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हिंदी में साहित्यिक पत्रिकाएं

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शैलेन्द्र चौहान

हिंदी में सैकड़ों की संख्‍या में साहित्यिक पत्रिकाएं निकलती हैं। संभव है हजार से भी ऊपर हों। प्रिंट और वेब दोनों को समेट लेंगे तो हजार से ज्यादा हो ही जायेंगी। इन पत्रिकाओं का साहित्य के प्रचार-प्रसार में योगदान अवश्य होगा, ऐसा माना जा सकता है।

यदि स्तर, गुणवत्ता और मूल्यबोध को दरकिनार कर दें तो भी गंभीर और सकारात्मक साहित्यिक प्रयास किस मात्रा में हो रहे हैं। यह जानकर हम शायद कुछ चिंतित हों, या न भी हों लेकिन अपने आप में यह तो समझ ही सकते हैं कि इन उद्यमों का हिंदी के पाठकवृंद में क्या प्रभाव है और प्रभावी प्रयास कौन से हैं? यह समझ सब्जेक्टिव हो सकती है। इससे इनकार नहीं किया जा सकता।

अब यदि हम यह फर्क करें कि अच्छी पत्रिकाएं कितनी हैं और सामान्य स्तर की कितनी हैं, तो शायद हम दस-पंद्रह से ज्यादा नाम नहीं गिना पायेंगे। कुछ लोग पांच-सात पर ही सिमट कर रह जाएंगे। गैरव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिकाओं का दायरा इतना सीमित है कि प्रति पाठक (पाठकों की संख्या आप निर्धारित कर लें) पांच-सात पत्रिकाओं से अधिक उनकी पहुंच नहीं है। हालांकि मैं अपनी समझ से कम से कम दस प्रतिशत यानि एक सैकड़ा पत्रिकाओं को अच्छी और स्तरीय पत्रिकाओं की सूची में समाहित करता हूं। यद्दपि मैने कोई ऐसी सूची बनाई नहीं है, हां मेरे पास ऐसी पंद्रह-बीस पत्रिकाएं अवश्य आती हैं।

अब यहां प्रश्न यह कि स्तरीय मानने का पैमाना क्या हो। तो मैं इसे संपादकीय समझ (विवेक), दृष्टि, सोच और उसकी विश्लेषणपरकता तथा आलोचनात्मक समझ की प्रतिभा से जोड़कर देखना चाहूंगा। मूल्यबोध और सौंदर्यबोध अतिरिक्त गुण हो सकते हैं। अच्छी और प्रभावी रचनाओं का चयन संपादक की पसंद पर निर्भर करता है। तो शताधिक ऐसे योग्य संपादक हिंदी साहित्यिक समाज में मौजूद हैं। ऐसा मैं मानता हूं, लेकिन वास्तविकता यह है कि उनकी प्रतिभा का पूरा उपयोग इसलिए नहीं हो पाता, क्योंकि साहित्यिक पत्रिकाओं के प्रकाशन की कठिनाइयां और सीमाएं दोनों हैं।

पहली सबसे बड़ी समस्या आर्थिक संसाधनों के प्रबंध की होती है, तो सौ प्रबुद्ध संपादकों में से अस्सी यहां समझौते कर लेते हैं। सरकारी सहयोग, सांस्थानिक सहयोग, व्यवसायिक और  व्यापारिक सहयोग तथा संपन्न लेखकों का सहयोग प्रमुखत: लिया जाता है। कुछ मित्रतावश भी सहयोग होता है, जो अल्प ही होता है। स्पष्ट है जिससे आप सहयोग लेंगें, उसके उद्देश्य और नीतियों का कुछ लिहाज तो करेंगे। समझौता करेंगे तो लचीला और लिबरल होना पड़ेगा। सबको साधकर चलना होगा। भर्ती की औसत दर्जे की रचनाएं समाहित करनी होंगी। ये उस विरासत को ढो रही हैं जो अतीत में पूंजीपतियों द्वारा निकाली जानेवाली व्यवसायिक पत्रिकाओं से ग्रहण की है। 

जिन्हें हिंदी साहित्य की अच्छी पत्रिकाएं माना जाता है और जो नियमित निकलती हैं। उनकी यही स्थिति है लेकिन उन्हें इसके लिए धन तो चाहिए ही। अब वे वह धन कहां से जुटाते हैं, यह समझना मुश्‍किल नहीं है। विज्ञापन सबसे बड़ा स्रोत है फिर सांस्थानिक सहयोग। कुछ सरकारी, अर्धसरकारी, स्वायत्त और निजी संस्थान सहयोग करते हैं। विज्ञापनों के लिए लायजनिंग करनी होती है। अधिकारियों, नेताओं, उद्दमियों से तार जोड़ने होते हैं। जब यह प्रबंध हो जाता है तो सत्तर प्रतिशत लेखन इन सहयोगियों के प्रभाव के अंतर्गत होता है। जिनके माध्यम से सहयोग लिया गया, वे स्वयं और उनके परिचित लेखक। जिनसे आर्थिक सहयोग लिया गया, उनके परिचित लेखक और जो स्वयं समर्थ हैं।

ऐसे लेखक इन पत्रिकाओं का सत्तर प्रतिशत स्पेस घेर लेते हैं। बचे तीस प्रतिशत तो दस-पंद्रह प्रतिशत चाटुकार और यूनिवर्सिटी, कॉलेज तथा अन्य संस्थाओं के लेखक तथा उनके द्वारा रिकमंडेड रचनाकार शामिल होते हैं (परस्पर लेनदेन)। बाकी दस पंद्रह प्रतिशत अपनी प्रतिभा के दम पर छपते हैं। प्रतिद्वंद्विता अत्यधिक होती है और जगह कम तो अवसर कम लोगों को ही मिलता है। आप लाईन में लगे रहिए।

इन पत्रिकाओं में से दस प्रतिशत यानि कुल संख्या की मात्र एक प्रतिशत, जो किसी तरह व्यक्तिगत संसाधनों से निकलती हैं, विवेक, प्रतिभा, मूल्यबोध और सौंदर्यबोध का ध्यान रखकर स्तर बनाए रखने में सफल होती हैं, अर्थाभाव के कारण इनका दायरा सीमित होता है। सर्वसमावेश न होने से  गंभीर रचनाएं लिखवाने में समय लगता है। ये नियत समय पर नहीं निकल पातीं, लेकिन अपना दायित्व निर्वाह कर अपना प्रभाव छोड़ जाती हैं। अतीत में ऐसे अनेक उदाहरण प्राप्त होते हैं। 1935 से 1990 तक अनेक पत्रिकाएं इस तरह निकलती रही हैं। भारतेंदु युग से द्विवेदी युग तक ऐसे उद्यम नींव का पत्थर रहे हैं। उनका जज़्बा ही और था।

बाकी नब्बे प्रतिशत साहित्यिक पत्रिकाओं में दसेक प्रतिशत ठीक-ठाक, कुछ औसत दर्जे की, शेष पचास प्रतिशत से अधिक समय गुजारने के लिए होती हैं। (मैं भी संपादक हूं यह भाव निहित होता है)।

यह नितांत मेरी अपनी निजी समझ है। संभव है आपका अनुभव कुछ अलग हो।

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