ख़ान यूनिस, फ़िलिस्तीन रियासत का एक शहर है जिसे 14 वीं सदी में पशतून क़बीले की एक शाखा नूरज़ई के यूनिस अल नूरज़ई, जो ममलूक बेय थे, ने सराये के रूप में बसाया था। सोलहवीं सदी में ममलूक की पराजय के बाद यह इलाक़ा उस्मानिया ख़िलाफ़त का हिस्सा बन गया।
1956 में मिस्र ने स्वेज नहर को बंद कर दिया तो ब्रिटेन, फ़्रांस और इज़राइल ने मिस्र पर आक्रमण कर दिया। मिस्री सेना के हथियार डालने के बावजूद इज़राइली सेना ने फ़िलिस्तीनी शहर ख़ान यूनिस के लोगों को सबक़ सीखाने के इरादे से वह किया जो सिर्फ़ हिटलर की सेना ही करती नज़र आयी थी। 3 नवम्बर 1956 को ख़ान यूनिस और ग़ाज़ा पट्टी में इसी नाम के शरणार्थी शिविर में इज़राइल रक्षा बलों द्वारा सैकड़ों निहत्थे फ़िलिस्तीनियों को सामूहिक रूप से गोली मारकर हत्या कर दी गयी थी।
इज़राइली सैनिक मारेक गेफेन स्वेज संकट के दौरान ग़ाज़ा में सेवारत था। 1982 में, पत्रकार बनने के बाद, गेफेन ने इस नरसंहार की रिपोर्ट प्रकाशित की थी। इस नरसंहार के बारे में अपने वृत्तांत में उसने कहा, “कुछ गलियों में हमें जमीन पर खून से लथपथ शव बिखरे हुए मिले, उनके सिर टूटे हुए थे। किसी ने उन्हें हटाने की सुध नहीं ली। यह भयानक था। मैं वहीं रुक गया।,, एक कोने में गया और सब कुछ फेंक दिया। मैं मानव बूचड़ख़ाने को देखने का आदी नहीं हो सका।”
इस नरसंहार को इज़राइल-फ़िलिस्तीन संघर्ष के रूप में प्रोजेक्ट करने की पश्चिम मीडिया द्वारा नाकाम कोशिशें भी की गयीं। जबकि UN रिपोर्ट में कम से कम 275 नागरिकों की हत्या की नाम सहित पुष्टि की गयी थी।
इन तमाम अत्याचारों के बावजूद फ़िलिस्तीनी प्रतिरोध ज़िंदा है। हमारा समर्थन इसलिए है कि वे कलोनीयल दौर की काली और अमानवीय नीतियों के आज भी शिकार बने हुए हैं।
Long-live Resistance