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मीडिया सुधार के सिलसिले में एक सरोकारी पत्रकार की चिट्ठी

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(इस समय मीडिया की स्थिति को लेकर बहुत सारे लोग बेहद चिंतित हैं। और यह चिंता समाज के हर उस तबके में है जो न्याय, सत्य और सरोकार में विश्वास करता है। लेकिन इसकी सबसे ज्यादा पीड़ा सीधे इस पेशे से जुड़े लोग महसूस कर रहे हैं। खासकर पत्रकारों का वह हिस्सा जो जेहनी तौर पर न सिर्फ ईमानदार रहा है बल्कि अपने जीवन में पत्रकारिता के बुनियादी उसूलों को अपनी जिंदगी से भी ज्यादा तरजीह देता रहा है। लेकिन मौजूदा समय में वह न केवल ठगा महसूस कर रहा है बल्कि बिल्कुल अलग-थलग पड़ गया है। और अपने ही सामने एक दलाल मीडिया तंत्र के खड़े होने की स्थितियों से रूबरू है। इसको लेकर वह बेहद बेचैन है और उसकी यह बेचैनी अलग-अलग रूपों में सामने आ रही है। ऐसा नहीं है कि हाथ पर हाथ रख कर वह बैठा हुआ है। इन स्थितियों से निकलने और कोई विकल्प तलाश करने की माथापच्ची में भी वह लगा हुआ है। इसी नजरिये से कुछ विकल्पों पर पहले बहस किया जाए और उनमें से अगर कुछ पर सहमति बन सके तो उसको लेकर आगे बढ़ने के बारे में सोचा भी जा सकता है। इसी उद्देश्य के साथ एक वरिष्ठ पत्रकार ने एक प्रस्ताव पेश किया है। जिसे जनचौक प्रकाशित कर रहा है। अगर लोगों को लगता है कि इस बहस को आगे बढ़ायी जा सकती है या फिर इससे इतर कुछ और जरूरी चीजें जोड़ी जा सकती हैं या फिर उसके पास कोई दूसरा मौलिक सुझाव हो तो उसका स्वागत है। और जनचौक इसी तरह से पूरे सम्मान के साथ उसको प्रकाशित करेगा-संपादक)

मीडिया को नग्न हुए एक लंबा समय बीत चुका है। कुछ लोग कह सकते हैं कि यह पतन अर्णब गोस्वामी जैसों के कारण हुआ है और वे अर्णब बनाम रवीश कुमार की बहस में लोगों का वक्त बर्बाद कर सकते हैं। लेकिन इससे बात नहीं बनेगी। अर्णब या बाकी फ्री स्टाइल मीडिया दंगल के खिलाड़ियों पर चर्चा से बीमारी के कुछ ल़क्षण भले ही पहचान में आ जाएं, बीमारी की पहचान नहीं होती है। अदालत,  सीबीआई, चुनाव आयोग और बाकी तमाम संस्थाओें के पतन के पहले मीडिया का पतन हुआ है। इसकी वजह साफ है क्योंकि मीडिया को साधे बगैर इन संस्थाओं को पतन के रास्ते पर घसीटना संभव नहीं था। चोरी के लिए पहरेदार को मिलाना जरूरी होता है।

उसी तरह लोकतंत्र पर हमले के लिए मीडिया को अपने प़़क्ष में करना जरूरी था ताकि न्याय पाने के अधिकार की चोरी की ओर वह देखे ही नहीं। उदाहरण की कोई कमी नहीं है। सर्द रातों में आसमान के नीचे बैठे किसानों और लव जिहाद जैसे कानूनों के कवरेज ताजा मामले हैं।  वे दिन गए जब मीडिया की बांह मरोड़ने के किस्से किसी न किसी रूप में बाहर आ जाते थे। आर्थिक असुरक्षा ने पत्रकारों को इतना डरा दिया है कि वे दबावों की जानकारीं नहीं देते और दण्डवत मीडिया को सरकारी अधिकारी भी किसी घोटाले की खबर देकर अपने को जोखिम में नहीं डाल सकते।

क्या इस स्थिति को यूं ही स्वीकार कर लिया जाए और सोशल मीडिया या कुछ निर्भीक न्यूज वेबसाइटों पर अपनी बात रख कर संतोष कर लिया जाए? क्या पैसे और तकनीक की ताकत से मीडिया को झूठ परोसने तथा सरकारी प्रचार का माध्यम बनाने वालों को अपना काम करने के लिए खुला छोड़ दिया जाए और तंत्र को निरंकुश बनने दिया जाए? क्या कुछ व्यक्तियों की पत्रकारीय ईमानदारी के सहारे इतनी बड़ी चुनौती का मुकाबला किया जा सकता है?
गौर से देखने पर यही लगता है कि मीडिया को मौजूदा पतन से बाहर निकालने का एक ही रास्ता है। वह रास्ता व्यापक सुधारों का है। इनमें ज्यादातर मांगें लंबे समय से की जाती रही हैं। इनमें से  कुछेक यहां रख रहा हूं-

1. मीडिया में हर तरह का एकाधिकार खत्म हो। इसमें एक से अधिक माध्यमों पर कब्जे का एकाधिकार शामिल है।
2. कोई भी कंपनी या कंपनी-समूह एक से अधिक मीडिया कंपनी में अपने पैसे नहीं लगा सकती है।
3. मीडिया कंपनियों को दूसरे कारोबार चलाने से रोकने का विधान बने । सरकार से ठेके लेने और कई तरह के व्यापार में लगी कंपनियों को मीडिया से बाहर किया जाए। ठेका और सरकारी रियायतें पाने में लगी कम्पनियाँ सरकार  के दोष कैसे उजागर कर सकती हैं ?
4. वेतन बोर्ड की सिफरिशों को लागू किया जाए।
5. पत्रकारों  के वेतन की न्यूनतम और अधिकतम सीमा तय की जाए। किसी भी पत्रकार को वेतन बोर्ड की सिफारिशों से ज्यादा वेतन नहीं दिया जाए। इससे दलाली के बदले ज्यादा वेतन पाने वाली पत्रकारिता पर रोक लगेगी।
6. बार कौंसिल आफ इंडिया की तरह एक  वैधानिक संस्था का गठन किया जाए जो पत्रकारों की ओर से चुनी गई हो। यह निष्पक्ष पत्रकारिता के मानदंड सुनिश्चित करे। यह बार कौंसिल की तरह पूरी तरह स्वतंत्र हो।
7. उपरोक्त वैधानिक संस्था सरकारी तथा  गैर-सरकारी विज्ञापनों के मानदंड तय करे। सरकारी विज्ञापनों के वितरण को पारदर्शी बनाने के उपाय खोजे जाएं। सरकारी धन का उपयोग पार्टी या व्यक्तियों के प्रचार के लिए नहीं होना चाहिए।
8. स्वतंत्र वैधानिक कोष की स्थापना की जाए जो मीडिया संस्थानों की फंडिंग करे।

सधन्यवाद

एक सरोकारी पत्रकार।

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