डॉ. विकास मानव
_प्रकृति ईश्वर् की उस शक्ति का एक स्वरूप है जिस शक्ति के रूप हैं हम सभी विभिन्न भू-भाग के रहने वाले मानव और अन्य प्राणी। मानव सृष्टि के प्राक्काल से ही प्रकृति के ऊपर अपना वर्चस्व स्थापित करने का स्वार्थमय प्रयास करता आया है, उसका अपने पक्ष में दोहन करता आया है।_
परन्तु जैसे- जैसे मनुष्य प्रकृति से दूर होता गया, वह अपने को सभ्य मानता गया, लेकिन अपने मूल से उतना ही दूर होता गया। सभ्य मानने और सभ्य होने में भारी अंतर है।
आज मनुष्य अपने प्राकृतिक स्वरूप से, नैसर्गिक विशेषताओं से जितना दूर हटा है, उतना ही वह अपने को सभ्य कहता गया है और सभ्य मानता गया है। इतना ही नहीं, भविष्य में भी वह जितना ही प्रकृति से दूर होता जायेगा, वह उतना ही मूल से दूर होता जायेगा।
जैसे-जैसे मनुष्य नई-नई खोजें करता जा रहा है, नए-नए नियम और सिद्धान्त बनाता जा रहा है और उन सिद्धांतों को अपने अनुकूल करता जा रहा है।
उन नियमों और सिद्धांतों को उसने विज्ञान की संज्ञा देकर यह सोचने का झांसा पाल रखा है कि हो-न-हो किसी दिन वह विज्ञान के बल पर प्रकृति की सभी शक्तियों पर नियंत्रण कर लेगा और एक दिन वह इस समस्त भौतिक जगत् पर, उसके अस्तित्व पर ही विजय प्राप्त कर् लेगा और इतना ही नहीं, वह प्रकृति का संचालन भी कर सकेगा।
कितने बड़े मुगालते में है मनुष्य यदि वह ऐसा समझ रहा है तो–। यह सत्य है कि आज मनुष्य ने विज्ञान के क्षेत्र में बहुत प्रगति कर् ली है–खासकर पिछली एक शदी से। प्रकृति का एक नियम है कि जब-जब मनुष्य प्रकृति के उन अबूझ और गूढ़ रहस्यों की परतों को उघाड़ने के कगार पर पहुँचता है और उस पर नियंत्रण करने की कोशिश करता है, तब-तब प्रकृति ने उसका विनाश ही किया है।
मनुष्य जब प्रकृति के सारे रहस्यों को जान लेता है तो फिर वह मनुष्य को जीवित नहीं छोड़ती है।
विज्ञान की चरम उन्नति प्रकृति के उसी नियंत्रणकरिणी शक्ति के क्षेत्र में सीधी दखलंदाजी है। जब- जब मनुष्य ने ऐसा किया है, उसका महाविनाश ही हुआ है। सतयुग, त्रेता और द्वापर के वेे काल-खण्ड इस बात के साक्षी हैं।
मनुष्य ने उन-उन काल-खण्डों में प्रकृति के सारे रहस्यों को जब-जब जानने का प्रयास किया, तब- तब उसका महाविनाश हुआ और वह विकास की चोटी पर पहुंचकर वहां से औंधेमुंह गिरा है। विज्ञान वास्तविक ज्ञान से थोड़ा नहीं, कोसों दूर है, पर यह विडम्बना देखिये कि आज मनुष्य उसी विज्ञान की शक्ति से प्रकृति की वास्तविक सत्ता पर विजय प्राप्त करने के पुनः-पुनः दिवास्वप्न देखे जा रहा है। विज्ञान शक्ति की खोज कर् रहा है, शक्ति के विभिन्न सिद्धांतों की खोज करता जा रहा है और वह ‘सत्य’ से उतना ही दूर होता जा रहा है। आज मनुष्य ने बारूद के ढेर पर बैठकर अपने महाविनाश की पूर्ण भूमिका बना ली है।
वह समय-चक्र के ऐसे भयावह फेर में जकड़ चुका है जब वह स्वयं उसी बारूदी ढेर में न सिर्फ चिंगारी लगा रहा है, बल्कि एक दिन उसी विकराल कालाग्नि में समा कर भस्म भी हो जायेगा। मनुष्य अपनी दुर्बुद्धि और अहंकार के चलते स्वयं अपने महाविनाश की भूमिका लिखता जा रहा है।
{लेखक चेतना विकास मिशन के निदेशक हैं)