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राजनीति में ‘गद्दारों’ की फेहरिस्‍त लंबी

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राजस्‍थान की सियासत में अचानक उबाल आ गया है। मुख्‍यमंत्री अशोक गहलोत के एक बयान ने प्रदेश में बवाल मचा दिया है। हाल में अपने प्रतिद्वंद्वी सचिन पायलट पर बयानों के तीर चलाते हुए वह भाषा की मर्यादा भूल गए। गहलोत ने पायलट को गद्दार बताकर हमला किया। उनके लिए भविष्‍यवाणी कर दी कि वह राजस्‍थान के सीएम नहीं बनेंगे। उनके समर्थन में 10 से ज्‍यादा विधायक नहीं हैं। सचिन पायलट ने पलटवार करते हुए सिर्फ इतना ही कहा कि गहलोत पर ऐसी भाषा शोभा नहीं देती हैं। वैसे ये पहली बार नहीं हुआ है जब किसी नेता ने प्रतिद्वंद्वी को ‘गद्दार’ ठहराया हो। कभी एकनाथ शिंदे तो कभी आरसीपी सिंह। बयानों में ‘गद्दारों’ की फेहरिस्‍त लंबी है। जिस किसी ने विरोध के सुर उठाए हैं, उसके नाम के साथ इसे चिपका दिया गया है। पाला बदलना और अपना विरोध जताना यह राजनीति में नया नहीं है। लेकिन, यह समझ ही नहीं आया कि गद्दार और खुद्दार कि परिभाषा लोकतंत्र में कब गढ़ ली गई। न तो इस तरह की भाषा की पहले कभी स्‍वीकार्यता रही है न आगे रहेगी। यहां हम गहलोत प्रकरण के साथ आपको उन वाकयों की याद दिलाते हैं जब कोई नेता अपनोंं के लिए ही ‘गद्दार’ बन गया।

एक गद्दार सीएम नहीं बन सकता…
यह बयान हाल में राजस्‍थान के मुख्‍यमंत्री अशोक गहलोत ने एक टीवी चैनल को इंटरव्‍यू देते हुए दिया। उन्‍होंने कहा कि एक गद्दार सीएम नहीं बन सकता है। हाई कमान सचिन पायलट को मुख्‍यमंत्री नहीं बना सकता है। उनके समर्थन में 10 भी विधायक नहीं हैं। वह पार्टी को धोखा दे चुके हैं। वह ‘गद्दार’ हैं। यह बयान पायलट क्‍या खुद कांग्रेस पार्टी को अच्‍छा नहीं लगा। पार्टी के तमाम नेताओं ने अशोक गहलोत को भाषा की मर्यादा नहीं लांघने की याद दिलाई। कांग्रेस के वरिष्‍ठ नेता जयराम रमेश ने इस तरह की भाषा पर हैरानी जताई। राजस्‍थान कांग्रेस इकाई में गहलोत का सिर दर्द बने सचिन पायलट ने गहलोत पर पलटवार करते हुए कहा कि ऐसी भाषा उन पर शोभा नहीं देती है।

जब शिंदे के लिए उद्धव बोले- गद्दार को गद्दार ही कहेंगे
हाल में महाराष्‍ट्र के सियासी संकट को भला कोई कैसे भुला सकता है। एकनाथ शिंदे गुट की बगावत के कारण राज्‍य की महा विकास अघाड़ी सरकार 29 जून को गिर गई थी। इसके बाद शिंदे ने 30 जून को शिंदे ने मुख्‍यमंत्री पद की शपथ ली थी। यह और बात है कि इन दोनों के बीच उसके बाद भी जुबानी जंग जारी रही। दशहरा रैली को संबोधित करते हुए उद्धव ने शिंदे को रावण, गद्दार और कटप्‍पा बताया। वह बोले थे कि शिंदे ने रावण की तरह चेहरा बदला। गद्दारों को गद्दार ही कहेंगे। यह गद्दी उनकी है। शिवसैनिक ‘कटप्‍पा’ को कभी माफ नहीं करेंगे। जवाब में शिंदे कहा था कि उनकी बगावत गद्दारी नहीं बल्कि गदर है। वह बोले थे कि कांग्रेस और राष्‍ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) से हाथ मिलाने के लिए उद्धव को पार्टी के संस्‍थापक बाल ठाकरे के स्‍मारक पर घुटने टेककर माफी मांगनी चाहिए।

नीतीश और आरसीपी सिंह के झगड़े में आया ‘गद्दार’
बिहार की राजनीति में भी हाल में ‘गद्दार’ शब्‍द खूब आया। बिहार के मुख्‍यमंत्री नीतीश कुमार और जदयू के पूर्व अध्‍यक्ष आरसीपी सिंह के बीच झगड़े में इसका इस्‍तेमाल हुआ। जुबानी जंग जदयू सुप्रीमो नीतीश के बयान से शुरू हुई। अपनी तीन दिवसीय दिल्‍ली यात्रा के दौरान आरसीपी सिंह का नाम आने पर वह भड़क गए थे। उन्‍होंने कहा था कि आरसीपी की हैसियत ही क्‍या है? उन्‍हें हमने पार्टी से निकाल दिया है। मीडिया से सीएम ने कहा कि उनके बारे में सवाल ही नहीं करना चाहिए। आरसीपी सिंह को वही राजनीति में लाए। वह जदयू को नुकसान पहुंचाने में लगे थे। इसके जवाब में आरसीपी सिंह ने कहा था कि वैसे लोगों को गद्दार बताया जाता है जो बोलते हैं। उन पर पार्टी के विधायक तोड़ने का आरोप लगाया गया। इसके उलट हकीकत यह है कि उनके पास एक भी विधायक नहीं है। न कोई सांसद है।

गोवा में ‘गद्दार’ बताकर की कार्रवाई
गोवा का मामला भी ताजा ही है। बात उस समय की है जब एक होटल में कांग्रेस विधायकों की बैठक के बाद चर्चा होने लगी कि 6 विधायक बीजेपी में शामिल होने का मन बना चुके हैं। इसके बाद गोवा में कांग्रेस प्रभारी दिनेश गुंडू राव ने अपने ही दो विधायकों पर गद्दारी का आरोप लगाकर उन पर कार्रवाई की थी। बाद में कई और विधायक बीजेपी में शामिल हो गए थे। इसके बाद 40 सदस्‍यीय विधानसभा में कांग्रेस के सिर्फ तीन ही विधायक बचे थे।

शंकर सिंह वाघेला पर भी लगा ‘गद्दारी’ का तमगा
सियासत में गद्दार और गद्दारी तमगा नया नहीं है। शंकर सिंह वाघेला ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत जनसंघ से की थी। 1977 में इसका जनता पार्टी में विलय हो गया था। जब जनता पार्टी अलग-अलग गुटों में बंटी तो वाघेला बीजेपी में रहे। 1995 में पहली बार गुजरात में बीजेपी सरकार आई थी। बीजेपी को तब 121 सीटें मिली थीं। केशूभाई पटेल सीएम बने थे। जबकि पार्टी के अंदर ही तमाम नेता शंकर सिंह वाघेला को सीएम के तौर पर देखना चाहते थे। केशूभाई पटेल सरकार के छह महीने बाद वाघेला ने बगावत का बिगुल बजा दिया। 121 में 48 बीजेपी विधायकों को तोड़कर वह मध्‍य प्रदेश के खजुराहों पहुंच गए थे। उन दिनों मध्‍य प्रदेश में कांग्रेस सरकार थी। दिग्विजय सिंह सीएम थे।

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