सुधा सिंह
सुख में जीना, सुख माँगना मत। जो भी हो, उसमें खोज करना कि सुख कहाँ मिल सकता है, कैसे मिल सकता है। तब एक रूखी सूखी रोटी भी सुख दे सकती है, अगर तुम्हें लेने का पता है। तब साधारण सा जल भी गहरी तृप्ति बन सकता है, अगर तुम्हें सुख लेने का पता है।
तब एक वृक्ष की साधारण छाया भी महलों को मात कर सकती है, अगर तुम्हें सुख लेने का पता है।
तब पक्षियों के सुबह के गीत, या सुबह सूरज का उगना, या रात आकाश में तारों का फैल जाना, या हवा का एक झोंका भी गहन सुख की वर्षा कर सकता है, अगर तुम्हें सुख लेने का पता है। सुख माँगना मत और सुख में जीना। माँगा कि तुमने दुख में जीना शुरू कर दिया।
अपने चारों तरफ तलाश करना कि सुख कहाँ है? सुख है। और कितना मैं पी सकूँ कि एक भी क्षण व्यर्थ न चला जाए, और एक भी क्षण रिक्त न चला जाए, निचोड़ लूँ। जहाँ से भी, जैसा भी सुख मिल सके, उसे निचोड़ लूँ।
तो तुम जब पानी पीयो, जब तुम भोजन करो, जब तुम राह पर चलो, या बैठ कर वृक्ष के नीचे सिर्फ साँस लो, तब भी सुख में जीना। सुख को जीने की कला बनाना, वासना की माँग नहीं।
इतना सुख है कि तुम समेट भी न पाओगे। इतना सुख है कि तुम्हारी सब झोलियाँ छोटी पड़ जाएँगी। इतना सुख है कि तुम्हारे हृदय के बाहर बाढ़ आ जाएगी। और न केवल तुम सुखी हो जाओगे, बल्कि तुम्हारे पास भी जो बैठेगा, वह भी तुम्हारे सुख की छाया से, वह भी तुम्हारे सुख के नृत्य से आंदोलित हो उठेगा।
तुम जहाँ जाओगे, तुम्हारे चारों तरफ सुख का एक वातावरण चलने लगेगा। तुम जिसे छुओगे, वहाँ सुख का संस्पर्श हो जाएगा। तुम जिसकी तरफ देखोगे, वहाँ सुख के फूल खिलने लगेंगे। तुम्हारे भीतर इतना सुख होगा कि तुम उसे बाँट भी सकोगे। वह बँटने ही लगेगा।
सुख अपने आप ही बँटने लगता है। वह तुम्हारे चारों तरफ फैलने लगेगा। सुख की तरंगें आपसे उठने लगेंगी, और सुख के गीत तुमसे झरने लगेंगे। लेकिन सुख माँग नहीं है, सुख जीने का एक ढंग है। अगर यह ढंग तुम्हारे वश का नहीं है तो क्षमता विकास के लिए हमसे मिलो.