अग्नि आलोक
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कानून,कानून और कानून?

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शशिकांत गुप्ते

हम इक्कीसवी सदी के बीस+तीन वर्षों में प्रवेश कर रहें हैं। यह बात हमें कैलेंडर से ज्ञात होती है।कैलेंडर बेचारा घर की किसी दीवार या खूंटी पर टँगा होता है।
दीवार या खूंटी पर टंगे कैलेंडर पर छपी तारीखें देखकर हम खुश होतें हैं कि, हम इक्कीसवीं सदी में पहुँच गएं हैं।
मतलब सिर्फ कागज पर ही इक्कीसवीं सदी में पहुँचे हैं।
वास्तव में हम कहाँ हैं? यह प्रश्न बहुत ही जटिल होता जा रहा है।
मानव सभ्यता का इतिहास बहुत पुराना है। सभ्यता सिर्फ इतिहास में लिखी हुई है।
हम अपने देश की संस्कृति, सभ्यता को बहुत आदर्शवादी सिर्फ मानतें हैं।
व्यवहार में हम पाश्च्यात जीवन पद्धति का अंधानुकरण करतें है।
पाश्च्यात जीवन पद्धति में संस्कार और संस्कृति भी है?
यह खोज का विषय भलेही हो लेकिन वहाँ के नागरिक स्थानीय कानून का पालन बखूबी करतें हैं।
हम संस्कार और संस्कृति की दुहाई तो जोर शोर से देतें हैं लेकिन अपने ही देश के कानूनों को धता बताने में गर्व का अनुभव करतें हैं।
एक ओर मौजूदा कानूनो का उलंघन करना मतलब अपने रसूख को प्रमाणित करना समझतें हैं।
दूसरी ओर बहुमत के दम्भ पर नित नए कानून बनाने की वकालत करतें हैं।
जिस पवित्र सदन में कानून बनाने की पहल की जाती है,उसी सदन में भ्रष्टाचार के आरोपी दलबदल कर दूध के धुले हो जातें हैं?
यह बहुत गम्भीर विचारणीय सवाल है?
कानून का उल्लंघन करने पर दी जाने वाली सज़ा की मियाद से ज्यादा कानून तोड़ने पर मुक्करर जुर्माना महत्वपूर्ण हो जाता है।
जुर्माने की रक़म पर कितनी वसूलना यह कानून का पालन करवाने वाले कर्मी और कानून तोडने में दक्ष लोगों के आपसी समन्वय पर निर्भर है।
जुर्माने की रक़म के अनुपात में अंदरखाने आपसी सूझबूझ से जुर्माने की रकम तय होती है?
इसे ऊपर ही ऊपर का खेल कहतें हैं। इस खेल में खग ही जाने खग की भाषा वाली कहावत चरितार्थ होती है।
फ़िल्म शोले का यह संवाद बहुत प्रचलित हुआ है हम नहीं सुधरे तो तुम क्या सुधरोगे?
देश की किसी भी भाषा में निर्मित देशी फिल्मों में कानून का धड़ल्ले से उलंघन कैसे करना और राजनीति का गैर कानूनी कार्यों में इस्तेमाल किस तरह करना यह आम बात है। मानो फिल्मों में उक्त असभ्यता का प्रशिक्षण दिया जाता है?
यदि सभी समस्याएं कानून से हल हो सकती है तो एक बहुत ही व्यवहारिक और अहम प्रश्न है?
क्या ट्रैफिक पॉइंट पर पुलिस कर्मियों को तैनात होना जरूरी है?
यह शर्म की या गर्व की बात है?

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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