एमएल) लिबरेशन की ओर से आधिकारिक तौर पर न तो इसकी निंदा की गई और न ही उन पर कोई कार्रवाई की गई। जिससे मालूम पड़ता है कि पार्टी के भीतर भी भयानक अवसरवाद हावी है। कविता कृष्णन के वैचारिक- राजनीतिक पतन को सीपीआई माले लिबरेशन के संशोधनवाद से अलग करके नहीं देखा जा सकता। इस पार्टी में कोई सैद्धांतिक दृढ़ता अभी भी शेष बची है, ऐसा कह पाना नादानी होगी। क्योंकि क्रांति का एजेंडा इन्होंने कब का छोड़ दिया है।
दरसल रूस-यूक्रेन युद्ध के समय से ही कविता कृष्णन अमेरिकी पाले में खेलने लगी थीं और इस यूद्ध को उकसाने वाली घृणित कार्रवाई करने वाले अमेरिका व नाटो के खिलाफ इन्होंने बोलना उचित नहीं समझा। वर्तमान साम्राज्यवादी रूस के खिलाफ बोलने के बहाने स्तालिन व सोवियत संघ विरोधी अमेरिकी दुष्प्रचार में शामिल हो गईं। खुद को “उदार बुर्जुआ जनतंत्र” का हिमायती बताते हुए भी वो अभी भी खुद को मार्क्सवादी बता रही हैं। जबकि मार्क्स-एंगेल्स ने ही यह स्पष्ट कर दिया था कि वर्ग विभाजित समाज में कोई राज व्यवस्था अंततः एक वर्ग की तानाशाही होती है, मुखौटा भले ही वो ‘लोकतंत्र’ का लगा ले। बुर्जुआ डेमोक्रेसी भी बुर्जुआ वर्ग की खुली या छुपी तानाशाही ही होती है। विश्व में बुर्जुआ डेमोक्रेसी और मानवाधिकारों के सबसे बड़े झंडाबरदार अमेरिका के खूनी साम्राज्यवादी हमलों और जनसंहारों से पिछली सदी और इस सदी के दोनों दशक लहूलुहान पड़े हुए हैं। खुद अमेरिका के अंदर भयानक आर्थिक व सामाजिक असमानता व्याप्त है। काले और गोर का भेद व्याप्त है। वहाँ की पूरी मीडिया चंद पूंजीपतियों के नियंत्रण में है।
बड़े शर्म की बात है कि यह सब जानते हुए भी कविता कृष्णन बुर्जुआ डेमोक्रेसी की वकालत कर रही हैं। ऐसा नहीं है कि मार्क्सवाद-लेनिनवाद की सच्चाई से वो वाकिफ नहीं हैं। यह उनका सचेतन पतन है। यही वजह है कि आज जब कम्युनिस्ट आंदोलन बैकफुट पर है व पूंजी नंगी होकर दुनिया भर में फासीवादी रास्ते अपना रही है वो भी ‘डेमोक्रेसी’ की आड़ लेकर, तब वो उस पर हमला करने की बजाय स्तालिन, माओ और अतीत की कम्युनिस्ट शासन व्यवस्थाओं को अपना निशाना बना रही हैं। उस स्तालिन को निशाना बना रही हैं जिसके नेतृत्व में आक्रामक व हमलावर फासीवाद के खूनी पंजे से दुनिया को बचाया गया और उसका कब्र खोदा गया। सीपीआई (एमएल) लिबरेशन उनकी आलोचना करने व उन पर कार्रवाई करने की जगह उनके बचाव की मुद्रा में खड़ा है। खैर आने वाले समय में उनका अमेरिका प्रेम व असली चेहरा और खुलेगा।
*रितेश विद्यार्थी*