डॉ. विकास मानव
(मनोचिकित्सक/ध्यानप्रशिक्षक)
_आत्मजागृति उपरांत क्रियायोग से साधक की यात्रा आगे बढ़ती है. इस पद्धति में प्राणायाम के कई स्तर होते जो ऐसी तकनीकों पर आधारित हैं जिनका उद्देश्य आध्यात्मिक विकास की प्रक्रिया को तेज़ करना और ईश्वर के साथ जुड़ाव की परम स्थिति को उत्पन्न करना होता है।_
क्रिया योग ईश्वर-बोध, यथार्थ-ज्ञान एवं आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने की एक वैज्ञानिक प्रणाली है। जिसके द्वारा मानव-रक्त कार्बन से रहित तथा ऑक्सीजन से प्रपूरित हो जाता है।
इसके अतिरिक्त ऑक्सीजन के अणु जीवन प्रवाह में रूपान्तरित होकर मस्तिष्क और मेरूदण्ड के चक्रों को नवशक्ति से पुनः पूरित कर देते है।
प्रत्यक्ष प्राणशक्ति के द्वारा मन को नियन्त्रित करनेवाला क्रियायोग अनन्त तक पहुँचने के लिये सबसे सरल और अत्यन्त वैज्ञानिक मार्ग है। बैलगाड़ी के समान धीमी और अनिश्चित गति वाले धार्मिक मार्गों की तुलना में क्रिया योग द्वारा ईश्वर तक पहुँचने के मार्ग को विमान मार्ग कहना उचित होगा।
मनुष्य की श्वसन गति और उसकी चेतना की भिन्न भिन्न स्थिति के बीच गणित के अनुसार सम्बन्ध होने के अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं। मन की एकाग्रता धीमे श्वसन पर निर्भर है। तेज या विषम श्वास भय, काम क्रोध आदि हानिकर भाव आवेगों की अवस्था का सहचर है।
एक क्रिया योगी अपनी जीवन उर्जा को मानसिक रूप से नियंत्रित कर सकता है ताकि वह रीढ़ की हड्डी के छः केंद्रों के इर्द-गिर्द ऊपर या नीचे की ओर घूमती रहे मस्तिष्क, गर्भाशय ग्रीवा, पृष्ठीय, कमर, त्रिक और गुदास्थि संबंधी स्नायु जाल जो राशि चक्रों के बारह नक्षत्रीय संकेतों, प्रतीकात्मक लौकिक मनुष्य के अनुरूप हैं।
मनुष्य के संवेदनशील रीढ़ की हड्डी के इर्द-गिर्द उर्जा के डेढ़ मिनट का चक्कर उसके विकास में तीव्र प्रगति कर सकता है; जैसे आधे मिनट का क्रिया योग एक वर्ष के प्राकृतिक आध्यात्मिक विकास के एक वर्ष के बराबर होता है।
क्रियायोग “आत्मा में रहने की पद्धति” की साधना है”।प्राचीन भारत में क्रिया योग भली भांति जाना जाता था, किन्तु अंत में यह खो गया, जिसका कारण था पुरोहित गोपनीयता और मनुष्य की उदासीनता। भगवान श्रीकृष्ण ने भगवद गीता में क्रिया योग को संदर्भित किया है।
जब “भगवान श्रीकृष्ण यह बताते है कि उन्होंने ही अपने पूर्व अवतार में अविनाशी योग की जानकारी एक प्राचीन प्रबुद्ध, वैवस्वत को दी जिन्होंने इसे महान व्यवस्थापक मनु को संप्रेषित किया। इसके बाद उन्होंने, यह ज्ञान भारत के सूर्य वंशी साम्राज्य के जनक इक्ष्वाकु को प्रदान किया।
क्रिया योग शारीरिक अनुशासन, मानसिक नियंत्रण और ॐ पर ध्यान केंद्रित करने से निर्मित है। उस प्रणायाम के जरिए मुक्ति प्राप्त की जा सकती है जो प्रश्वसन और अवसान के क्रम को तोड़ कर प्राप्त की जाती है। क्रिया के साथ कई विधियां जुडी हुई हैं।
क्रियायोग की विधियां प्रमाणित तौर पर गीता, योग सूत्र, तन्त्र शास्त्र और योग की संकल्पना से ली गयी हैं। क्रिया योग एक प्राचीन ध्यान की तकनीक है, जिससे हम प्राण शक्ति और अपने श्वास को नियंत्रण में ला सकते हैं।
योग के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए , क्रिया योग आज के ज़माने में मनुष्य को उपलब्ध सबसे प्रभावशाली तकनीक है। क्रिया योग इतना प्रभावशाली इसलिए है क्योंकि वह विकास के स्रोत के साथ प्रत्यक्ष रूप से काम करता है।
हमारी मेरुदंड के भीतर आध्यात्मिक शक्ति है। सभी योग कीं तकनीकें इसी शक्ति के साथ काम करतीं है, लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से। उदाहरण स्वरूप, योगासन रीढ़ के अंदर मार्ग खोलने में मदद कर सकते हैं, एवं भीतर शक्ति को संतुलित कर सकते हैं।
योग श्वास-नियंत्रण तकनीक अथार्त प्राणायाम, इस शक्ति को जागरूक करने में मदद कर सकतें हैं। परन्तु क्रिया योग इनसे अधिक प्रत्यक्ष है। यह तकनीक अभ्यास करने वाले की प्राण-शक्ति को नियंत्रित करने में मदद करती है।
जब इस तकनीक को चेतना और इच्छाशक्ति के साथ किया जाए तो प्राण शक्ति मानसिक रूप से मेरुदंड में ऊपर और नीचे ले जाई जा सकती है।एक क्रिया, जिसको करने में आधे मिनट के करीब लगता है, एक साल के कुदरती आध्यात्मिक विकास के बराबर है।
क्रिया योगी पातें है कि उनकी धारणा शक्ति बढ़ जाती है, ताकि वे व्यापार और गृहस्थ जीवन में प्रभावशाली बन सकें, और हर तरह से अच्छा इंसान बन सकें। क्रिया योग एक साधन है जिसके द्वारा मानवीय विकास को तीव्र किया जा सकता है।
प्राचीन ऋषियों ने खोज की कि ब्रह्माण्डीय चेतना के रहस्य का श्वास पर नियंत्रण के साथ गहरा संबंध है। ह्रदय की धड़कन को कायम रखने में सामान्यतः जो प्राण शक्ति लगती है उसे अंतहीन माँगों को शान्त करने और रोकने की विधि द्वारा, उच्चतर कार्यों के लिए मुक्त किया जाना चाहिए।
श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा : मैंने विवस्वत (सूर्य-देव) को यह अविनाशी योग प्रदान किया; विवस्वत ने यह ज्ञान मनु को दिया; मनु ने इसके बारे में इक्ष्वाकु (क्षत्रियों के सूर्यवंश के संस्थापक) को बताया।
इस प्रकार क्रमपूर्वक एक-से-दूसरे तक आते हुए, राजर्षियों ने इसे जाना था। परन्तु, हे शत्रुओं को भस्मीभूत करने वाले (अर्जुन)! कालांतर में, यह योग धरती पर से लुप्त हो गया था। अन्य भक्त प्राण के भीतर जाते श्वास को अपान के बाहर जाते प्रश्वास में।
तथा अपान के बाहर जाते प्रश्वास को प्राण के भीतर जाते श्वास में हवन करते हैं, और इस प्रकार प्राणायाम (क्रियायोग की प्राणशक्ति पर नियन्त्रण विधि) के निष्ठावान् अभ्यास द्वारा श्वास एवं प्रश्वास के कारण को रोक देते हैं अथार्त सांस लेना अनावश्यक बना देते हैं. इस प्रकार ये दो श्लोक राजसी योग की ऐतिहासिक पुरातनता की घोषणा करते हैं ।आत्मा और परमात्मा को जोड़ने वाला शाश्वत, अपरिवर्तनीय विज्ञान। इसके साथ ही, गूढ़ रूप में समझने पर, ये श्लोक इस विज्ञान का एक संक्षिप्त वर्णन करते हैं।
ये श्लोक उन चरणों के बारे में बताते हैं जिनके द्वारा आत्मा, विश्व-चैतन्य से मानव शरीर के साथ पहचान की नश्वर अवस्था में उतरी है, तथा किस मार्ग के द्वारा यह परमानंदमय अनन्त परमात्मा रूपी अपने स्रोत तक वापस लौट सकती है।
आरोहण, अवरोहण मनुष्य में यह रास्ता अनन्त को जाने का आंतरिक राजमार्ग है। सभी युगों में सभी धर्मों के अनुयायियों के लिये परमात्मा से मिलन का यह एकमात्र मार्ग है। इस एकमात्र राजमार्ग पर व्यक्ति विश्वासों या साधना-प्रणालियों के किसी भी उपमार्ग द्वारा पहुँचे ।
शरीरी चेतना से ब्रह्म तक का अंतिम आरोहण सबके लिये समान है। यह आरोहण, प्राण-शक्ति और चेतना का इन्द्रियों से प्रत्याहार होकर, सूक्ष्म मस्तिष्क मेरु केंद्रों में प्रकाश के द्वारों के द्वारा ऊपर जाने से होता है। जड़ तत्त्व की चेतना प्राण-शक्ति में विलीन हो जाती है।
प्राण-शक्ति मन में, मन आत्मा में, और आत्मा ब्रह्म में विलीन हो जाती है।आरोहण की विधि राजयोग है। राजयोग का अनन्त विज्ञान, सृष्टि के उत्पन्न होने के साथ ही, सृष्टि में अंतर्भूत रहा है। क्रिया प्राणायाम करने की राजयोग की एक विकसित विधि है।
क्रिया मस्तिष्क व मेरुदंड में सूक्ष्म प्राण ऊर्जा को सुद्रढ एवं पुनर्जीवित करती है। भारत के प्राचीन ऋषियों ने मस्तिष्क और मेरुदंड को जीवन के वृक्ष के रूप में निरूपित किया था। क्रिया के अभ्यास के परिणामस्वरूप अत्यंत शांति और आनंद प्राप्त होता है।
क्रिया से प्राप्त आनन्द, समस्त सुखदायक भौतिक संवेदनाओं के एकत्रित आनन्द से अधिक होता है। इन्द्रिय जगत् से अनासक्त हो, योगी आत्मा के नित्य-नवीन आनंद का अनुभव करता है। आत्मा एवं परमात्मा के दिव्य मिलन में लीन हो, वह अविनाशी आनंद प्राप्त करता है।
योगियों ने यह खोज निकाला था कि विशेष क्रियायोग की विधि के प्रयोग द्वारा प्राण ऊर्जा को निरंतर ऊपर और नीचे मेरुदंड के मार्ग से प्रवाहित करके, यह संभव है कि व्यक्ति का आध्यात्मिक विकास और चेतना बहुत अधिक तीव्र गति से किया जा सके।
प्रयोग का सही अभ्यास हृदय तथा फेफड़ों और तंत्रिका तंत्र की सामान्य गतिविधियों को स्वाभाविक रूप से धीमी गति में पहुंचा देता है जिससे शरीर और मन में आंतरिक शांति भर जाती है तथा जगत में होने वाली हलचल जो विचारों, भावनाओं और इंद्रियों के विषयों के ग्रहण करने से उत्पन्न होती हैं।
उन्हें शांत किया जा सकता है। स्थिर अंतःकरण की स्पष्ट अवस्था में, साधक को एक गहरी शांति का अनुभव होता है और वह स्वयं को अपनी आत्मा के और परमात्मा की चेतना के बहुत निकट अनुभव करता है।
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(चेतना विकास मिशन)