लालू प्रसाद और मुलायम सिंह यादव जैसे समाजवादी नेताओं के नेतृत्व में उन राज्यों में ओबीसी बड़े पैमाने पर संगठित हुए। फलस्वरूप वहां वे सत्ता में भी आए। परंतु बिहार और उत्तर प्रदेश की यह जागृति केवल राजनीतिक जागृति थी, वह सांस्कृतिक आंदोलन के अभाव में दूरगामी नहीं हो सकी। बता रहे हैं श्रावण देवरे
इन दिनों जातिगत जनगणना के मुद्दे पर कुछ राज्यों के नेता कुछ अधिक आक्रामक हो गए हैं तो कुछ राज्यों के नेता सक्रिय होते हुए दिख रहे हैं। हालांकि इससे पहले 2009 से 2011 के दरमियान संसद में भी इस मुद्दे पर गर्म बहसें हुई थीं, लेकिन वर्तमान में इस मुद्दे पर संसद को शांत किया जा चुका है। लेकिन यह भी देखा जा रहा है कि सच दबाने के लिए एक रास्ता बंद करने पर दस दरवाजे और खुलते जाते हैं। मसलन, बिहार में जातिगत जनगणना का मुद्दा जोर पकड़ रहा है। यह इसके बावजूद कि केंद्र व बिहार में सत्तासीन भाजपा कई बार खुलकर जातिगत जनगणना के मामले में खलनायक की भूमिका में नजर आयी है।
दरअसल, बिहार में भाजपा से तालमेल बिठाने के चक्कर में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अबतक जातिगत जनगणना के मुद्दे पर सुविधाजनक पहल ही किया है।। मतलब यह कि यदि किन्हीं कारणों से भाजपा उन्हें कहीं फंसा रही है तो उससे छुटकारा पाने के लिए भाजपा को काबू में रखना लाना जरूरी हो जाता है। ऐसे समय में भाजपा को नियंत्रण में रखने के लिए केवल राजनीतिक दांव-पेंच के रूप में नीतीश कुमार जातिगत जनगणना के मुद्दे का इस्तेमाल कर रहे थे।
इसके पहले एक बार केवल चुनावी जुमला के रूप में उन्होंने जातिगत जनगणना के मुद्दे का इस्तेमाल किया है। यह मुद्दा राजनीतिक कारणों से आरएसएस व भाजपा के लिए आत्मघाती मुद्दा है और वे इसका समर्थन नहीं करेंगे। नीतीश कुमार की बात की जाय तो वह संभवत: यह मानते हैं कि संघ–भाजपा के लोग उनकी सरकार गिरा देंगे, लेकिन जातिगत जनगणना नहीं होने देंगे। इसलिए नीतीश कुमार इस मुद्दे का राजनीतिक इस्तेमाल कर रहे थे। लेकिन विरोधी पक्ष के नेता तेजस्वी यादव द्वारा जातिगत जनगणना के लिए बिहार से दिल्ली तक संघर्ष का आह्वान सुनते ही नीतीश कुमार हड़बड़ा कर जाग उठे और उन्हें इस मुद्दे पर सक्रिय होना पड़ा। भाजपा कहीं उनकी सरकार न गिरा दे, इसलिए वे तेजस्वी यादव से नजदीकी भी साधने लगे। और अब भाजपा भी नाक पर हाथ रखकर जनगणना को समर्थन दे रही है।
वैसे यह पहले भी हुआ कि जब सामाजिक न्याय को माननेवाले नेता आक्रामक हुए तो संघ–भाजपा के ब्राह्मणवादी भी नाक हाथ से पकड़कर शरणागत होने को मजबूर हुए। परंतु पिछड़े वर्ग यानी ओबीसी वर्ग के नेताओं के बीच गोलबंदी और किसी मुद्दे पर आक्रामक होना बहुत कम देखा गया है। इस लिहाज से भी देखें तो यह बड़ी बात है।
ओबीसी के किसी भी सवाल को लेकर बिहार व तमिलनाडु के नेता जिस तरह सक्रिय होते हैं, उसी प्रकार महाराष्ट्र व अन्य राज्यों में क्यों नहीं होते? ओबीसी का राजनीतिक आरक्षण का सवाल हो या जातिगत जनगणना का, सामान्य तौर पर इनका उपयोग आरोप-प्रत्यारोप के लिए ही किया जाता रहा है। समाधान को लेकर चर्चा नहीं होती। ऐसा क्यों? तो इसका जवाब यह है कि उंगली जितनी टेढ़ी होगी, घी उतना ही अधिक निकलेगा। सियासत में मुफ्त कुछ भी नहीं मिलता। वैसे भी लोकतंत्र में चुनाव का महत्व है और चुनाव में वोट बैंक का। और वोट बैंक का सीधा संबंध संख्या व राजनीतिक जागृति से तय होता है। मसलन, उत्तर भारत के दो बड़े राज्य बिहार, उत्तर प्रदेश में मंडल आयोग की पृष्ठभूमि में ओबीसी वर्ग में बड़े स्तर पर जागृति आई। लालू प्रसाद और मुलायम सिंह यादव जैसे समाजवादी नेताओं के नेतृत्व में उन राज्यों में ओबीसी बड़े पैमाने पर संगठित हुए। फलस्वरूप वहां वे सत्ता में भी आए। परंतु बिहार और उत्तर प्रदेश की यह जागृति केवल राजनीतिक जागृति थी, वह सांस्कृतिक आंदोलन के अभाव में दूरगामी नहीं हो सकी। यह यथार्थ है कि केवल राजनीतिक जागृति से जाति आधारित भेदभाव वाली व्यवस्था को मात नहीं दिया जा सकता है। इस वर्चस्ववादी व्यवस्था ने प्रत्येक जातियों में ब्राह्मणी वर्चस्व का आधार कायम रखा और उसका फायदा भाजपा ने राममंदिर आंदोलन के द्वारा उठाया।
उधर लालू, मुलायम अपनी अपनी पार्टियों में अपने–अपने परिवार का वर्चस्व बढ़ाने में लगे रहे। यादव जाति की संख्या अधिक होने के कारण जीतकर आने वालों में यादवों की संख्या अधिक होती गई। विपक्षियों ने दुष्प्रचार भी किया कि इन दोनों की पार्टियां केवल यादव जाति की पार्टियां हैं। फलत: बहुसंख्यक ओबीसी जाति और अल्पसंख्यक ओबीसी जाति के बीच वैसा ही ध्रुवीकरण हुआ जैसे बसपा के मामले में जाटव और गैर जाटव दलितों के बीच हुआ। इस तरह के ध्रुवीकरण का फायदा भाजपा को मिला वह सत्ता में आ गई।
यह स्वीकार करना ही होगा कि द्विजों के सांस्कृतिक आंदोलन के कारण ही ब्राह्मणवाद अपराजेय हो गया है, इसलिए दलितों और ओबीसी पर अनेक अन्याय व अत्याचार होने के बावजूद उत्तर प्रदेश और बिहार में भाजपा सत्ता में काबिज रहती है। इस कारण भाजपा के लिए केंद्र में सत्ता पाना भी आसान हो जाता है। बिहार एवं उत्तर प्रदेश ओबीसी बहुल होने के कारण वहीं से भाजपा के लिए दिल्ली की सत्ता की राह भी आसान हो जाती है। और हम देखते हैं कि साढ़े तीन फीसदी ब्राह्मण बहुसंख्यकों पर भारी पड़ते हैं और लोकतांत्रिक मार्ग से सत्ता में बने रहते हैं।
प्राचीनकाल में जब लोकतंत्र नहीं था तब भी उन्होंने यज्ञ केन्द्रित सांस्कृतिक वर्चस्व स्थापित किया था, जिसके कारण वे वर्णव्यवस्था के नाम पर हमेशा सत्ता में बने रहे। बुद्ध को यज्ञ केंद्रित हिंसक-ब्राह्मणवादी संस्कृति के विरोध में एक तरह का युद्ध छेड़ना पड़ा। उस युद्ध में बुद्ध विजयी हुए और इसीलिए ब्राह्मणों को 1000 वर्षों तक सत्ता से दूर रहना पड़ा। फिर अंतिम मौर्य शासक वृहद्रथ की पुष्यमित्र शुंग द्वारा हत्या के बाद बौद्धों के जागृति के केंद्र जैसे बौद्ध विहार, बौद्ध विद्यापीठ आदि राजनैतिक प्रतिक्रांति करके नष्ट करने के बाद ही ब्राह्मणों की विजयी घुड़दौड़ शुरू हुई।
उनलोगों ने रामायण, महाभारत व पुराणकथाओं के माध्यम से जो सांस्कृतिक युद्ध छेड़ा, उसके द्वारा ही उन्होंने नई जाति व्यवस्था निर्माण करके अपनी ब्राह्मणी सत्ता को मजबूत किया। आज का सांस्कृतिक संघर्ष इन्हीं पुराणों और तथाकथित इतिहास के पन्नों पर लड़ा जा रहा है। इक्कीस बार बार पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन करनेवाला और मां की गर्दन उड़ाने वाला परशुराम उनकी ब्राह्मणी संस्कृति का पुरोधा है। शूद्र शंबूक की हत्या करनेवाल राम उनका आदर्श है। कर्ण को शूद्र पुत्र कहकर अपमानित करनेवाला कृष्ण उनकी ब्राह्मणी संस्कृति का तारणहार है। बलीराजा को पाताल में गाड़ने वाला वामन उनके लिए अवतार पुरुष है। उनके भगवान, आदर्श, अवतारों को उन्होंने सांस्कृतिक संघर्ष में विजयी घोषित किया और बलीराजा, शंबूक, कर्ण, रावण वगैरह अपने बहुजन योद्धाओं को पराजित के रूप में वर्णित किया, जिसके कारण हमारी मानसिकता ही पराजित मानसिकता बना दी गई।
इसीलिए हम संख्या में अधिक होने के बावजूद पराजित जीवन जी रहे हैं। ब्राह्मणी अन्याय–अत्याचार के विरोध में लड़ने का जज्बा ही हम गंवा बैठे हैं। अगर बहुसंख्यकों को जीतने का यह जज्बा वापस पाना है तो ब्राह्मण वर्गों द्वारा थोपे गए एकतरफा सांस्कृतिक युद्ध को लड़ना होगा। इसकी शुरुआत जोतीराव फुले व डॉ. आंबेडकर आदि पहले ही कर चुके हैं।
आप देखें कि तमिलनाडु की ओबीसी–जन जनता ने पेरियार के नेतृत्व में इसी प्रकार का “अब्राह्मणी सांस्कृतिक” संघर्ष किया, जिसके कारण वहां संघ–भाजपा–कांग्रेस जैसी ब्राह्मणी शक्तियां आज पराजित हैं और वहां के बहुजन सम्मानजनक विजयी जीवन जी रहे हैं।
बहुजनों को यह याद रखना होगा कि ब्राह्मण वर्गों के राज से मुक्ति का एकमात्र यही रास्ता है।