~ नीलम ज्योति
अंतरिक्ष विज्ञान और भौतिकी की अद्यतन खोजों के अनुसार ब्रह्मांड के सूक्ष्मतम और महत्तम में नियमबद्धता है। क्वांटम भौतिकी परमाणु में इलेक्ट्रॉन की तरंग-नुमा गतिशीलता तक पहुंच कर रुक गई है। यह वह बिन्दु है जहां निरीक्षक इलेक्ट्रॉन को जिस स्थिर स्थिति में देखता है, वह निरीक्षण का क्षण बीतते-बीतते बदल जाती है।
ब्रह्मांड की विशालता से रुबरू सापेक्षता के सिद्धांत ने समय और स्थान के आयामों को गड्डमड्ड कर दिया है क्योंकि दूरियाँ इतनी हैं कि प्रकाश की गति से तेज़ यात्रा करके हम प्रस्थान के समय से पहले गन्तव्य पर पहुंच सकते हैं।
स्टीफ़न हॉकिंग ने ब्रह्मांड और उसी के साथ समय तथा स्थान की शुरुआत बिग बैंग से प्रतिपादित कर जो निश्चितता लाने की कोशिश की थी वह अब तक बहु-ब्रह्मांड (muliverse) और अनेक बिग बैंग की संभावना से टकराकर संदेहास्पद हो गई है।
लेकिन हॉकिंग ने साफ़ कहा था कि जो भी है, नियमबद्ध है, किसी ऐसी सत्ता से संचालित नहीं है जिसे निर्णय लेने और नियम बदलने की छूट हो। इस नियमबद्धता को ही कोई ईश्वर का नाम देना चाहे तो कोई दिक़्क़त नहीं।
आइन्सटीन तो इस नियमबद्धता को ही ईश्वर का पर्याय तक बताने लगे। उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि वे न तो नास्तिक हैं, न धार्मिक विश्वास के अर्थ में आस्थावान। वे अपने को अज्ञेयवादी (agnostic) कहना ज़्यादा उचित समझते थे। उनका दृढ़ मत था कि ईश्वर का मनुष्य के जीवन-व्यापार से कोई लेना-देना नहीं।
न ही आइन्सटीन परलोक या पुनर्जन्म को मानते थे। वे काफ़ी हद तक ईश्वर सम्बंधी स्पोनोज़ा के विचारों से सहमत थे जिनके अनुसार ईश्वर समस्त प्राकृतिक और भौतिक नियमों का कुल योग है, जिसमें भौतिक पदार्थ और विचार दोनों समाहित हैं। किन्तु वह न तो एक व्यक्तिगत सत्ता है, न ही सृष्टि का कर्ता।
इधर पदार्थ के ऊपर चेतना की वरीयता मानने वाले कुछ ‘अध्यात्मवादी वैज्ञानिक’ मैदान में उतर पड़े हैं। उन्होंने यह संभावना व्यक्त कर दी है कि ब्रह्मांड वही है जो चेतना को भासित होता है। निरंतर गतिशील इलेक्ट्रॉन के एक जैसे सूक्ष्मतम ज्ञात कण के सर्वत्र व्याप्त होने से मात्र भौतिकी के सहारे ब्रह्मांड को ठीक-ठीक नहीं समझा जा सकता। भौतिकी और जीवविज्ञान या परामनोविज्ञान के संयुक्त प्रयास से ही अन्तिम सफलता मिल सकती है।
जो भी हो, एक ऐसे मानवीय ईश्वर के लिये फ़िलहाल कोई गुंजाइश नहीं जो स्वायत्त निर्णय लेकर ब्रह्मांड के नियमों को बदल सके। जो किसी से खुश होकर उसे पुरस्कृत और किसी से नाखुश होकर उसे दंडित कर सके।
भारतीय दर्शन में कपिल का निरीश्वर सांख्य उपरोक्त के बहुत निकट है। ईश्वर की सत्ता को विस्तृत और अकाट्य तर्कों से अस्वीकार करते हुए उन्होंने कहा कि ईश्वर की सत्ता मान लेने पर तो मनुष्य के संकल्प और प्रयास के लिये कोई स्थान ही नहीं रह जाता, वह ईश्वर का गुलाम बनकर रह जाता है। उन्होंने सृष्टि को स्वयंभू बताया जो त्रिगुणमयी किन्तु जड़ प्रकृति और चेतन पुरष के संयोग से और कार्य-कारण के नियम (सत्कार्यवाद) से बनती है और चलती है।
शंकर ने अपने अद्वैत वेदांत में कपिल के सत्कार्यवाद को स्वीकार कर लिया किन्तु उनके अनुसार प्रत्येक कार्य में कारण (घड़े में मिट्टी) मौजूद रहता है, इसलिए समस्त सृष्टि आदिकारण से आप्यायित है। वही सत्य है और परम चेतन है, शेष सब उसके विवर्त हैं जो नाशवान हैं। मनुष्य की उन्नत चेतना को जब उस आदि और एकमात्र कारण परमचेतना का साक्षात्कार हो जाता है, तब वह उससे एकाकार हो जाती है। उस अवस्था में नानात्व का भ्रम लुप्त हो जाता है और ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान का एकत्व स्थापित हो जाता है।
पतंजलि द्वारा निरूपित आत्मस्वरूप में स्थित होने का अष्टांग रोडमैप–यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि–उसी स्थिति में ले जाता है जिसे शंकर माया का निरसन या आत्मज्ञान या एकत्व-बोध कहते हैं।
अद्वैत वेदांत स्पिनोज़ा और आइंस्टीन के विचारों से बहुत दूर नहीं है।
खैर, आत्मज्ञान बहुत ऊँची चीज़ है, जिसे प्राप्त हो जाए वही उसका विवेचन करने का अधिकारी है। किन्तु पुरस्कार और दंड देनेवाला मानवीय ईश्वर और क़यामत, आखिरी फ़ैसला, स्वर्ग, नर्क, पुनर्जन्म की कल्पना तथा ऊंच-नीच की व्याख्या का दम भरनेवाले, भय तथा लोभ का व्यापार करनेवाले, नफ़रत और द्वेष फैलानेवाले ‘धर्म’, उनके एजेंट– बाबा लोग, मुल्ला-मौलवी, पोप-बिशप– दुनिया की अनेक समस्याओं की जड़ में हैं, जो निराधार हैं और परिहार्य हैं।विज्ञान और दर्शन दोनों ने इतना तो सिद्ध ही कर दिया है। (चेतना विकास मिशन).