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क्या सीमित सुधार मेहनतकशों के संगठित प्रतिरोध को रोक सकते हैं?

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स्वदेश कुमार सिन्हा

पिछले कुछ वर्षों से भारत सहित दुनिया के कई अन्य देशों में आम बजट लागू होने या इससे पहले भी ग़रीब तथा मध्यवर्ग को अनेक आकर्षक योजनाओं की‌ सौगात दी जा रही है, चाहे वह मध्यवर्ग को इंकमटैक्स में दी जा रही छूट हो या फ़िर ग़रीबों के लिए सस्ते राशन, सस्ते आवास या चिकित्सा सुविधा की बात हो। क्या यह कीन्सवादी कल्याणकारी राज्य के सिद्धांत की वापसी है? क्या इसका कुछ प्रभाव मेहनतकश आबादी पर पड़ेगा? क्या सरकारें नवउदारवादी नीतियों को कुछ हद तक बदलने को तैयार हैं? आज‌ इसका विश्लेषण करने की आवश्यकता है।

लगभग पिछले दो दशक से हमारे देश में आम लोगों के जीवन स्तर में सापेक्ष गिरावट देखी जा रही है और कोरोना के बाद से तो इसमें और भी तेज़ी देखने को मिली है। सरकार धीरे-धीरे ही सही पर लगातार मेहनतकश जनता के अधिकारों और गारंटी को घटा और सीमित कर रही है, न केवल ग़रीब और पिछड़े देशों में बल्कि पूरी दुनिया में ही यही हाल है। इस परिघटना के बारे में लिखते हुए उदारवादी अख़बार और पूंजीवादी अर्थशास्त्री एक ही रट लगाए हुए हैं, कि यह सब ‘सामाजिक न्याय’ या ‘कल्याणकारी राज्य’ के सिद्धांत के विरुद्ध है, परंतु यह आज की ज़रूरत है,जल्द ही हालात बेहतर होंगे, परंतु यह कल्याणकारी राज्य का सिद्धांत है क्या और कहां से आया? क्यूं पूरी दुनिया की सरकारें इसे ख़त्म करने पर तुली हुई हैं? और क्या यह पूंजीवाद द्वारा पैदा की जाने वाली ग़रीबी, बीमारी, भुखमरी, बेरोज़गारी इत्यादि को ख़त्म कर सकता है?

‘कल्याणकारी राज्य’ के सिद्धांत की उत्पति, विकास और तिलांजलि इतिहास गवाह है कि वर्ग समाज की उत्पति और समाज के विकास के दौरान, शोषकों और शोषित वर्गों के बीच लगातार संघर्ष रहा है। 19वीं शताब्दी के अंत में, मज़दूर वर्ग के नेतृत्व में जनता के बढ़ते ख़तरे को रोकने के उद्देश्य से पूंजीपति वर्ग की प्रतिक्रियाओं में से एक प्रतिक्रिया थी, तथाकथित ‘कल्याणकारी राज्य’ की अवधारणा। जर्मनी के मशहूर अर्थशास्त्री लोरेंजो वॉन स्टीन द्वारा प्रस्तुत इस शब्द का तात्पर्य ऐसे राज्य के निर्माण से था, जो नागरिकों के बीच ‘सामाजिक लाभ’ को निष्पक्ष रूप से वितरित करता और सामाजिक असमानताओं को कम करते हुए, ज़रूरतमंदों की मदद करते हुए सभी नागरिकों के लिए एक सभ्य गुणवत्ता वाला जीवन प्रदान करे। सीधा-सीधा कहा जाए तो, मुख्य रूप से इसका काम पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का राज्य विनियमन था, जो मुख्यतया बड़े व्यवसाय के नियंत्रण और ‘सही राजकोषीय नीति के सिद्धांत’ पर आधारित है। 20वीं शताब्दी के दौरान उन्नत पूंजीवादी देशों में ऐसे राज्य की अवधारणा का विकास हुआ।

1920 के दशक में संयुक्त राज्य अमेरिका ( यू.एस.ए.) ने ‘समृद्धि युग’ देखा, जिसमें एक छोटी- सी अवधि के लिए अभूतपूर्व पूंजीवादी आर्थिक विकास देखा गया। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद की वैश्विक स्थितियों ने संयुक्त राज्य अमेरिकी साम्राज्यवाद को बाज़ारों और ऋण के विस्तार के लिए अनुकूल संभावनाएं प्रदान कीं, अमेरिकी एकाधिकारियों ने अपने पूंजी स्टॉक को कुशलतापूर्वक नवीनीकृत करके और नए संयंत्रों और कारख़ानों का निर्माण करके इन अवसरों का ख़ूब लाभ उठाया। अन्य देशों में पूंजी के निर्यात ने संयुक्त राज्य अमेरिकी पूंजीवादी उद्यमों के विकास को प्रेरित किया, जिससे संयुक्त राज्य अमेरिकी औद्योगिक उत्पादन में उल्लेखनीय वृद्धि हुई।

परंतु पूंजीवादी व्यवस्था में उत्पादन के उच्च स्तर का कम मज़दूरी के साथ टकराव होता ही है। नतीजतन समाज के सबसे धनी और सबसे ग़रीब सदस्यों के बीच आर्थिक असमानता बढ़ती है और आम मेहनतकशों के बीच उधार लेने की दर में तेज़ी से बढ़ोतरी देखने को मिलती है और अमेरिका में भी यही हुआ। मुनाफ़े की दर का गिरना पूंजीवाद का अनर्निहित नियम है। इसी दशक के अंत में यू.एस.ए. में मुनाफ़े की दर में गिरावट के परिणामस्वरूप व्यवसायों और वित्तीय संस्थानों का दिवाला निकल गया, बेरोज़गारी बढ़ी और अंततः एक गंभीर आर्थिक संकट पैदा हुआ, जिसके कारण अमेरिका में उत्पादन और जीवन स्तर में गिरावट आई। और इस तरह पूंजीवादी आर्थिक समृद्धि ने अमेरिका में ‘महान अवसाद’ (महामंदी) को जन्म दिया। जनता की दरिद्रता और बढ़ते असंतोष और श्रमिक एवं साम्यवादी मज़दूर आंदोलनों के बढ़ने के कारण सरकार को तत्काल स्थिति को शांत करने के लिए झुकना पड़ा।

मज़दूर आंदोलन के दबाव के चलते तत्कालीन राष्ट्रपति फ़्रैंकलिन रूज़वेल्ट ने 1935 में एक सामाजिक सुरक्षा अधिनियम पर हस्ताक्षर किए, इस अधिनियम ने सेवानिवृत्त और बेरोज़गारों के लिए नक़द आर्थिक लाभ, एकमुश्त मृत्यु लाभ जैसे प्रावधान थे। चूंकि कई यूरोपीय देशों की अर्थव्यवस्थाएं यू.एस.ए. की अर्थव्यवस्था के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़ी हुई थीं, इसलिए 1930 के दशक के आर्थिक संकट के परिणामस्वरूप यूरोप में भी उत्पादन में तीव्र गिरावट, उद्यमों का दिवालिया होना,बेरोज़गारी में वृद्धि,बढ़ती क़ीमतें देखने को मिली।

महामंदी एक प्रणालीगत संकट था, जिसने यू.एस.ए. समेत यूरोपीय देशों में आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य को प्रभावित किया। यह कहना भी ग़लत नहीं होगा कि मंदी के दूरगामी प्रभावों ने दुनिया के लगभग हर देश को किसी न किसी तरह से प्रभावित किया। इस प्रकार कल्याणकारी राज्य के सिद्धांत के इस प्रयोग ने बाज़ार की ख़ुद को विनियमित करने की अक्षमता को उजागर किया। शास्त्रीय उदारवाद; जो अर्थव्यवस्था में राज्य के ग़ैर- हस्तक्षेप की वकालत करता था, उसे राजनीतिक क्षेत्र में झटका लगा। इस चरण की परिणति वैश्विक संकट और द्वितीय विश्व युद्ध की शुरुआत के रूप में हुई।

दूसरे विश्वयुद्ध में पश्चिमी यूरोपीय देशों ने भारी भौतिक नुक़सान उठाया, जिससे औद्योगिक और कृषि उत्पादन में गिरावट आई। इन देशों के सामाजिक और आर्थिक स्तरों की बहाली यू.एस.ए. के नेतृत्व में योजनाबद्ध ढंग से की गई। यूरोप का पुनर्निर्माण ‘मार्शल योजना’ के तहत शुरू हुआ। यह योजना यू.एस.ए. की वह नीति थी, जिसने यूरोपीय देशों को व्यापक आर्थिक सहायता प्रदान की। मार्शल योजना के कार्यान्वयन ने यूरोपीय देशों की अमेरिका पर निर्भरता बढ़ाई। इस बात को भी याद रखना चाहिए कि इसी योजना ने राजनीतिक क्षेत्र से कम्युनिस्ट पार्टी के प्रतिनिधियों को हटाने में भी मदद की, सरकारों और सरकारी नीतियों से कम्युनिस्टों को निष्कासित करने की शर्त पर ही इन देशों को यू.एस.ए. द्वारा सहायता प्रदान की गई थी।

दूसरी ओर यह पुनर्निर्माण घरेलू सामाजिक नीतियों द्वारा संचालित किया गया, जिन्हें मुख्यतः सामाजिक जनवादी दलों द्वारा लागू किया गया, कुछ देशों में तो कम्युनिस्ट पार्टियों ने इसे लागू करवाया। इस नीति के तहत मुख्य ज़ोर बाज़ार पर राज्य के नियंत्रण के विस्तार और सांकेतिक नियोजन के अभ्यास पर था। उदाहरण के तौर पर बैंक, कोयला, लोहा और इस्पात उद्योग, संचार, गैस और बिजली का राष्ट्रीयकरण किया गया। जनता को मुफ़्त स्वास्थ्य सेवा देना भी इसी के तहत किया गया। श्रम क़ानून और सामाजिक सुरक्षा में महत्वपूर्ण परिवर्तन लागू किए गए।

इन परिवर्तनों में शामिल थे ; 40 घंटे के कार्य सप्ताह की बहाली कुछ जगह तो 35 घंटे, उच्च ओवरटाइम वेतन की शुरुआत, मज़दूरों के लिए दो सप्ताह की सवेतन छुट्टी और कर्मचारियों के लिए तीन सप्ताह की छुट्टियां। राज्य बीमा प्रणाली लागू की गई, मज़दूरी बढ़ाई गई और पेंशन तथा परिवार भत्ते लगभग दोगुने हो गए। वे 65 वर्ष की आयु से वृद्धावस्था पेंशन के लिए पात्र थे। इसके अतिरिक्त, बेरोज़गारी लाभ, बीमारी लाभ और गर्भावस्था, प्रसव और बाल सहायता लाभ स्थापित किए गए। यहां तक कि कुछ देशों में तो सभी नागरिकों को काम करने का अधिकार तक दिया गया।

अमेरिका में दूसरे विश्व युद्ध के बाद की आर्थिक तेज़ी का श्रेय उसके व्यापक पूंजी के निर्यात, अन्य देशों के बाज़ारों पर क़ब्ज़ा, युद्ध तथा धन के सुगम अंतर्वाह को जाता है,हालांकि यह भी नहीं भूलना चाहिए कि यही वो दौर भी था, जब इन देशों में मज़दूरों की बढ़ी-बढ़ी हड़तालें देखी गईं, परंतु पूंजीवाद में इस तरह की ‘ख़ुशहाली का दौर’ हमेशा नहीं रहता, इसकी तुलना में वह और बढ़ा संकट पैदा करता है। 1960 के दशक के अंत में पूंजीवादी अर्थव्यवथा में मुनाफ़े की दर के गिरने की शुरुआत हुई। एक ओर जहां अर्थव्यवस्था सिकुड़ने लगी, तो दूसरी तरफ़ बेरोज़गारी और उपभोक्ता वस्तुओं की क़ीमतें बढ़ गईं। परिणामस्वरूप ट्रेड यूनियन आंदोलनों ने ज़ोर पकड़ा। 1971 में आर्थिक मंदी ‘एक अवसाद’ में बदल गई, जो 1973-75 के ‘वैश्विक कच्चे माल संकट (तेल झटका)’ से और बढ़ गई, जिसके परिणामस्वरूप अमेरिकी उत्पादन में 12% से भी अधिक की गिरावट देखने को मिली। इसके फलस्वरूप सरकारों ने सामाजिक व्यय में कटौती की।

तेल और गैस की क़ीमतों की अधिकतम सीमा समाप्त कर दी गई और इस अवधि के दौरान मेहनतकश जनता के जीवन स्तर में तेज़ी से गिरावट आई,हालांकि मज़दूरों ने आसानी से इन कटौतियों को स्वीकार नहीं किया, और आंदोलन और हड़तालों से अपनी असहमति ज़ाहिर की, ऐसी परिस्थितियों में सरकार को विरोध की लहर को कम करने के लिए कई सामाजिक कार्यक्रमों को बहाल करना पड़ा, परंतु ट्रेड यूनियनों की समझौता-परस्ती और सरकार के ट्रेड यूनियन को ख़त्म करने और कमज़ोर करने की नीति ने यू.एस.ए. में तो लगभग सभी उद्योगों में ट्रेड यूनियन में मज़दूरों की सदस्यता लगभग आधी हो गई। इस दौर से ही सभी सरकारें मज़दूरों द्वारा जीती गई कल्याणकारी योजनाओं को धीरे-धीरे ख़त्म करने में लगी हुई हैं।

80 के दशक के बाद से दुनिया-भर में क्रांतिकारी कम्युनिस्ट पार्टियों के प्रभाव में गिरावट और अलग-अलग देशों के पूंजीपति वर्ग द्वारा मज़दूर आंदोलनों को दबाने-कुचलने की नीति ने भी जनता के अधिकार छीने जाने में अहम योगदान दिया है। यह वही समय था, जब रीगन और थैचर जैसे लोग सरकारें चला रहे थे, परंतु 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट; जो ‘अमेरिकी बंधक बाज़ार’ के पतन से शुरू हुआ था, ने इस परिघटना को तेज़ किया है, जिसके कारण उत्पादन में भारी गिरावट और बेरोज़गारी में वृद्धि हुई।

2008 के बाद से दुनिया-भर में सार्वजनिक ऋण और बेरोज़गारी में वृद्धि देखने को मिली है। भारत भी इस से अछूता नहीं है, लगातार सरकारी शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं में किए जाने वाले ख़र्च में कमी की जा रही है, मज़दूरों के अधिकारों को समाप्त किया जा रहा है, सार्वजनिक वितरण प्रणाली को कमज़ोर करते हुए इसे भी तिलांजलि देने की तैयारी है। पक्के रोज़गारों को ख़त्म करते हुए ठेके पर भर्ती की जा रही है, पेंशन समाप्त कर दी गई है, यहां तक कि सेना के सिपाहियों की पेंशन भी अग्निपथ योजना द्वारा ख़त्म की गई है। भारत में सामाजिक व्यय में 40% की गिरावट आई (2014-15 की तुलना में) है।

दुनिया-भर में मुनाफ़े की गिरती दर को रोकने के हुक्मरानों के क़दम मुख्य रूप से मेहनतकश वर्ग के जीवन को प्रभावित करते है। अपर्याप्त वित्तीय सुरक्षा और उच्च ऋण के कारण वे आर्थिक उथल-पुथल के प्रभावों से सबसे अधिक पीड़ित हैं। ऐसे समय में बुर्जुआ सरकारें करों में वृद्धि कर रही हैं और सामाजिक अधिकारों और गारंटी को कम कर रही हैं और मज़दूर आंदोलन को और कमज़ोर करने पर पूरा ज़ोर लगा रही हैं। यह सब पूंजीवाद में ‘एक निश्चित स्तर की स्थिरता’ को बनाए रखने के लिए किया जा रहा है। इस पूरे घटनाक्रम ने एक बात को साबित कर दिया है, कि सरकारें दशकों के संघर्ष से प्राप्त अधिकार और गारंटी बड़ी पूंजी के हितों को बचाने के लिए ख़त्म करने से नहीं कतराती। काम के घंटे बढ़ाना, बाल श्रम को वैध बनाना, सेवानिवृत्ति की आयु बढ़ाना, सामाजिक ख़र्च को कम करने और वेतन को कम करने वाले क़ानून सीधे या सूक्ष्म रूप से लागू किए जा रहे हैं।

आज अंतरसाम्राज्यवादी प्रतिस्पर्धा फिर से तीखी हो गई है। यूक्रेन और मध्यपूर्व में यह प्रतिस्पर्धा युद्ध का रूप ले चुकी है। साम्राज्यवादी युद्धों की तैयारी में लगे हुए हैं। ऐसी तैयारी में न केवल सैन्य बल्कि तकनीकी और आर्थिक तैयारियां भी शामिल होती हैं। इसके साथ ही जनता का बढ़ता उत्पीड़न और उनके अधिकारों-स्वतंत्रताओं पर प्रतिबंध भी शामिल हैं ,जिसे ‘राष्ट्रीय एकता’ की रक्षा के नारे और झंडे के तहत पूरा किया जा रहा है। पूंजीवादी प्रचार तंत्र जनता के दिमाग़ से वर्ग विभाजन और वर्ग संघर्ष की अवधारणा को मिटाने का पूरा प्रयास कर रहा है। लोक-लुभावने भाषण और मनोरंजन द्वारा मज़दूरों और अमीर ‘अभिजात्य वर्ग के बीच एकजुटता’ का दिखावा करने का प्रयास किया जा रहा है, हालांकि वास्तव में उनके बीच कोई साझा हित है ही नहीं, क्योंकि उनके हित आर्थिक रूप से सीधे एक-दूसरे के विरोधी हैं।

सामाजिक कल्याण की बयानबाज़ी का इस्तेमाल करके ‘मानवीय चेहरे के साथ पूंजीवाद’ को बढ़ावा देने के बावज़ूद पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के ढांचे के कारण उनके प्रयास असफल ही रहे हैं। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की संरचनात्मक नियमितताओं में ऐसे विरोधाभास होते हैं, जो इसके ढांचे के भीतर अघुलनशील होते हैं। जैसे उत्पादन की सार्वजनिक प्रकृति लेकिन पैदा होने वाले उत्पादों के विनियोग की निजी प्रकृति के बीच विरोधाभास, हालांकि यह बात सच है कि उत्पादन के साधनों के निजी स्वामित्व पर आधारित पूंजीवाद ने वैश्विक उत्पादन और आर्थिक संबंधों के माध्यम से राष्ट्रों और व्यक्तियों को जोड़ते हुए उत्पादन क्षमताओं को एक महत्वपूर्ण मुकाम तक पहुंचाया है। परंतु अपने विकास को निर्देशित करने वाली अंतर्निहित प्रवृत्तियों के कारण, पूंजीवाद जनता की आवश्यकताओं को सफलता से पूरा करने में असमर्थ है, यहां तक कि सामाजिक समानता को प्राथमिकता देने वाली नीतियों के साथ भी। मेहनतकश जनता के हित अमीर अल्पसंख्यकों के हितों से हमेशा जुदा ही रहते हैं, ये विरोधाभास वर्ग संघर्ष को बढ़ावा देते हैं।

20वीं सदी के अंत और 21वीं सदी के प्रारंभ के ऐतिहासिक विश्लेषण कुछ महत्वपूर्ण बातें बताते हैं; पहला यह ‘कल्याण राज्य’ मॉडल विश्व क्रांतिकारी आंदोलन के उदय और समाजवादी राज्यों के सफल परिवर्तन के कारण पूंजीवाद की एक अस्थायी रियायत थी और यह रियायत भी विश्व के सबसे ग़रीब देशों के अत्यधिक आर्थिक, वाणिज्यिक और श्रम शोषण के माध्यम से दी गई। दूसरा यह कि सामाजिक न्याय या कल्याण पूंजीवाद के विरोधाभासों को ख़त्म नहीं करते, बल्कि उन्हें अस्थायी रूप से कम करते हैं। यह विश्लेषण यह साबित करता है कि यह उम्मीद करना निरर्थक है, कि पूंजीवाद को शांतिपूर्ण सुधार और ‘सामाजिक न्याय’ व ‘कल्याणकारी राज्य’ में बदला जा सकता है।

वास्तव में बढ़ती हुई बेरोज़गारी और आर्थिक संकट के कारण दुनिया भर में व्यापक पैमाने पर असंतोष उभर रहा है, इसकी अभिव्यक्ति हमें विकसित और विकासशील सभी देशों में देखने को मिल रही है। कल्याणकारी राज्य‌ की वापसी का नारा वास्तव में इन्हीं अंतर्विरोधों को धूमिल करने के लिए दिया जा रहा है। आज की दुनिया में कुछ सीमित सुधार मेहनतकशों की दशा को न तो बदल सकते हैं और न ही उनके संगठित प्रतिरोध को रोक सकते हैं।

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