कनक तिवारी
असाध्य, अनपेक्षित, लंबी बीमारी के बाद गुड़गांव स्थित शीर्ष अस्पताल मेदांता मेडिसिटी में भी पवन दीवान का बच पाना संभव नहीं हुआ। परिचितों और प्रशंसकों की अपशकुन की बाईं आंख फड़क भी रही थी। सबके मन में मंगलकामना दीपक की तरह ज्योतित रही मृत्यु उनकी जीवन रेखा को मिटाये नहीं। मौत अनदेखी, अनचाही, अनाहूत अनिवार्यता है। उससे बच पाना असंभव है। मृत्यु के पूर्णविराम के बाद व्यक्ति के जीवन का तत्काल मूल्यांकन शुरू होता है। छत्तीसगढ़ के लिए पवन दीवान संत, कवि, प्रखर वक्ता, आध्यात्मिक विषयों के प्रस्तोता, अनिच्छुक लेकिन महत्वपूर्ण राजनीतिज्ञ और सक्रिय जनकार्यकर्ता के रूप में अलग अलग चेहरों के बावजूद समावेशी व्यक्तित्व रखते थे। उन्होंने कांग्रेस और भाजपा दोनों पार्टियों में प्रतिभा के बल पर बड़े पद हासिल किए। उन्हें उससे बेहतर भूमिका इसलिए भी नहीं मिली कि दोनों पार्टियों के नेताओं की राजनीति का शिकार हो गए। राजनीतिक शोषकों ने उनके दिमाग और वाणी का इस्तेमाल इस तरह किया मानो वे बड़े नेताओं की राजनीति के कंधे हैं।
पवन दीवान के व्यक्तित्व से अन्य किसी महत्वपूर्ण छत्तीसगढ़ी व्यक्तित्व की तुलना करना मुमकिन और मुनासिब नहीं है। कुछ लोग अपनी ही विशेषताएं लिए अनोखेपन के साथ संसार में आते और चले जाते हैं। छत्तीसगढ़ के सामाजिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक, धार्मिक और राजनीतिक जीवन में पवन दीवान ने रह रहकर दस्तकें दीं। वे किसी एक विशेषज्ञता के साथ खुद को परिभाषित करते तो जीवन में सफलता, यश और स्थायित्व के नाम पर वे बेहतर स्थिति में हो सकते थे। फक्कड़, बेलौस, बिंदास, बेपरवाह और प्रसरणशील व्यक्तित्व में कुछ पाने की ताब नहीं होती थी। पवन दीवान ने जितना पाया उससे ज्यादा खोया। मसलन राजनीति में दोनों बड़ी पार्टियों कांग्रेस और भाजपा को अपनी प्रतिष्ठा के लिए उनकी जरूरत पड़ी। पवन दीवान ने सोचे समझे बगैर जनइच्छाओं के झंडाबरदार होने के कारण शीर्ष नेताओं के सभी प्रस्ताव स्वीकार किए यद्यपि उन निर्णयों से उनका नुकसान ज्यादा हुआ।
छत्तीसगढ़ का जनमानस पवन दीवान की याद में सश्रद्ध होकर संवेदनशील स्फुरणों से ओतप्रोत है। मेरा और उनका रिश्ता गुरु शिष्य का भी रहा है। विज्ञान महाविद्यालय रायपुर के छात्र के रूप में पवन दीवान की तरुण महत्वाकांक्षाओं से रूबरू होने का शिक्षक होने के नाते मुझे अवसर मिला। मेरे लिए पवन दीवान का निजी मूल्यांकन करना अलग तरह का रोमांचक आत्मीय अनुभव है। वह मुझे पूरी कक्षा से अलग नजर आया। मेरे पूछने पर उसने बताया कि संस्कृत और हिन्दी विषयों की समझ तो रखता है लेकिन साथ साथ अंगरेजी भाषा और साहित्य में भी पारंगतता चाहता है। संस्कृत के उपाधिधारी होने के बाद विज्ञान महाविद्यालय रायपुर में एम.ए. पूर्वार्द्ध में उनका दाखिला हुआ। सफेद पाजामा और आधी बांह की सफेद कमीज पहने बिना चप्पलों के एक छात्र को गैलरी वाली कक्षा की सबसे अंतिम और ऊंची सीट पर बैठे मैंने पहली बार देखा। उसकी आंखों में अंगरेजी में दिए जा रहे लेक्चर और अंगरेजी साहित्य की बानगियों के अनुरूप सचेतन ढल रही भाव भंगिमाओं को बूझने की विनोदप्रिय उत्सुकता साथ साथ झांक रही थी। मुझे उस छात्र ने आकर्षित किया। वह मुझे पूरी कक्षा से अलग नजर आया। मैं विज्ञान महाविद्यालय का प्राध्यापक होने के पहले महाविद्यालय छात्रसंघ का अध्यक्ष रह चुका था। छात्रों से मेरे निजी रिश्ते का समीकरण अन्य अध्यापकों से भिन्न था। मैं बहुत चपल, नटखट, शैतान और राजनीतिप्रिय विद्यार्थियों का मार्गदर्शक ज्यादा था। इसी अनौपचारिक पृष्ठभूमि में मैंने पवन दीवान से उसकी कठिनाइयों, जिज्ञासाओं और प्रतिप्रश्नों के सिलसिले में लगातार बातचीत की।
अंगरेजी भाषा और साहित्य पवन दीवान की समावेशी स्वीकार्यता के दायरे के बाहर उसे पीठ दिखाते थे। उसमें आत्मीय के बदले अन्यत्व का भाव शेक्सपियर, मिल्टन, स्पेन्सर जैसे महान कवि और लेखक लगातार उगा रहे थे। कक्षा के बाद बतियाते हुए वह उन सदियों पुरानी कविताओं को अपने रचनात्मक तथा पाठ्यक्रमित संदर्भ में बूझते हुए खीझने भी लगता। मैं सहानुभूति में कहता विदेशी साहित्य के आतंरिक मुहावरों और प्रेषणीयता से मेरा भी रिश्ता प्राकृतिक नहीं है। मैं अध्यापकी छोड़ दूंगा। पवन दीवान में कवि हृदय था। वह अंगरेजी कविता के मर्म का केवल भाषायी नहीं संवेदनात्मक रूपांतरण हिन्दी और संस्कृत कविता के जुमलों में आयामित करना चाहता था। वह कविता की संसूचना पर निर्भर नहीं होकर उसकी आंतरिकता का कायल होना चाहता था। छत्तीसगढ़ी मातृभाषा में उसके पास स्थानीय मुहावरों, लोकोक्तियों और किस्से कहानियों का बड़ा मानसिक संग्रह था। वह यूनानी आलोचना पद्धतियों और मिथक चरित्रों को भारतीय संदर्भ में स्थानांतरित कर अंगरेजी कविता की आलोचना में मौलिक होकर लिखने की असफल कोशिश करता।
मैं कविता के इलाके से अलग हटकर गद्य और आलोचना के पाठ्यक्रम का प्रभारी था। मैंने कई बार कोशिश की कि अपने छात्र की कठिनाइयों को हल करने के बहाने मैं कविता के आंतरिक रूपकों को उसी तरह विन्यस्त कर सकूं जैसे कोई रमणी श्रृंगार करने के नाम पर अपनी केश राशि को विन्यस्त करती है। वह मुझसे हो नहीं पाता था। पवन दीवान अपने गुरु की लाचारियों को समझकर स्मित हास्य में मुस्कराता रहता था। तब ठहाके लगाने के उसके जीवन का दौर नहीं आया था। एम.ए. पूर्वार्द्ध की परीक्षा में उसका परिणाम बहुत उत्साहवर्धक नहीं था। गुरु शिष्य का वार्तालाप फिर हुआ। उसके पास गृहनगर राजिम में बस जाने और संस्कृत भाषा तथा संस्कृति के प्रचार प्रसार की सार्थक और अर्थहीन योजनाएं थीं। अर्थहीन इसलिए कि उसके पास धन नहीं था। मैंने पवन से कहा कि अनिच्छुक रास्ते पर चलकर अपना जीवन सार्थक नहीं कर सकते। तुमने कांटों भरा रास्ता चुना है। वह तुम्हारे व्यक्तित्व को फूल की पांखुड़ियों जैसा खिला भी सकता है। यह एडवेंचर करो या नहीं। खतरा तुम्हें उठाना ही होगा। मैं तुम्हें अंगरेजी साहित्य का पाठ पढ़ा सकता हूं लेकिन जीवन का नहीं। मैं इस रास्ते पर चलने की प्रेरणा नहीं दे सकता। कोई रास्ता है तो जो दिखाई तो दे रहा है। पवन दीवान ने हिम्मत की। पवन दीवान ने अपनी सुदृढ़ हनु के साथ कहा कि सर यह काम तो मैं करके रहूंगा। आप मुझे आशीर्वाद दीजिए। सांसारिक उपलब्धियों को ठुकराकर धर्म संस्कति के रास्ते पर चलना मनुष्योचित जोखिमभरा और श्रेयस्कर लगा। इस व्यक्ति ने अपने जीवन को एक दुर्लभ बीजक बनाने के बजाय खुली किताब की तरह जनमानस का पाठ्यक्रम बना दिया। आज प्रशंसकों को लगता होगा कि वे उस किताब के एक एक पृष्ठ की तरह फड़फड़ा रहे हैं।
पवन दीवान को राजनीति के शोषकों ने बार बार गुमराह नहीं किया होता तो वे धरती पर और बड़ा काम करने ही आए थे। सत्तामूलक राजनीति मनुष्य की नैसर्गिक प्रतिभा का शोषण और क्षरण करती है। पवन दीवान भी इस साजिश का शिकार हुए। राजनेताओं और पार्टियों ने उनका अपने कंधों के रूप में भी इस्तेमाल किया। कुटिलता से परिचय नहीं होने के कारण पवन दीवान सियासी षड़यंत्र के हेतु को समझ भी नहीं पाते थे। यह अजीब है कि दो परस्पर विरोधी पार्टियों भाजपा और कांग्रेस को उनकी बार बार जरूरत महसूस होती थी। इस लिहाज से वे एकमेवो द्वितीयो नास्ति की तरह के अनिवार्य विकल्प बने रहे। पवन दीवान की सबसे लोकप्रिय सियासी कविता में इस बात की चेतावनी बिखेरी गई है कि यदि शोषण बदस्तूर कायम रहा तो छत्तीसगढ़ तेलंगाना बन सकता है। मैंने उलाहना देकर पूछा कि राजसत्ता तो अत्याचार बन्द नहीं करेगी। पवन दीवान ने तात्कालिक उत्तर दिया सर आप देखना छत्तीसगढ़ तेलंगाना बनकर रहेगा। बस्तर में पसरे घनीभूत नक्सलवाद और उससे जुड़े तब के आंध्रप्रदेश और अब तेलंगाना भी उस विभीषिका को झेल रहे हैं जो कवि की कविता की आशंका से बढ़कर भारत की भूगोल का सच हो गया है। कभी पवन दीवान ने जनता पार्टी की एक सभा में इन्दिरा जी को लेकर यह कटाक्ष भी किया था कि यदि तुम दुर्गा हो तो हमको क्या मुर्गा समझती हो। मैंने कभी मजाक में कहा था कि सन्यासी होकर मुर्गा शब्द के बदले गुर्गा भी तो कह सकते थे। एक ठहाका लगाकर उन्होंने कहा। सर आपने मुझे अंगरेजी साहित्य पढ़ाया। हिन्दी साहित्य पढ़ाते तो मैं शब्दों के चयन में आपसे सलाह लेता रहता।
अपनी ग्रामीण शैली में निखालिस छत्तीसगढ़ी बोलते हुए पवन दीवान में धार्मिक विषयों की अद्भुत मीमांसा करने का हुनर उनका अपना नैसर्गिक गुण था। दुर्ग के कथाकार परदेसीराम वर्मा को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि अपने बीसियों साहित्यिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में अन्य किसी अतिथि के मुकाबले पवन दीवान की उपस्थिति को रेखांकित करना उन्होंने मुनासिब समझा। सामाजिक जीवन वैसे ही तरह तरह के विषाद, विद्रूप और विसंगतियों से भरा होता है। पवन दीवान की उपस्थिति में हर व्यक्ति का जीवन स्पंदनशील हो उठता था। दूर दूर तक कोई दूसरा पवन दीवान छत्तीसगढ़ के जीवन को उस तरह जीवंत बनाता चले। इसकी फिलहाल तो संभावना क्षीण है। बाद के वर्षों में प्रसिद्ध संन्यासी, राजनीतिज्ञ, धार्मिक प्रवचनकर्ता और कवि साहित्यकार बनकर भी वह विनम्रता में मेरे चरण स्पर्श करता रहा। एक बार चुनाव के उम्मीदवार की उसकी जनसभा में मैंने भाषण दिया। तब भी उसने इसी मुद्रा में मेरे गुरु होने को महत्वपूर्ण बना दिया। उनके सफल, संघर्षमय, यशस्वी और कई बार विरोधाभासी होते जीवन पर टिप्पणियां करने का आज वक्त नहीं है। उस जीवन के निर्णयात्मक स्पन्दन पर अभिव्यक्तियों की बौछार होगी। मुझे भगवा वस्त्र धारण करने के पहले के पवन दीवान की कुछ कम सफेद पाजामे और आधी बांह की कमीज पहने अपने व्यक्तित्व को तराशने की जद्दोजहद का निहायत औसत छत्तीसगढ़िया युवक केवल याद नहीं आ रहा है। यादों में कील की तरह बिंधकर नहीं होने की टीस देता रहेगा।