पुष्पा गुप्ता
आयुर्वेद स्पष्ट रूप से कहता है और भारतीय भौगोलिक स्थिति भी स्पष्ट करती है कि जो इंसान जहां रहता है, वहीं पर उपजा हुआ खाना उसके लिए जरूरी भी है और स्वास्थ्यवर्द्धक भी।
फर्टीलाइजर, पेस्टिसाइड, पैकेजिंग और ढुलाई माध्यम ने देश के हर कोने से उत्पाद उठाकर दूसरे क्षेत्र में पहुंचाना शुरू कर दिया।
जिन उत्पादों के सड़ने में अधिक वक्त लगता है, लोग उसे ही अधिक से अधिक मात्रा में खा रहे हैं। इसमें सर्वाधिक नुकसानप्रद है गेहूं और चाय।
ये दोनों ही देश के हर कोने में आहार का मुख्य आधार नहीं थे। सोमालिया की भुखमरी को आलू के जरिए दूर किया गया और भारत में अन्न की आपूर्ति को गेहूं से दूर किया गया।
यहां हरित क्रांति का पर्याय ही गेहूं उत्पादन कर उसे देश के हर कोने तक पहुंचाया गया। सरसब्ज इलाकों में चावल की भी यही कहानी रही।
दूसरा नम्बर आता है, चाय का, यह हमारे दैनिक जीवन में कहीं नहीं थी और आज की दैनंदिनी जरूरत है। हकीकत यह है कि दार्जिलिंग के बागानों में चाय का नया पौधा सर्वाइव ही नहीं कर पाता है, क्योंकि पुराने पौधों को जहां 5000 एमएल की पेस्टिसाइड की डोज चाहिए होती है, वहीं नया पौधा इस डोज से झुलस जाता है।
गैस, एसिडिटी, मोटापा, मधुमेह ऐसे रोग हैं, जिन्हें लोगों ने अपने जीवन के साथ स्वीकार कर दिया है। पांच लोगों की मीटिंग में चाय का पूछने पर फीकी और मीठी का पूछने का रिवाज बन गया है। कैंसर जैसे रोगों को अपरिहार्य मान लिया गया है।
स्थानीय भोजन जैसे बाजरी, मक्का और जौ केवल त्योहारों तक ही सीमित हो गए हैं। जहां पर आम लोग जरा से भी असावधान हैं, वहां बाजार पूरी बेरहमी से मार रहा है।
सारा दारोमदार सरकार पर, कोई सामानान्तर व्यवस्था नहीं है, इन सभी पर निगाह रखने के लिए.