हाल में संपन्न हुए महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में मुकाबला लोकसभा चुनाव में अपनी सफलता के चलते अति-आत्मविश्वास से भरी महाविकास आघाड़ी (एमवीए) और अपनी असफलता से सबक सीख कर विभिन्न ओबीसी समुदायों में अपनी पैठ बना चुकी महायुति गठबंधन के बीच था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने अपनी पूरी ताकत भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) – जो महायुति गठबंधन का सबसे बड़ा दल है – के पक्ष में झोंक दी। जो परिणाम आए वे सबको चौंकाने वाले थे – सिवाय उनके, जिनकी जनता की नब्ज़ पर पकड़ थी। चुनाव में महायुति ने एमवीए को जबरदस्त पटखनी दी।
हरिभाऊ राठौड
आरएसएस ने अपनी जन्मभूमि महाराष्ट्र में बिना शोर मचाए जम कर काम किया ताकि संसदीय चुनावों की तरह इस बार भी भाजपा-नीत महायुति की बुरी गत न बने। संसदीय चुनावों में महायुति 158 विधानसभा क्षेत्रों में एमवीए से पीछे रही थी। महायुति की चुनावी संभावनाओं पर मराठा आरक्षण आंदोलन का नकारात्मक प्रभाव न पड़े, यह सुनिश्चित करने के लिए आरएसएस ने विमुक्त जनजातियों (डीएनटी), घुमंतू जनजातियों (एनटी) व अन्य छोटे-छोटे समुदायों से उनकी वाड़ियों (मोहल्लों), टांडों (कारवांओं) और बस्तियों में संपर्क किए। इसके लिए बहुत सूक्ष्म स्तर तक विचार कर योजना बनाई गई। आरएसएस यह भय उत्पन्न करने में सफल रहा कि हिंदुत्व मृतप्राय है और उसे पुनर्जीवित किए जाने की ज़रूरत है। यह प्रचार भी किया गया कि मुसलमानों का तुष्टिकरण किया जा रहा है, जो कि खतरनाक है और इससे देश का नुकसान होगा। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने ‘कटेंगे तो बटेंगे’ के अपने नारे का भरपूर इस्तेमाल किया। इससे कुछ हद तक हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण हो गया, जिसके चलते ओबीसी के अधिकांश मत महायुति गठबंधन को मिले। इससे मनोज जरांगे पाटिल द्वारा मराठा आरक्षण की मांग के समर्थन में चलाए गए आंदोलन के कारण महायुति को हुए नुकसान की भरपाई भी हो गई। इसके अलावा, आरएसएस ने अजीत पवार और एकनाथ शिंदे आदि मराठा नेताओं की अपने समुदाय को महायुति के साथ जोड़ने में पूरी मदद की।
उधर, एमवीए ने अपने पांव पर खुद कुल्हाड़ी मारी। उसके नेताओं में एकता नहीं थी। मुख्यमंत्री के पद के कई दावेदार थे। एमवीए जनता को अपने चुनावी घोषणापत्र में शामिल लोक–कल्याणकारी योजनाओं के बारे में बता ही नहीं सकी। वह यह मान कर चल रही थी कि मराठा उसका समर्थन करेंगे। मगर जरांगे ने जब घड़ी-घड़ी अपने निर्णय बदलने शुरू किए तो मराठाओं ने भी उन्हें गंभीरता से लेना बंद कर दिया। उन्होंने पहले अपने उम्मीदवार खड़े करने की घोषणा की। फिर उन्होंने अपने उम्मीदवारों को नाम वापस लेने को कहा। और अंत में, उन्होंने न तो एमवीए को अपना समर्थन दिया और ना ही महायुति को।
उद्धव ठाकरे और संजय राउत ने अपनी पूरी उर्जा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और महाराष्ट्र के तत्कालीन उप-मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़णवीस पर हमले करने में खर्च कर दी। उनके द्वारा ‘खोखे’ और ‘गद्दार’ जैसे शब्दों के इस्तेमाल से अहंकार की बू आ रही थी। एमवीए के पास कहने को कोई नई बात नहीं थी, जिससे उसका प्रचार जल्द ही बासी और अप्रभावी लगने लगा।
जबकि महायुति ने सत्ता में होने का फायदा उठाते हुए, चुनावों की पूर्वसंध्या पर कई नई योजनाओं की घोषणा की और उनका कार्यान्वयन भी कर दिया। उसने बंजारा समुदाय के लिए संत सेवालाल महाराज बंजारा / लमन टांडा समृद्धि योजना और इसी तरह की अनेक योजनाओं की घोषणा की। आरएसएस ने सभी जातियों के साधु-संतों को राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के मुद्दों पर बात करने की ज़िम्मेदारी दी और उन सभी ने अपनी ज़िम्मेदारी का सफलतापूर्वक निर्वहन किया। दूसरी ओर, एमवीए ने चुनाव अभियान के दौरान कट्टरपंथी मुसलमानों द्वारा कही जा रही बातों का विरोध नहीं किया।
शरद पवार और उद्धव ठाकरे का भविष्य
इस चुनाव में सबसे बड़ी हार उद्धव ठाकरे की हुई है। उन्होंने कट्टर हिंदुत्व को त्याग कर शिव सेना की सबसे बड़ी ताकत को खो दिया। सुप्रीम कोर्ट ने भले ही अब तक यह तय नहीं किया हो कि ठाकरे की शिवसेना असली है या शिंदे की, मगर शिवसेना के पारंपरिक मतदाताओं ने अपना मन बना लिया है। अब ठाकरे के सामने सबसे बड़ी चुनौती है अगले पांच सालों तक अपने विधायकों को बचा कर रखना। अगर वे इसमें सफल हो गए तो यह उनकी बड़ी सफलता होगी। ठाकरे को संजय राउत और सुषमा अंधारे जैसे नेताओं द्वारा बिना सोचे-समझे दिए गए आधारहीन और अतार्किक बयानों की कीमत अदा करनी पड़ी। महाराष्ट्र की जनता को ये बयान पसंद नहीं आए।
जो कुछ हुआ, उससे शरद पवार को ज्यादा नुकसान नहीं हुआ है। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के दोनों धडों पर पवार परिवार ही काबिज है। इस कारण एनसीपी में चुनाव नतीजों को लेकर कोई बहुत असंतोष या बैचैनी नहीं है। किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए यदि देर-सवेर पूरा पवार परिवार एक साथ बैठकर युद्धविराम कर ले और एनसीपी का नेतृत्व अजीत पवार को सौंप दे। शरद पवार भी जानते हैं कि उनके नेतृत्व वाले धड़े का भविष्य उज्ज्वल नहीं है। अगर शरद पवार राजनीति को अलविदा कह देते हैं, तो उनके धड़े का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। इसलिए, एनसीपी और महाराष्ट्र – दोनों के हित में यही है कि पवार परिवार में एकता हो जाए। दूसरी ओर कांग्रेस, एक शक्तिशाली नेता के अभाव को शिद्दत से महसूस कर रही है।
चुनाव नतीजों के लिए ईवीएम में गड़बड़ियों, धर्म के राजनीतिकरण और धन-बल के उपयोग आदि को दोष देने से कुछ हासिल नहीं होगा। एमवीए को विनम्रतापूर्वक जनादेश को स्वीकर करना चाहिए, आत्मचिंतन करना चाहिए और अपनी दिशा ठीक करनी चाहिए।
महायुति हवा में न उड़े
निर्धन और उपेक्षित वर्गों ने महायुति में अपनी आस्था व्यक्त किया है। नई सरकार को यह सिद्ध करने की कोशिश करनी चाहिए कि वह लोगों की आस्था की सुपात्र थी। महायुति को लोगों से जुड़े कुछ बड़े मसलों का समाधान करना होगा। किसानों को उनके उत्पादन का सही मूल्य नहीं मिलता है। वहीं उन्हें आवश्यक वस्तुओं के लिए ऊंची कीमत चुकानी होती है। राज्य में गरीबी है और व्यापक बेरोज़गारी भी। ताकतवर लोग फर्जी जाति प्रमाणपत्र प्रस्तुत कर कमज़ोर वर्गों के लिए निर्धारित सुविधाओं का उपयोग कर रहे हैं। परीक्षाओं के प्रश्पनत्र लीक हो रहे हैं और शिक्षा का स्तर निम्न है। महायुति को यह समझना होगा कि एक चुनाव में जीत का अर्थ यह नहीं होता कि अगले चुनाव में भी नतीजा यही होगा।विमुक्त और घुमंतू जनजातियों और अन्य छोटे समुदायों ने संकट से उबरने में महायुति की मदद की है। हमारी नई सरकार से अपेक्षा है कि इसके बदले वह हमारा ख्याल रखेगी।
(कांग्रेस के पूर्व राज्यसभा सांसद व महाराष्ट्र विधान परिषद के पूर्व सदस्य हरिभाऊ राठौड वर्तमान में राष्ट्रीय बंजारा क्रांति दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं)
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