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चेतन मन की सीमित और अचेतन मन की असीम शक्तियां

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डॉ. प्रिया

      (इस लेख में मदिरापान से उपलब्ध नशे की अवस्था के विशेष प्रभाव की चर्चा की गई है. इसका उद्देश्य मदिरापान की वकालत करना, उसे बढ़ावा देना नहीं है. इसका कुछ और ही गहरा उद्देश्य है। सो अन्यथा लेने की आवश्यकता नहीं है.)

      परामनोविज्ञान अचेतन मन की शक्ति का विज्ञान है। वह सिद्धियों अथवा चमत्कारों की तर्कयुक्त व्याख्या यही मानकर करता है कि मन की शक्ति पदार्थ की शक्ति से कहीं अधिक है और है–निस्सीम भी, जबकि पदार्थ की शक्ति अपने आप में ससीम है।

         परामनोविज्ञान का विश्वास है कि प्रत्येक व्यक्ति का मन रहस्यमयी शक्तियों का विपुल भण्डार है। हज़ारों वर्ष पूर्व योग और तंत्र-शास्त्र ने अपने गहन अनुभवों के आधार पर इस सत्य को स्वीकार लिया था एक स्वर में।

      वैदिक मन्त्र हो या हो तान्त्रिक या पौराणिक मन्त्र–सभी उसी अचेतन शक्ति को अभिव्यक्त करते हैं। सच पूछा जाए तो अचेतन की शक्तियों की अनुभूतियों के मार्ग में सबसे बड़ा बाधक है यही हमारा चेतन मन और यही कारण है कि साधारण मनुष्य को यह अनुभूति तभी होती है जब उसका चेतन मन निष्क्रिय रहता है, जैसे–स्वप्नावस्था में, मूर्च्छावस्था में या गहरे नशे की अवस्था में। कोई भी नशा हो–वह स्थूल शरीर से अधिक सूक्ष्म शरीर को प्रभावित करता है।

         सूक्ष्म शरीर न हो तो स्थूल शरीर का कोई महत्व नहीं। वह तो अस्थि, मज्जा, मांस आदि से निर्मित मात्र एक यन्त्र के समान है जिसे संचालित रखता है सूक्ष्म शरीर। इसी प्रकार सूक्ष्म शरीर को संचालित करता है मनोमय शरीर। मन का जितना अंश सूक्ष्म शरीर का भेदन कर स्थूल शरीर में प्रकट होता है, वही मन का चेतन रूप है, शेष अंश मन का अचेतन रूप है।

       यहां यह समझ लेना आवश्यक है कि अचेतन मन की जो अगाध शक्तियां हैं, वे वास्तव में आत्मा की स्व शक्तियां हैं। योगीगण प्राण शक्ति और आत्मशक्ति का विकास करते हैं और तन्त्र-साधकगण करते हैं विकास मनःशक्ति का–यही दोनों में अन्तर है। प्राणशक्ति का और आत्मशक्ति का क्रमिक विकास योगी का उद्देश्य है और मनःशक्ति का विकास है तान्त्रिक साधक का उद्देश्य।

      मनोमय शरीर के एक ओर आत्मशरीर है तो दूसरी ओर है सूक्ष्म शरीर। जैसे स्थूल शरीर में चेतन मन कार्य करता है, उसी प्रकार सूक्ष्म शरीर में कुछ अंश तक कार्य करता है अचेतन मन।

       यही कारण है कि सूक्ष्म शरीर अत्यधिक शक्तिशाली, अधिक गतिमान और तीनों कालों ( भूत, वर्तमान और भविष्य ) में प्रवेश करने में सक्षम होता है।

      शराब पीने से जो शारीरिक हानि जो होती है, वह अलग बात है, लेकिन उससे लाभ यह होता है कि शराब के प्रभाव से सूक्ष्म शरीर के चैतन्य और सक्रिय होने में मदद मिलती है और एक सीमा तक वह अचेतन से जुड़ जाता है। नशे की स्थिति में व्यक्ति के लिए स्थूल शरीर और स्थूल जगत कोई महत्व नहीं रखता।

        विस्मृत हो जाता वह उसके लिए। वह जो कार्य स्थूल शरीर से नहीं कर सकता, जो व्यवहार नहीं कर सकता और जो बोल नहीं सकता, वह सब उस स्थित में अपने सूक्ष्म शरीर द्वारा कर लिया करता है। वह अच्छे-से-अच्छा काम कर बैठता है और बुरे-से बुरा भी। उसके मुख से गाली भी निकलेगी और मधुरवाणी भी। हाथ से खून भी करेगा, गोली भी चलाएगा और आशीर्वाद भी देगा।

         वास्तव में मदिरापान किया हुआ व्यक्ति अपने भौतिक अस्तित्व को काफी सीमा तक विस्मृत कर बैठता है। योग-तान्त्रिक साधना-मार्ग में विस्मरण का अपना महत्व है क्योंकि विस्मरण की अवस्था में मनुष्य में अहंकार नहीं रह जाता मदिरा के नशे में। कहने का तात्पर्य यह है कि व्यक्ति को विस्मरण की अवस्था तो उपलब्ध होती ही है, उसके साथ-ही-साथ कुछ समय के लिए विस्मरण के प्रभाव में वह अहंकाररहित भी हो जाता है। मदिरा कुछ पलों के लिए मनुष्य के अहंकार को समाप्त कर देती है। (कुछ अपवाद छोड़ दिये जायें तो )जो मदिरा नहीं पीते हैं, उनमें अहंकार कूट-कूट का भरा होता है–ऐसा प्रायः ही देखने को मिलता है।

       मदिरा पान किये हुए व्यक्ति पर सहज विश्वास किया जा सकता है। वह कंजूस भी नहीं होता, कठोर भी नहीं होता क्योंकि नशे की हालत में वह अहंकाररहित और स्थूल शरीर के प्रति विस्मृत रहता है।

      (चेतना विकास मिशन)

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