जनसाहित्य पका लें, खा लें
चलो बन्धु लिटफेस्ट मना लें
मौसम आम चुनावों का है
सौदे हैं, बाज़ार खुला है
कब विरोध से पेट पला है
सत्ता के तलवे सहला लें
आ साथिन लिटफेस्ट मना लें
अब बदलाव बहुत मुश्किल है
अगर-मगर, दांता किलकिल है
जिधर ऐश है, अपना दिल है
आ सरकारी सुर में गा लें
चलो बन्धु लिटफेस्ट मना लें
प्रतिबद्धता पिलपिली हो गयी
वैचारिकता मसनद पर सो गयी
प्रेमचन्द की थाती खो गयी
मुक्तिबोध से आज विदा लें
चलो बन्धु लिटफेस्ट मना लें
नव-बाज़ार बहुत अपना है
सौ चूहों का लंच बना है
जगमग शोभा है, सज्जा है
चल थोड़ा चेहरा चमका लें
आ साथी लिटफेस्ट मना लें
-राजेश चन्द्र,