राहुल पाण्डेय
जिस दिन हम लोग काजीरंगा पहुंचे, पता चला कि उसके ठीक एक दिन पहले एक गैंडे ने पास के ही चाय बागान में खूब उधम मचाया था। काजीरंगा के आसपास गैंडे ठीक वैसे ही उधम मचाते हैं, जैसे उत्तर प्रदेश के बिजनौर और साहनपुर रेंज से सटे इलाकों में हाथी। बस फर्क यह है कि हाथी यहां गन्ने के लालच में भागे चले आते हैं तो गैंडों का अभी तक ठीक-ठीक पता नहीं चल पाया कि उन्हें किस चीज का लालच है। आखिर चाय की पत्तियां तो वे भी नहीं चरते। चाय बागान में लगे वृक्षों पर कालीमिर्च की जो बेलें चढ़ाई रहती हैं, वे भी उन्हें रास नहीं आतीं। हमारे पहुंचने से पहले गैंडे ने जिस इलाके में उधम मचाया था, वहां रहने वाले अधिकतर लोग खासी जनजाति के थे। खासी जनजाति भारत की सबसे पुरानी जनजातियों में से एक है। बेहद परिश्रमी यह जनजाति असम, मेघालय और बांग्लादेश के कुछ हिस्सों में रहती है। समुदाय के अधिकतर लोग मेघालय के पूर्वी हिस्से में खासी और जयंतिया पहाड़ियों में रहते हैं। ये लोग सदियों से गैंडों के साथ रहते आए हैं और इन्हें अच्छे से पता होता है कि गैंडों का इलाज कैसे किया जाता है।
जिस गांव में गैंडा जंगल से भटककर आया था, वक्त निकालकर मैंने उसका एक चक्कर लगाया। पूरे गांव में कुछेक पक्के घर छोड़ दें तो ऐसी कोई भी चीज नहीं दिखी- जिससे गैंडों को रोका जा सके। यह दोपहर का समय था और लगभग सभी लोगचाय बागान में बनी झोपड़ियों में भोजन कर रहे थे। ऐसी ही एक झोपड़ी के सामने मैं रुका। पहले तो यह पता किया कि उनमें किसी को हिंदी आती है या नहीं। टूटी-फूटी हिंदी में बात समझने और समझाने वाले दो-तीन लोग थे। ऐसे ही एक गांव वाले से मैंने पूछा कि आप लोग अपनी सुरक्षा का समुचित इंतजाम क्यों नहीं रखते? मुझे ऊपर से नीचे तक देखते हुए उसने रूखे स्वर में पूछा, ‘बाहर से आए हो?’ मैंने कहा, ‘हां, क्या मेरी शक्ल से नहीं दिखता?’ खासी लोग बेहद गुस्सैल माने जाते हैं। मेरे साथ चल रहे लोगों ने भी उनसे उलटी बात करने से मना किया था। मगर मेरे सवाल पर वह बेतरह हंस पड़ा। बोला, तभी ऐसा सवाल पूछ रहे हो। यहां रहते होते, तो गैंडों के साथ रहने की आदत पड़ जाती। तब पता लगता कि हम लोगों ने शहरों की तरह बड़ी-बड़ी दीवारें क्यों नहीं बनाई हैं।
तब तक कुछ और गांव वाले इकट्ठा हो चुके थे। उनमें से कुछ ने चाय बागान दिखाने की पेशकश की तो मैंने पूछा कि गैंडा किसके बागान में आया था? पता चला कि जिसके बागान में आया था, वह कम से कम तीन पहाड़ी पार है और पैदल ही पहुंचा जा सकता है, जिसमें कम से कम घंटे भर का समय लगेगा। यह सुनकर मैंने उस बागान में जाने का विचार छोड़ दिया और पूछा, भगाया कैसे था? आमतौर पर जब गैंडे आपके बागानों में आते हैं तो आपलोग क्या करते हैं? पता चला कि पहली बात यह कि गैंडे के कभी सामने नहीं आना चाहिए। जिसने भगाया, वह भी उसे पीछे से किसी बैल की तरह ही लाठी लेकर हांकता रहा। क्या गैंडा पीछे नहीं मुड़ा? या क्या गैंडे पीछे मुड़कर हमला नहीं करते? खासियों ने बताया कि आमतौर पर तो वे पीछे नहीं मुड़ते। और अगर मुड़ते भी हैं तो हम झट से चाय की झाड़ियों में छुप जाते हैं। यानी चाय की ये झाड़ियां ही आपकी सेफ्टी वॉल हैं? मैंने पूछा। सारे गांव वाले एक स्वर में बोले- हां।