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उपभोक्ताओं को लुभाने वाली मार्केटिंग:भाजपा की जगह मोदी, लोकतंत्र की जगह तानाशाही

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बादल सरोज

, अनुपलब्धियों और विफलताओं को शब्दजाल में गोल-गोल घुमाकर बनाई गयी भूलभुलैया में छुपाने की भरसक कोशिश।

मतदान की शुरुआत होने में जब महज पांच दिन बचे थे तब कहीं जाकर मौजूदा सत्ता पार्टी भाजपा ने अपना “चुनाव घोषणापत्र” जारी किया। उपभोक्ताओं को लुभाने वाली मार्केटिंग की शैली में लिखे चुस्त खोखले संवादों, अनुपलब्धियों और विफलताओं को शब्दजाल में गोल गोल घुमाकर बनाई गयी भूलभुलैया में छुपाने की भरसक कोशिशों और जनता की मुश्किलों की पूरी तरह अनदेखी कर उन्हें थाली भर पानी में चांद उतारने के भुलावे से बहलाने के आजमाए शिगूफों से भरा यह पुलिंदा बाकी जो है सो तो है ही सबसे मुखर रूप में खुद को ब्रह्माण्ड की सबसे बड़ी पार्टी बताने वाली इस पार्टी के अस्तित्वहीन और विलुप्त सा हो जाने की दस्तावेजी और सार्वजनिक स्वीकारोक्ति है। 

एक तरह से कॉरपोरेट के बैक्टीरिया (जीवाणु) के हिंदुत्व के साथ मिलकर वायरस (विषाणु) में रूपांतरित होने का चक्र पूरा हो गया है और जनसंघ से भाजपा होते हुए खुद को एक राजनीतिक दल बताने का स्वांग त्याग कर अब इसने भी मान ही लिया है कि वह अपने मात-पिता संगठन आरएसएस की तरह एकानुचालकवर्ती स्थिति को प्राप्त हो चुकी है। न कोई नेतृत्व है न कोई समिति, मोदी के आगे भी मोदी हैं, मोदी के पीछे भी मोदी है, बीचोंबीच तो मोदी हैईये हैं। सार में तो ऐसा पहले ही हो चुका था। अब इसे चुनाव के पहले जारी किये जाने वाले एलानों के दस्तावेजों के बदलते रूप में भी बाकायदा दर्ज कर लिया गया है। वर्ष 2014 के चुनाव के ये एलान भाजपा के चुनाव घोषणापत्र के नाम और “एक भारत श्रेष्ठ भारत” की पञ्च लाइन के साथ जारी हुए थे, 2019 के लोकसभा चुनाव में ये “संकल्पित भारत; सशक्त भारत” के जुमले वाले संकल्प पत्र हो गए और 2024 के चुनावों के आते आते भारत मुखपृष्ठ से गायब ही हो गया, भाजपा नीचे कहीं अपठनीय से छोटे अक्षरों में सिमटकर रह गयी और ये मोदी की गारंटी हो गए।

यह डिजिटल युग है– पठनीयता के अलावा अब दर्शनीयता भी बोलने और बताने का एक तरीका है। अनेक की राय में यह कहीं ज्यादा प्रभावी तरीका है, और सही में है भी। इस लिहाज से पिछले 10 वर्षों के तीनों घोषणापत्र का अध्ययन रोचक फर्क दिखाता है; वर्ष 14 के 64 पेज के घोषणापत्र के मुखपृष्ठ पर मोदी की तस्वीर थी और सिर्फ वहीँ थी। वह भी मध्य में थी उनके आजू बाजू सुषमा स्वराज और अरुण जेटली और उस वक़्त के 4 भाजपा शासित राज्यों– गोवा, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश राजस्थान के मुख्यमंत्री थे, इन सबके ऊपर अटल, अडवानी, जोशी और तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह थे। वर्ष 19 के 50 पन्नों के संकल्प पत्र में मोदी की 6 तस्वीरें थीं। मगर 2024 में तस्वीर पूरी तरह बदली हुई हैं 69 पेज की मोदी की गारंटी में लाली देखूं लाल की, जित देखूं तित लाल की तर्ज पर 52 अलग अलग मुद्राओं में मोदी ही मोदी है, हर तस्वीर में नई भंगिमा और नए परिधानों के साथ। यह सिर्फ फोटो का खेल नहीं है यह एक वक्तव्य है जो बताता है कि किस तरह मात्र 10 वर्ष के भीतर भाजपा हाशिये के भी हाशिये पर आ गयी है और भारत के स्थान पर मोदी प्रतिष्ठित हो गए हैं।

संसदीय लोकतंत्र में चुनाव राजनीतिक दल लड़ते हैं, वचनबद्धता उनकी होती है किसी व्यक्ति की नहीं !! सिर्फ इसलिए नहीं कि संगठन की आयु व्यक्ति की आयु से कहीं अधिक होती है, बल्कि इसलिए कि संसदीय लोकतंत्र में व्यक्ति का नहीं दल का चुनाव किया जाता है, जिसे बाद में अपना नेता चुनना होता है। संसदीय लोकतंत्र की जिस प्रणाली को भारत में अपनाया गया है उसमें वह नेता भी एकमात्र या सबसे ऊपर नहीं होता; कैबिनेट और संसदीय दल के जरिये जिम्मेदारी सामूहिक होती है। मगर भाजपा –मोदी की भाजपा– पार्टी की साख पर नहीं मोदी की गारंटी के नाम पर चुनाव लड़ने जा रही है। चुनाव भाजपा लड़ रही है गारंटी मोदी दे रहे है। ऐसा किस विवशता के चलते ऐसा किया जा रहा है इस पर बाद में पहले यह कि ये जो किया जा रहा है वह कितना खतरनाक है और कितनी गंभीर आशंकाओं से भरा हुआ है।

संसदीय या किसी भी तरह की लोकतांत्रिक शासन प्रणाली की मजबूती बाकी लोकतांत्रिक संस्थाओं और परम्पराओं की जीवन्तता, कारगरता और उनके सम्मान के साथ-साथ उसमें काम करने वाली राजनीतिक पार्टियों के भीतर लोकतंत्र की स्थिति की समानुपाती होती है। उन दलों और खासकर यदि कहीं वह सत्ता में बैठा दल हो तो उसमे लोकतंत्र की समाप्ति देश के लोकतंत्र के लिए अशुभ और अनिष्टकारी ही नहीं होती, उसके क्षरण और अंततः तानाशाही की आमद का सूचक भी होती है। ठीक यही वजह है कि भाजपा नाम की पार्टी का एक व्यक्ति पर आधारित पार्टी के रूप में सिकुड़कर रह जाना सिर्फ उस पार्टी या उसके समर्थकों की चिंता का विषय नहीं रह जाता, लोकतंत्र की सलामती में विश्वास करने वाले सभी के लिए विचारणीय प्रश्न हो जाता है। इस सन्दर्भ में डॉ भीमराव आंबेडकर द्वारा संविधान मंजूर करने वाले दिन -25 नवम्बर 1949– को दिए भाषण में दी गयी 3 चेतावनियों में से एक का पाठ तबकी तुलना में आज ज्यादा प्रासंगिक और सामयिक है। बाबा साहेब ने कहा था कि “”अपनी शक्तियां किसी व्यक्ति- भले वह कितना ही महान क्यों न हो- के चरणों में रख देना या उसे इतनी ताकत दे देना कि वह संविधान को ही पलट दे ‘संविधान और लोकतंत्र’ के लिए खतरनाक स्थिति है। राजनीति में भक्ति या व्यक्ति पूजा संविधान के पतन और नतीजे में तानाशाही का सुनिश्चित रास्ता है।’’ ध्यान रहे डॉ अम्बेडकर जिन व्यक्तियों की बात कर रहे थे वे आज के व्यक्तियों की तरह बौने नहीं थे, वे महाकाय व्यक्तित्व थे; ऐसे व्यक्ति जिन्होंने दसियों बरस जेलों में काटी थीं, जिन्होंने आजादी की लड़ाई जीती थी और एक सर्वसमावेशी भारत का नक्शा तैयार किया था। डॉ अम्बेडकर और संविधान सभा इन के व्यक्तिवाद पर अंकुश लगाना जरूरी मानती थी। आज उन्हीं के देश में  2024 के लोकसभा चुनाव के लिए स्वयं मोदी द्वारा जारी की गयी मोदी की गारंटी वाला पुलिंदा जिन जिन गारंटी का दावा करता है उनमें से किन किन की गारंटी है यह तो स्वयं मोदी भी गारंटी के साथ नहीं कह सकते – मगर, कहीं अगर इसे अमल में लाने की मोहलत दे दी गयी तो यह इस देश में तानाशाही लाने की गारंटी वाला जरूर हो सकता है। विडम्बना यह है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र कहे जाने वाले देश भारत में मोदी की गारंटी नाम का यह त्रासद प्रहसन ठीक उन्हीं बाबा साहब के जन्म दिन 14 अप्रैल को मंचित किया गया, जिन्होंने इस तरह की आशंका जताई थी।

यह सिर्फ अनुमान, आशंका, राजनीतिक आग्रह के चलते बनी नकारात्मकता या आरोप नहीं है– खुद यह कथित घोषणापत्र इसकी पुष्टि करता है। पिछले पांच वर्षों की अपनी कामयाबियों के नाम पर इसमें धारा 370 की समाप्ति, सीएए को लागू करने जैसी कारगुजारियों को गिनाते हुए आने वाले दिनों में समान नागरिक संहिता को लागू करने और एक देश एक चुनाव का क़ानून लाने का वादा इस तानाशाही के मार्ग को प्रशस्त करने का एलान है। यह कर्नाटक में किसी भाजपा नेता द्वारा कही गयी संविधान बदल देने की बात को दूसरी तरह से व्यवहार में उतारने का काम है। यहां एक बार फिर बाबा साहब के उसी भाषण का एक वाक्य दोहराना प्रासंगिक है, जिसमें उन्होंने कहा था कि हम “संविधान कितना भी अच्छा बना लें, इसे लागू करने वाले अच्छे नहीं होंगे तो यह भी बुरा साबित हो जाएगा।” आज उनकी यह आशंका भी यथार्थ में उतरती दिख रही है जब एक धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, संघीय गणराज्य के स्वरुप को बदलने के एलान खुलेआम किये जा रहे हैं। इसके पीछे इरादा क्या है इसे घोषणापत्र जारी करने के इवेंट में दिए गए मोदी के एकरस एकांगी भाषण से कहीं ज्यादा सटीक शब्दों में इस अवसर पर बोले चंद शब्दों में भाजपा के अध्यक्ष जेपी नड्डा ने बयान किया। उन्होंने कहा कि “यह जनसंघ के जमाने से चली आ रही हमारी वैचारिक यात्रा का अगला चरण है।“ इस प्रसंग में उन्होंने दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद से अन्त्योदय होते हुए मोदी के सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास, सबका प्रयास वाले जुमले का उल्लेख किया। हालांकि ऐसा करते में भी वे सावधान रहे कि कहीं भूले से भी उनकी जुबान पर 1980 में भाजपा की स्थापना के समय दिए गए गांधीवादी समाजवाद के नारे का जिक्र न आ जाए। बहरहाल जनसंघ के जमाने से आज की भाजपा तक की जिस वैचारिक यात्रा की बात भाजपा अध्यक्ष कर रहे हैं उसमें किस तरह का भारत बनाया जाना है, इसे दोहराने की आवश्यकता नहीं है। मोदी की गारंटी उसी तरह का भारत बनाने का बीजक है।

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