अग्नि आलोक
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माया बाह्य शक्ति नहीं, आपकी तृष्णा है

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 पुष्पा गुप्ता

      _जिस प्रकार शिव भेद-अभेद से परे है, उनके लिए, जाति, धर्म, संप्रदाय का कोई महत्व नहीं है, उनकी उपासना कोई भी कर् सकता है, इस मार्ग पर कोई भी चल सकता है, उसी प्रकार तंत्र साधना है। इस मार्ग पर भी कोई भी चल सकता है। यह मार्ग सबके लिए खुला है।_

       लेकिन इस पर चलने के कुछ नियम हैं जिनका पालन करना अनिवार्य है। इनके पालन न करने से या गलत अनुकरण करने से साधक का सर्वनाश हो जाता है।

       इसीलिए कहा गया है कि तंत्र का मार्ग जितना सरल दिखता है, उतना है नहीं। तलवार की धार पर चलने के समान है यह।गुरुदेव और मैं स्वयम् ऐसे कई साधकों से मिल चुके हैं जिन्होंने सिद्धि और स्वार्थ के चक्कर में पड़कर तंत्र का दुरूपयोग किया।

 इसका परिणाम यह हुआ कि उन्हें अपने प्राण गंवाने के बाद भी उसके दुष्प्रभाव से छुटकारा नहीं मिल सका। इसलिए ध्यान-तंत्र साधना में दक्ष प्रशिक्षक का विशेष् स्थान है। 

     प्रशिक्षक अपने शिष्य को तत्त्वबोध कराता है, उसे पूर्णता की ओर अग्रसर करता रहता है। यदि जल की एक बूंद सागर में मिले तो उसका आयाम अनन्त हो जाता है। इसका मतलब यह नहीं है कि बिन्दु को श्वरूप बोध हो जाता है।

       स्वरूप बोध तब होगा जब बिन्दु यह महसूस कर् ले कि वह बर्फ नहीं है जो हो गया था, वह वाष्प भी नहीं है जो हो गया था, बल्कि वह जल है। उसका मूल तत्व जल है। रूप बदलते रहते हैं, दशा बदलती रहती है, मगर तत्व सदैव रहता है। वही तत्व बोध है।

         अगर हमारे भीतर साधना का बीज होगा तो सद्गुरु अवश्य किसी न किसी रूप में सामने आ जायेंगे और आगे का मार्ग दिखलायेंगे। जहाँतक तंत्र साधना, प्रतिमा साधना, मन्त्र साधना अथवा यंत्र साधना हो, वे सभी मार्ग शिवत्व की ओर जाते हैं क्योंकि हमारी आत्मा शिव का अंश ही है और शिव ज्ञान है, पूर्णत्व है।

       आत्मा हर क्षण ज्ञान की ओर बढ़ती रहती है। कल जो हम थे, आज उससे बेहतर हैं और आगे और भी बेहतर होंगे। हर मनुष्य ज्ञान की ओर हर पल बढ़ता रहता है।

       लेकिन माया के आवरण के कारण उसे ज्ञात नहीं होता। माया कोई बाहरी शक्ति नहीं है, वह मनुष्य की तृष्णा है। यही तृष्णा उसे भटकाती रहती है। मनुष्य को सबकुछ मिलने के बाद भी, वह खालीपन को नहीं भर पाता।

     जब भी वह अपने को अकेला पाता है, वह खालीपन ही पाता है, लेकिन उस खालीपन को समझ नहीं पाता।

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