द्वारका भारती
हाल ही में देश की राजधानी दिल्ली में जी-20 समूह के सदस्य देशों का शिखर सम्मेलन हुआ तब भारत सरकार की ओर से सबसे अधिक जोर जिस विषय पर था, वह हिंदू धर्म का एक सूत्र वाक्य ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ था। यह वाक्य भारतीय संस्कृति (हिंदू धर्म) की पंच लाइन के जैसे प्रचारित की गई। इसी तरह यह अचानक ही नहीं हो रहा है कि इस देश के अधिकतर ब्राह्मण आजकल अपनी अन्य कथित विशेषताओं के साथ-साथ हिंदू धर्म के सहिष्णु होने पर ज्यादा बातें कर रहे हैं कि यह विश्व के अन्य धर्मों की अपेक्षा कहीं अधिक सहिष्णु है। आश्चर्य तो तब होता है जब वे यह घोषणा भी करते हैं कि हिंदू धर्म विश्व के अन्य धर्मों की अपेक्षा अहिंसा और भ्रातृत्व की भावना से ओत-प्रोत भी है। सबसे चौंकाने वाला तथ्य यह है कि एक औसत भारतीय इस प्रचार को सहज ही स्वीकार करता हुआ नतमस्तक भी हो जाता है। लेकिन क्या इस प्रकार के प्रचार को सहजता से स्वीकार कर लिया जाना चाहिए?
इसके उत्तर में जब हम हिंदू धर्म की तमाम संहिताओं का गहराई से अवलोकन करते हैं तो हमें यह स्वीकार करने में बहुत कठिनाई का अनुभव होता है कि हिंदू धर्म सचमुच ही सहिष्णुता, अहिंसावादी व भ्रातृत्व की भावना को साथ लेकर आगे बढ़ रहा है। यह तो तय है कि हिंदू धर्म की प्रस्तुत की गईं विशेषताएं बौद्ध धर्म और जैन धर्म का ही प्रमुख अंग मानी जाती है। जैन धर्म एक अहिंसावादी धर्म है। बौद्ध धर्म भी अहिंसा को प्रमुख सिद्धांत अवश्य मानता है, लेकिन उस कट्टरता से नहीं, जिस कट्टर सिद्धांत से जैन धर्म मानता है। जैन धर्म का ‘अहिंसा परमोधर्म’ श्लोक किसी हिंदू शास्त्र में नहीं देखा जाता। यदि हिंदू धर्म जैन धर्म को भी अपनी ही प्रतिमूर्ति मानता है तो सभी विवाद स्वयं ही समाप्त हो जाते। लेकिन ऐसा नहीं है। जैन धर्म स्वयं में एक ऐसा दार्शनिक-पुंज है जो हिंदू धर्म की तमाम संहिताओं को नकारता भी है और अपना एक भिन्न सामाजिक ढांचा भी रखता है। उसका वैदिक परंपराओं से कहीं कुछ भी लेना-देना नहीं है। भले ही उपनिषदों में कहीं-कहीं अहिंसा की भावना अवश्य देखने को मिलती है, लेकिन अहिंसा के बुनियादी सिद्धांतों की बुनियाद सिर्फ बौद्ध धर्म और जैन धर्म ही डालते हैं। ये दोनों धर्म (बौद्ध और जैन) हिंदू धर्म से एकदम भिन्न श्रमण परंपरा की नींव डालते हैं, जो कि हिंदू धर्म के तमाम परंपराओं के विरोध में ही अपनी दार्शनिक व सामाजिक परंपराओं का निर्वहन करती है।
बौद्ध धर्म तो नितांत हिंदू धर्म की तमाम परंपराओं को खारिज करता हुआ अपना अलग अस्तित्व बनाता है। अहिंसा के संबंध में बौद्ध धर्म की विचारधारा गीता नामक हिंदू धर्मग्रंथ से एकदम भिन्न विचार रखती है। हम अवगत हैं कि भगवद्गीता यदि रक्त-संहार का उपदेश देती है तो बौद्ध परंपरा प्राणी मात्र से प्रेम करने का आह्वान करती है। इस दृष्टि से देखा जाए तो हिंदू धर्म को अहिंसावादी कहना साफ-साफ असत्य का सहारा लेने के समान है। स्पष्ट है कि जो अहिंसावादी नहीं है, वह सहिष्णुता की सीढ़ी तक कहां पहुंच पाएगा?
यह निर्विवाद सत्य है कि ब्राह्मण वर्ग मनुस्मृति को आज भी एक धार्मिक ग्रंथ मानता है और इस देश की न्यायपालिका तक उसके भीतर दर्ज किए गए सूत्रों की चर्चा अपने न्यायायिक निर्णयों में यदा-कदा करती रहती है। यदि इस पुस्तक का आकलन हम एक हिंदू के सहिष्णु होने के आधार पर करना चाहें तो हम देखेंगे कि इस देश का अधिकांश भाग इस मनुस्मृति के आदेशों से प्रभावित है और आज भी एक हिंदू के असहिष्णु होने की तमाम शर्तों को पूरा करता हुआ अपना जीवन-यापन कर रहा है।
एक ताजा उदाहरण कुछ दिन पहले ही देखने को मिला। पिछले दिनों भारतीय सिनेमा में एक ‘आदिपुरुष’ नामक फिल्म के संदर्भ में एक मामला इलाहाबाद उच्च न्यायालय में पहुंचता है। जज महोदय इस संदर्भ में दाखिल की गई याचिका पर अपना निर्णय देते हुए इस फिल्म के निर्माता को फटकार लगाते हुए कहते हैं कि “सहिष्णुता की परीक्षा एक ही [हिंदू] धर्म की ही क्यों ली जाती है?” यह फटकार लगाने वाले जस्टिस राजेश सिंह चौहान और जस्टिस प्रकाश सिंह ने आगे जो कहा, वह और भी ज्यादा महत्वपूर्ण है।
गत 28 जून, 2023 को हिंदी दैनिक समाचार पत्र ‘दैनिक भास्कर’ द्वारा प्रकाशित एक खबर के मुताबिक इस पीठ ने कहा– “क्या जो सौम्य है, उसे दबाना चाहिए? यह तो अच्छा है कि यह एक ऐसे धर्म से संबंधित है, जिसके मानने वाले सार्वजनिक व्यवस्था के लिए किसी तरह की समस्या पैदा नहीं करते। हमें शुक्रगुजार होना चाहिए।” दिलचस्प यह कि जिस शीर्षक से यह खबर प्रकाशित की गई, वह था–“हिंदुओं की सहनशक्ति की ही परीक्षा क्यों?”
जाहिर तौर पर अखबारों में इस प्रकार के शीर्षक देश की मीडिया पर ब्राह्मण वर्ग की मजबूत पकड़ को सत्यापित करते हैं।
इस देश के हिंदुओं को सहिष्णु घोषित करना, कोई नया व्यवहार नहीं है। देश के कई हिंदू विद्वानों की दृष्टि में आज भी हिंदू इस संसार का सबसे ज्यादा सहनशील व्यक्ति माना जा रहा है। हमें यहां एक हिंदू सुधारवादी संतराम बी.ए. के विचारों का उल्लेख करना चाहिए। उनकी ‘हमारा समाज’ नामक पुस्तक सबसे चर्चित कृति मानी जाती है। इस पुस्तक में प्रकट किए इन विचारों को हम यहां देखते हैं–
“कुछ लोग कहा करते हैं कि जातिभेद न होता तो हिंदू जाति नष्ट हो जाती। उनसे हम यहीं कहेंगे कि हिंदू जाति जात-पांत के कारण नहीं, वरन् धार्मिक सहिष्णुता, विचार-स्वातंत्र्य, श्रेष्ठ संस्कृति, उच्च तत्वज्ञान और अद्वितीय ब्रह्मवाद जैसे अपने दूसरे सद्गुणों के कारण ही जीवित रही है, यद्यपि इसका यह जीवन जात-पांत के रोग ने मृत्यु से भी बुरा बना रखा है।”(हमारा समाज, सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 146)
संतराम बी.ए. के ये विचार एक ऐसे विद्वान के विचार हैं जो कि एक समर्पित हिंदू के होने चाहिए। वे हिंदू समाज में परिवर्तन अर्थात् सुधार लाने को प्रयासरत थे, क्योंकि वे आर्य समाज की लहर को आगे बढ़ाने के लिए कार्य कर रहे थे। संतराम हिंदू धर्म के भीतर की तमाम सामाजिक विसंगतियों से भलीभांति अवगत थे, लेकिन वे जिस ढंग से हिंदुओं के भीतर की विशेषताओं का वर्णन करते हैं, वह हमें आज भी चौंकाता है, क्योंकि इन वर्णित विशेषताओं पर गहरे प्रश्न चिह्न आरोपित किए जा सकते हैं। वास्तव में हमें जब भी एक हिंदू विद्वान को अपने धर्म की विशेषता गिनवाने या परिभाषित करने का अवसर मिलता है तो स्थिति एकदम हास्यास्पद हो जाती है, क्योंकि इसे सिद्ध करने के लिए उसे बहुत हठधर्मिता से काम लेना पड़ता है, बहुत-सी चीजों को देखने के लिए एक अलग दृष्टि तलाशनी पड़ती है। उदाहरण के तौर पर यदि वह यह उद्घोषणा करता है कि उसके धर्म में विचारों को प्रकट करने की स्वतंत्रता रही है तो, इसके पक्ष में जो हमें साक्ष्य मिलते हैं, वे इस कथन के ठीक विपरीत ही मिलते हैं। इस संदर्भ में हम मनु की तहरीरों को आधार बना सकते हैं। क्या इस तथ्य को झुठलाया जा सकता है कि मनु स्वतंत्र चिंतन को पूरी तरह अनिष्टकारी मानते हैं? मनु की एक प्रसिद्ध उक्ति का यहां उल्लेख किया जा सकता है–
“…हैतुकान्ब कबू वृत्तींश्च वाङ्माक्षेणपि नार्चयेत्।” (अध्याय-4, श्लोक-30, मनुस्मृति)
यानी स्वतंत्र चिंतकों और दुरंगी चाल चलने वालों से बातचीत भी नहीं करनी चाहिए।
मनु ने स्वतंत्र चिंतकों के लिए ‘हेतुक’ शब्द का प्रयोग किया है। इसका सीधा-सा अर्थ है– तर्क करने वाला। लेकिन एक विद्वान डी.पी. चट्टोपाध्याय स्पष्ट करते हैं कि वर्तमान संदर्भ में, इस शब्द का सामान्य रूप से तार्किकता के अर्थों में नहीं, बल्कि तर्क को आस्था की परिधि में जकड़े रखने से इंकार करने वालों के अर्थ में सकारण प्रयोग किया गया है।
इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि इस मनुस्मृति जैसे पुराने ग्रंथ को आज कौन स्वीकार करता है? हमारा उत्तर यही होगा कि यदि इस पौराणिक ग्रंथ की मान्यताओं को आज का पढ़ा-लिखा हिंदू स्वीकार नहीं करता है तो, वह इस ग्रंथ में वर्णित जातिप्रथा, अस्पृश्यता आदि के अनुसार बनी इस सामाजिक व्यवस्था के विरुद्ध आंदोलनकर्ता क्यों नहीं बन जाता? जब इस समाज में अपने ही एक हिंदू भाई के ऊपर नीची जाति का दोष लगाते हुए मंदिर प्रवेश करने से मना करते हुए जबरन बाहर धकिया दिया जाता है, तो क्यों नहीं यह समाज विरोध करने सड़कों पर उतर जाता है? यदि कोई गलती से या खुद से अस्तित्व को छुपाते हुए मंदिर-प्रवेश कर भी जाता है तो क्यों उस मंदिर को शुद्धिकरण की प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है? आज के युग में भी इन खबरों का छपना कि पुलिस की सहायता से हिंदुओं को मंदिर-प्रवेश करवाया गया, इस देश के हिंदू को शर्मिंदा क्यों नहीं करता?
यदि इन प्रश्नों के उत्तर आज के हिंदू के पास नहीं है तो वह इसमें सहिष्णुता का दावा क्यों करता है? वास्तविकता यही है कि इस देश का हिंदू कभी भी, कहीं भी इन धार्मिक कहे जाने वाले ग्रंथों की अमानवीय परछाइयों को झटक नहीं पाता है?
पांडुरंग वामन काणे हिंदू धर्म की कमजोरियों को आंकते हुए कहते हैं–
“यह जानकर अपार दु:ख होता है कि जहां 11वीं शती से आगे बड़े-बड़े विद्वान व्रत, दान एवं श्राद्ध पर सहस्रों पृष्ठों में ग्रंथों के प्रणयन में लीन थे (जैसा कि विद्वान मंत्री हेमाद्रि ने किया था) या तर्कशास्त्र, वेदांत, साहित्य-शास्त्र आदि अनेक मार्मिक विषयों के ऊपर साधिकार ग्रंथ, प्रणयन, टीका-मीमांसा करते थे, वहां एक भी ऐसा विद्वान नहीं उत्पन्न हुआ, जो अलबेरूनी के सामने आगे आता और महमूद गजनवी की विजय तथा भारत की पराजय पर प्रकाश डालता और उन दुर्बलताओं को दूर करने का प्रयत्न करता, जिनके फलस्वरूप भारत को बाह्य आक्रमकों के समक्ष मुंह की खानी पड़ी। हिंदुओं की पराजय के कारण और भी थे।”
बहरहाल, ‘सहिष्णुता हिंदू धर्म का सार है’, जैसे शब्द-समूहों का कोई भ्रमात्मक व प्रचार तंत्रात्मक मूल्य हो सकता है, लेकिन यह हिंदू समाज की इन कमजोरियों को कभी ढांप नहीं सकता जो यहां की जातिवादी, कूपमंडूकता से लबालब भरे समाज रूपी तालाब में इस सदी में भी व्याप्त देखी जाती है। यह वाक्य हिंदू समाज की सहिष्णुता के लिए तो प्रयोग किया जा सकता है, लेकिन वास्तविकता से कोसों दूर है। हिंदू समाज आज भी अस्पृश्यता, जातिभेद के प्रति सहिष्णुता से इतना लबालब है कि वह आज भी उफनता हुआ देखा जा सकता है। एक हिंदू की असहिष्णुता को देखना हो तो इनके ही ग्रंथ महाभारत में एक चार्वाक को जलाए जाने की दर्दनाक गाथा को देखा जा सकता है। एक हिंदू भी उसी प्रकार अपने धर्म के प्रति कट्टर है, जैसे कोई दूसरे धर्म का कट्टरवादी गैर-हिंदू। वास्तव में हिंदू-दर्शन और हिंदू-समाज में अंतर है। एक ओर तो महान विचारक यह उपदेश करते हैं कि संपूर्ण विश्व एक है और दूसरी ओर अपने ही देश के नागरिकों के साथ इतना हिंसक व्यवहार करते हैं कि धरती कांप उठे।
किसी को जान से मार देना ही मात्र हिंसा या असहिष्णुता नहीं होती, बल्कि किसी को समाज में सबसे नीच मानते हुए समाजच्युत कर देना भी असहिष्णुता मानी जाती है। यह तो सबसे घिनौना कृत्य माना जाना चाहिए। सवाल है कि जन्म से ही किसी को श्रेष्ठ या अधम माने जाने की वैचारिक-परिपाटी को असहिष्णुता की श्रेणी में क्यों न रखा जाए?
स्मरण करें कि डॉ. आंबेडकर ने कहा था– “हिंदू कहते हैं कि उनकी कौम बड़ी सहनशील है। मेरे मत से यह बात सही नहीं है। अनेक अवसरों पर यदि उनका असहनीय रूप देखा जा सकता है और कुछ अवसरों पर उनमें सहनशीलता देखी जाती है, तो उसका कारण यह है कि या तो वे विरोध करने में अत्यधिक अशक्त हैं, या पूरी तरह उदासीन हैं। हिंदुओं की यह उदासीनता इस कदर उनकी आदत का हिस्सा बन चुकी है कि हिंदू किसी अपमान या अन्याय को बुजदिल बनकर सहता रहेगा।” (बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर, संपूर्ण वाङ्मय, खंड-1, पृष्ठ 64)