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राजनीतिक अवसरवाद के सबसे बड़े नमूने हैं केजरीवाल…उनका भी वैचारिक मक्का नागपुर ही !

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महेंद्र मिश्र

अरविंद केजरीवाल राजनीतिक अवसरवाद के सबसे बड़े नमूने हैं। उन्हें न तो विचारधारा की कोई सीमा बांध सकती है और न ही किसी सिद्धांत और मूल्य से उनका दूर-दूर तक कोई रिश्ता है।

सत्ता ही उनका माई-बाप है। और उसको हासिल करने और बचाए रखने के लिए वह कुछ भी करने के लिए तैयार रहते हैं। पिछले एक हफ्ते में घटी दो घटनाओं ने उनके राजनीतिक अवसरवाद को नई ऊंचाई दी है। पहली घटना, सूबे में पुजारियों और ग्रंथियों को नियमित भत्ता देने का आप सरकार का फैसला है।

दिल्ली सरकार का यह कदम न केवल सांविधानिक मूल्यों के खिलाफ है बल्कि धर्मनिरपेक्षता और लोकतांत्रिक सिद्धांतों की भी धज्जियां उड़ाता है। वैसे तो केजरीवाल अपने पोस्टरों में शहीद-ए-आजम भगत सिंह के साथ बाबा साहेब आंबेडकर की फोटो लगाने से चूकते नहीं हैं लेकिन उनके बनाए संविधान के प्रति उनके दिल में कितनी इज्जत है, यह घटना उसकी एक बानगी है।

दरअसल इसके जरिए केजरीवाल दिल्ली विधानसभा चुनाव में हिंदुत्व का कार्ड खेलने की कोशिश कर रहे हैं। और अपने तरीके से बीजेपी के साथ प्रतियोगिता में उतर आए हैं। 

अभी तक केजरीवाल और उनकी दिल्ली में चली सरकार के बारे में आम तौर पर यही माना जाता था कि वह वेलफेयर के एजेंडे को प्राथमिकता देती है। और विचारधारा के फ्रंट पर पार्टी का अपना कोई स्पष्ट मत नहीं है।

दिल्ली दंगों से लेकर अल्पसंख्यकों से जुड़े तमाम मसलों पर उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया जिससे उनको अल्पसंख्यकों का खैरख्वाह कहा जाए। एक सरकार के तौर पर पीड़ित के पक्ष में खड़े होने की उनकी जो बुनियादी जिम्मेदारी थी उसको भी उन्होंने निभाना जरूरी नहीं समझा।

लेकिन अभी तक यह कोई नहीं जानता था कि एक दिन ऐसा आएगा जब वह अल्पसंख्यकों और उनके हितों को ठेंगे पर रखकर खुलेआम बहुसंख्यकवाद की राजनीति करने लगेंगे। और इस मामले में वह बीजेपी से प्रतियोगिता करते हुए दिखेंगे।

लेकिन दिल्ली और देश ने वह दिन भी देख लिया। हालांकि, इसके लक्षण कई रूपों में पहले भी दिखते रहे हैं। वह जब खुलकर आरक्षण का विरोध करते थे और मेरिट की बात करते थे तो वह भी इन्हीं लक्षणों में से एक हुआ करता था।

इन सिद्धांतों और मूल्यों पर बाद में बात करेंगे। सबसे पहले आइए, इनके लिए गए फैसले की तार्किकता और उसकी प्रासंगिकता पर ही विचार कर लेते हैं।

क्या किसी भी कोने से लगता है कि किसी धर्म और उसमें भी बहुमत के धर्म को राज्य यानि सरकार को पालने, पोसने और उसे बड़ा करने की जरूरत है। अगर कोई संविधान खुद को धर्मनिरपेक्ष कहता है तो यह काम उसके बुनियादी सोच के ही खिलाफ है। यानी उन्हें सिद्धांत और मूल्य में कोई विश्वास नहीं है।

उस नजरिए से भी अगर इस मसले पर विचार करें तो क्या यह उचित होगा कि डीयू समेत दिल्ली के तमाम विश्वविद्यालयों और दूसरी शिक्षण संस्थाओं से निकलने वाले बेरोजगार नौजवानों को बेरोजगारी भत्ता देने की जगह पुजारियों और ग्रंथियों को नियमित वेतन मुहैया कराया जाए?

उन बेरोजगारों के प्रति तो सरकार की सीधी जिम्मेदारी और जवाबदेही बनती है और अगर उनको रोजगार नहीं मुहैया कराया जा पा रहा है तो उसके मुआवजे के तौर पर उन्हें बेरोजगारी भत्ता दिया जाना चाहिए। यह उनका हक बनता है।

न कि मंदिर में बैठे उन पुजारियों को जनता का पैसा दिया जाए जिनका काम समाज में कोई वैज्ञानिक चेतना विकसित करने की बात तो दूर अंधविश्वास और जाहिलियत फैलाना है। और वैसे भी मंदिर खुद उनके लिए आय का एक स्रोत हैं। जहां चढ़ावा चढ़ता है और लोग उपहार स्वरूप न जाने क्या-क्या देते हैं।

इसके अलावा पुरोहित के तौर पर यजमानों के यहां संपन्न कराए गए कर्मकांडों से भी उन्हें आय होती है। जबकि बेरोजगारों के पास इस तरह का कोई विकल्प नहीं होता है। ऐसे में पुजारियों को सैलरी देने का फैसला न केवल गैरजरूरी है बल्कि हर लिहाज से समाज को पीछे ले जाने वाला है।

इससे पुजारियों की फौज पैदा होगी जो जनता के ऊपर न केवल बोझ बनेगी बल्कि देश की राजधानी दिल्ली में मंदिरों का अंबार लग जाएगा।

और गली-गली में मंदिर का निर्माण और उसमें पुजारियों की नियुक्ति रोजगार के एक प्रमुख साधन के तौर पर काम करने लगेंगे। हालांकि, आरएसएस और बीजेपी यही चाहते हैं। और केजरीवाल इस मामले में उनके बिल्कुल साथ खड़े हैं।

अभी तक केजरीवाल पर लोग ऊपर-ऊपर बीजेपी की बी टीम या फिर संघ का दूसरा चेहरा होने का आरोप लगाते थे। लेकिन उन्होंने संघ प्रमुख मोहन भागवत को एक चिट्ठी लिखकर अपने तरीके से इस बात को स्वीकार कर लिया है कि वह आरएसएस के साथ नाभिनालबद्ध हैं। और देश के सामने इस बात का खुलेआम एलान कर दिया है कि उनका भी राजनीतिक मक्का नागपुर ही है।

अपनी चिट्ठी में उन्होंने संघ प्रमुख से सवाल पूछा है कि क्या वह बीजेपी के वोट खरीदने की राजनीति का समर्थन करते हैं। इसी तरह से वोटर मैनिपुलेशन के मामले में भी उन्होंने संघ से कुछ सवाल पूछे हैं।

अब केजरीवाल को कौन समझाए कि जो संस्था लोकतंत्र में विश्वास ही नहीं करती है और संविधान को मनुस्मृति से प्रतिस्थापित करना चाहती है उसका इस पर क्या जवाब होगा? और यह सवाल उससे पूछना भी बेमानी है। लेकिन केजरीवाल तो केजरीवाल हैं।

वह सब कुछ जानते हैं और अपने इन फैसलों और कवायदों के जरिये एक तरह से वह उसी दिशा में आगे बढ़ रहे हैं, जिस दिशा में संघ देश को ले जाना चाहता है। इसे सिर्फ और सिर्फ केजरीवाल की एक राजनीतिक नौटंकी करार दिया जा सकता है।

यह कुछ उसी तरह का मामला है जब कोई बच्चा अपने भाई से नाराज हो जाता है या फिर किसी मामले में उसका कोई अंतरविरोध पैदा होता है तो वह उसके निपटारे के लिए अपने मां के पास चला जाता है। इसके जरिये न केवल केजरीवाल मोहन भागवत और संघ को वैधता दे रहे हैं बल्कि उसे देश के एक ऐसे गार्जियन के तौर पर स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं जो हर तरीके से निरपेक्ष है। जबकि यह सौ प्रतिशत झूठ बात है।

संघ को चिट्ठी के निहितार्थ

संघ हिंदुत्व का झंडाबरदार है। और न्याय, सत्य और तमाम दूसरे बुनियादी मूल्यों के मुकाबले वह हिंदुत्व का पक्षधर है और उसके हित में काम करने के लिए वह इन तमाम मूल्यों को भी हर समय कुचलने के लिए तैयार रहता है।

वैसे भी संविधान, लोकतंत्र और भारतीय व्यवस्था के संचालन के मामले में संघ का स्थान न तो तीन में है और न ही तेरह में। ऐसे में इनसे जुड़े किसी पक्ष पर किसी शख्स को भला उनके पास क्यों जाना चाहिए?

केजरीवाल ने यह हरकत कर न केवल अब तक बांधी गयी राजनीतिक दलों की सीमाओं का उल्लंघन किया है बल्कि अपने तरीके से एक ऐसी राजनीति का सूत्रपात किया है जो देश के बुनियादी संवैधानिक और लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ है।

आइए, अब एक छानबीन केजरीवाल की अपनी विचारधारा की कर लेते हैं। जब कोई यह कह रहा होता है कि उसकी अपनी कोई विचारधारा नहीं है तो वह सरासर झूठ बोल रहा होता है। दरअसल इसके जरिये वह असलियत को छुपाने की कोशिश कर रहा होता है।

भले ही पोस्टरों में केजरीवाल भगत सिंह और आंबेडकर की फोटो लगाकर खुद को क्रांतिकारी बताते हों लेकिन विचारहीनता का गहना पहनकर वह दक्षिणपंथ की ही सेवा कर रहे होते हैं। क्योंकि वह इस बात को खुलेआम नहीं कह सकते हैं कि वह कॉरपोरेट के पक्ष में हैं। उनकी विचारधारा दक्षिणपंथी है और जो हिंदुत्व प्रेरित है।

इसलिए वह इसको छुपाए रहते हैं। लेकिन जब भी ऐसा कोई अहम मौका आता है तो असलियत खुल कर सामने आ जाती है। दिल्ली दंगों का प्रसंग हो, जब उन्होंने अल्पसंख्यक इलाकों में झांकना भी जरूरी नहीं समझा था, या फिर इन पुजारियों और ग्रंथियों को सैलरी देने का मसला या फिर हिंदू बुजुर्गों को सरकारी पैसे पर तीर्थयात्रा कराने का कार्यक्रम ये सब उसी विचारधारा के अलग-अलग हिस्से और रूप हैं। जिसको केजरीवाल पिछले एक दशक से भी ऊपर से आगे बढ़ाने का काम कर रहे हैं।

इसलिए यह सजग हो जाने का समय है। और दिल्ली विधानसभा के चुनाव में जीतकर भी हार जाने की जगह हार कर जीतने की स्थिति तक के लिए भी लोगों को तैयार रहना चाहिए।

जीतने के बाद हिंदुत्व के एजेंडे को मजबूत करने से अच्छा है हारकर भी एक छोटी ताकत ही सही हिंदुत्व के खिलाफ उसे खड़ा किया जाए। क्योंकि आखिरी तौर पर यही ताकत लोकतंत्र और संविधान को समाप्त करने वाले फासीवादी निजाम का रथ रोकने का काम करेगी।

(महेंद्र मिश्र जनचौक के संपादक हैं।)

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