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खिलाड़ियों और नेताओं की तरह साहित्यकार पर भी बायोपिक बननी चाहिए

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डॉ. सुधा कुमारी

हाल- फिलहाल समाचार में आया था कि प्रसिद्ध उपन्यासकार अमृता प्रीतम पर बायोपिक बन रही है। अमृता प्रीतम का नाम किसी भी हिंदी या पंजाबी भाषा पढ़नेवालों के लिए परिचय का मुहताज नहीं है। ‘रसीदी टिकट’, ‘पांच बरस लम्बी सड़क’, ‘तुम्हारी अमृता’ , पिंजर’ जैसी कालजयी रचनाएं लिखनेवाली अमृता पर फिल्म बनना गर्व की बात है। साहित्यकार पर फिल्म बनाना अपनी भाषा और संस्कृति का आदर करने का उत्तम तरीका है । यह लोगों को शिक्षित करने का भी जरिया हो सकता है। लेखक के विचार तो उसकी पुस्तकों से ज्ञात हो जाते हैं मगर उनके वास्तविक जीवन के संघर्ष और उनके व्यक्तित्व निर्माण के बारे में ऑडियो-विजुअल फिल्म से पता चल सकता है। इससे पहले तेलुगु में महाकवि कलिदासु, कन्नड़ में महाकवि कालिदास, मलयालम में आमी और तमिल में भारती बने थे। हिंदी में 2018 में भारतीय- पाकिस्तानी उर्दू लेखक सादात हसन मंटो, जो भारतीय- पाकिस्तानी दोनों की सरहदों पर एक जाना- माना नाम हुआ करते थे, के जीवन पर फ़िल्म बनी थी । और अब अमृता प्रीतम पर बन रही है। अगर इन अपवादों को छोड़ दें तो पाएंगे कि ऐतिहासिक, राजनीतिक, खेल- संबंधी और धार्मिक चरित्रों पर बायोपिक बनाना फिल्म जगत का पसंदीदा विषय रहा है किन्तु लेखक पर फिल्म इंडस्ट्री की मेहरबानी कम ही दिखती है। साहित्यकारों के खुद के जीवन पर डाक्यूमेंट्री फिल्मे ही हैं, बायोपिक बहुत कम हैं।

हाँ, कालजयी साहित्य पर काफी फिल्में और टेलीसीरीज बनी हैं । रामायण और महाभारत- दोनों टेलीसीरियल के रूप में तो खूब चले ही, उनपर बार- बार नए प्रयोग भी हुए । आर. के. नारायण के सफ़ल उपन्यास मालगुडी डेज़ पर टेलीविजन सीरीज़; रवीन्द्रनाथ टैगोर और शरतचंद्र के सफ़ल उपन्यासों पर ‘गुड्डी’, ‘देवदास’, ‘परिणीता’; कमलेश्वर के काली आंधी पर ‘आंधी’; भीष्म साहनी के तमस पर ‘अर्थ’; यशपाल के झूठा सच पर ‘खामोश पानी’; कृष्णा सोबती के जिंदगीनामा पर ‘ट्रेन टू पाकिस्तान’; अमृता प्रीतम के पिंजर पर ‘ग़दर: एक प्रेम कथा’ जैसी सफल और रोचक फ़िल्में बनी हैं। यहाँ तक कि रस्किन बॉन्ड के अंग्रेजी उपन्यास पर भी ‘सात खून माफ़’ बन चुकी है। मिर्ज़ा असद उल्लाह खान ग़ालिब के जीवन और कार्य पर 1976 में एक वृत्तचित्र(डाक्यूमेंट्री) बना था और 2011 में इसका दूसरा भाग । चाणक्य पर टेलीविजन सीरीज अवश्य बनी है मगर सच पूछें तो भारत के इतिहास में वे लेखक कम, एक कूटनीतिज्ञ और किंग – मेकर के रूप में अधिक जाने जाते है।

लेखकों पर फिल्म न बनने का एक बड़ा कारण यह है कि हम उनके कथा- पात्रों से तो अपने को जुड़ा हुआ पाते हैं मगर उनकी जीवनी में अधिक रुचि नहीं लेते। सिनेमा उद्योग को लेखक से नाटकीयता और भावुकता भरी कहानी में दिलचस्पी होती है, उनके जीवन में नहीं। आम आदमी मनोरंजन के लिए टिकट खरीदता है और ‘पैसा वसूल’ दृश्यों में दिलचस्पी रखता है। व्यावसायिकता और ग्लैमर की भूख के कारण नाटकीय, बाजारू और सस्ते दृश्य और गीत, हिंसा, मार- धाड़, जादू-टोना , डराने वाले महल और ऐयाशी वाले विषय से जनता और सिनेमा निर्माता- दोनों ही इत्तफाक रखते है । मगर लेखक के जीवन में ऐसे नाटकीय, स्वप्न- जगत के जैसे दृश्य शायद ही होते हों।

लेखकों पर फिल्म न बनने का दूसरा बड़ा कारण यह है कि फिल्मांकन में किसी साहित्यकार का न्यायपूर्ण चित्रण बहुत दायित्व का कार्य है। किसी भी भाषा का साहित्य उस देश का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक दर्पण और दस्तावेज होता है और साहित्यकार उसका प्रणेता। साहित्यकार या लेखक साधारण जनता की अपेक्षा अधिक कोमल ह्रदय, संवेदनशील और अभिव्यक्ति में कुशल होता है। वही एक फिल्म लेखक के रूप में पटकथा लिखता है- फिल्म या नाटक की। अब स्वयं साहित्यकार के जीवन पर फिल्म बनाने की अगर बात की जाए तो उसके जीवन की पटकथा लिखना भी एक महान और संवेदनशील लेखक के द्वारा ही संभव है।

कवि निराला ने कहा था-
दुख ही जीवन की कथा रही
क्या कहूँ आज जो नहीं कही।

यदि लेखक के मरणोपरांत उससे सहानुभूति दिखाने के बहाने उसके जीवन के दुखद प्रसंगों को सबके सामने चित्रित या उजागर किया जाय तो उसका असम्मान होगा। इसलिए साहित्यकार पर जब भी फिल्में बनें तो उसके व्यापक साहित्यिक और रचनात्मक योगदान को रेखांकित करने के लिए, उसके व्यक्तिगत जीवन की छोटी- मोटी और अनावश्यक बातों को तूल देने के लिए नहीं। फिल्म उसके सम्मान में बने, उसका तमाशा बनाने या फजीहत के लिए नहीं। फिल्म / डाक्यूमेंट्री विश्वसनीय और सत्य होते हुए कलात्मक और प्रेरणादायी भी हो, साहित्यकार के जीवन से प्रेरणा मिले और उसके साथ न्याय भी हो, ऐसी त्रिगुणात्मक पटकथा आवश्यक है। यह ध्यान रखना अनिवार्य है कि उसका जीवन – वृत्त व्यावसायिकता और ग्लैमर की भूख का शिकार न हो जाए।

लेखकों पर फिल्म न बनने का तीसरा कारण है- मानव स्वभाव उन कहानियों की मांग अधिक करता है जिनमें जनता को अपना हीरो दिखाई दे। इस वजह से खिलाड़ियों और नेताओं- यहाँ तक कि उद्योगपतियों पर सफल फ़िल्में या टेलीफिल्म बन चुकी हैं। इसके उदाहरण हैं- नेहरू, गाँधी, इंदिरा गाँधी, धीरुभाई अम्बानी, मिल्खा सिंह, महेंद्र सिंह धोनी, मैरी कॉम। ये सभी व्यक्ति एक महान व्यक्तित्व के रूप में जनता के दिलो- दिमाग पर कभी- न- कभी राज कर चुके हैं और उतार- चढ़ाव भरा संघर्षमय जीवन जी चुके हैं। इन पर फिल्म बनाने पर बॉक्स ऑफिस पर चलने की सम्भावना अच्छी थी।

इसके अलावा, विवादास्पद प्रसंगों में भी मानव मन को सहज कौतूहल होता है । इसीलिये मंटो के उतार- चढ़ाव से भरे विवादास्पद जीवन पर फ़िल्म बनी। अमृता प्रीतम पर फिल्म बनने से पहले ही समाचार पत्र और यू- ट्यूब पर उनके व्यक्तिगत जीवन से जुड़े अनेक किस्से सुर्खियाँ बटोरते नज़र आए। इससे साफ़ जाहिर होता है कि उनपर बन रही फिल्म का प्रयोजन सतही तौर पर उनका सम्मान हो सकता है पर असली मकसद उनके जीवन के विवादों और प्रेम प्रसंगों को बाक्स आफिस में भुनाने का ही दिखता है। अब तो अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत जिसके जीवन और मृत्यु- दोनों पर रहस्य और विवाद छाए रहे, के प्रेम प्रसंगों भरे जीवन पर भी फिल्म बन रही है।

शायद अंग्रेजी कवि शेली ने ठीक कहा था-
उदासी से भरे गीत हमें सबसे प्यारे लगते हैं।

लेखकों पर फिल्म न बनने का अगला कारण धन विनियोग से जुड़ा है। लेखक पर कमर्शियल फ़िल्म बनाने से लोग बचते हैं क्योंकि इसके लिए भारी बजट लगाना पड़ता है और इन फिल्मों की सफ़लता में संशय होता है । फ़िल्म व्यवसायिकता की दृष्टि से बनाई जाती है‌। हमारे यहाँ धीरूभाई और मेरी कॉम के रोल के लिए भी ग्लैमरस अभिनेता लिए जाते हैं ताकि फिल्में अच्छी कमाई कर सकें। मंटो की फिल्म के दर्शक भारत और पाकिस्तान- दोनों जगह से थे और कमाई की अच्छी सम्भावना थी।

वैसे तो कम बजट में भी कई कलात्मक फिल्में बनती और सफ़ल होती हुई देखी गयी है मगर बजट के लिहाज से अच्छी डाक्यूमेंट्री बन सकती है जिस पर लाभ या हानि न हो। मिर्ज़ा ग़ालिब पर बनी सफल डाक्यूमेंट्री की तरह प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद , नरेंद्र कोहली, महादेवी वर्मा, जयशंकर प्रसाद, हरिवंश राय बच्चन, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और सुमित्रा नंदन पंत जैसे महान व्यक्तित्व पर डाक्यूमेंट्री बन सकती है। टेलीसीरीज भी बन सकती है पर इसमें भी बड़े- बड़े कलाकारों की भीड़ जुटाना, नेटवर्क और ब्रोडकास्टिंग के निर्देशों का अनुपालन करना पड़ता है जो खर्चीला और असुविधाजनक हो सकता है।

कमर्शियल फ़िल्म, टेलीसीरीज या डाक्यूमेंट्री बनाने से बहुत बेहतर उपाय है- वेबसीरीज़ बनाना । वेबसीरीज़ में एक कैमरा, एक स्क्रिप्ट और उसे बोलने के लिए कुछ लोगों की आवश्यकता होती है जो पेशेवर अभिनेता नहीं होते । इसे यू-ट्यूब या अन्य वेबसाइट पर देखा जा सकता है। ईसा रे की सफल वेबसीरीज़ ‘ मिसएडवेंचर्स ऑफ़ ऑकवर्ड ब्लैकगर्ल’ यू-ट्यूब पर काफी सफल हुई थी और फिर एच.बी.ओ. ने उसे अनुरोध किया था टेलीसीरीज ‘इनसिक्योर’ बनाने के लिए।

सिनेमा स्वयं समाज की परिस्थितियों से जन्म लेता है मगर अपने प्रभावशाली प्रस्तुतीकरण के द्वारा वह आनेवाले समय में समाज की दशा और दिशा- दोनों को प्रभावित करता है। इसलिए आवश्यक है कि सिनेमा घटिया और फूहड़ विषय चुनने की बजाय एक शिक्षित, स्वस्थ और सुखी समाज के निर्माण को अपना विषय बनाए वरना सामाजिक सुधार और क़ानून का राज्य जैसी उच्च भावनाएं दिवा- स्वप्ना बन कर रह जाएंगी। आशा है, यह बात अमृता प्रीतम की जीवनी बनाने वाले निर्माताओं, सरकारी अकादमी तथा फिल्म इंस्टिट्यूट तक अवश्य पहुँचेगी। बात केवल इच्छाशक्ति की है।

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