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बहुत खुश हैं मायावती, समझिए बसपा की बदलती सियासत

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लखनऊ: उत्तर प्रदेश में आजमगढ़ लोकसभा उपचुनाव में बीजेपी की जीत और सपा की हार की चर्चा खूब है। वहीं बसपा के प्रदर्शन को भी ‘वोट कटवा’ की संज्ञा दी जा रही है। लेकिन बसपा सुप्रीमो मायावती इस प्रदर्शन से काफी खुश हैं। वह चुनाव में तीसरे नंबर पर रहे बसपा प्रत्याशी शाह आलम उर्फ गुड्‌डू जमाली के प्रदर्शन से गदगद हैं। साथ ही कह रही हैं कि ये संघर्ष और जुझारूपन 2024 के लाेकसभा चुनाव तक कायम रखना है। अब सवाल ये उठता है कि हार के बाद भी आजमगढ़ में ऐसा क्या मिला, जिसने मायावती को उम्मीदों से भर दिया है। जवाब है बसपा की बदलती सियासत। आइए विस्तार से समझते हैं…

दरअसल उत्तर प्रदेश में 2007 के विधानसभा चुनावों में बसपा ने पहली बार अपने दम पर बहुमत की सरकार बनाई तो सोशल इंजीनियरिंग फॉर्मूला शब्द पहली बार सुनने में आया। इसी फार्मूले को बसपा की जीत का श्रेय दिया गया। 2019 के लोकसभा चुनावों में भी बसपा ने 20 सीटें हासिल कीं और सोशल इंजीनियरिंग को ही पूरा श्रेय दिया गया। पार्टी सुप्रीमो मायावती के बयानों में दलितों मुस्लिमों के साथ ब्राह्मण शब्द भी जुड़ चुका था। वह गरीब अपर कास्ट के लोगों की भी बातें करने लगीं। देश भर में बसपा की इस सोशल इंजीनियरिंग की चर्चा खूब हुई। राजनीतिक विश्लेषक तरह-तरह से इसकी व्याख्या करते रहे। खुद बसपा की हाईकमान के जेहन में फार्मूला इस कदर बैठ गया कि 2012 से लगातार पार्टी का जनाधार खिसकना शुरू हुआ लेकिन सोशल इंजीनियरिंग फॉर्मूले पर रणनीति बनती रही।

2012 से खिसकने लगा जनाधार
2012 के विधानसभा चुनावों में बसपा यूपी की सत्ता से बाहर हुई। 2014 लोकसभा चुनावों में तो उसे एक भी सीट नसीब नहीं हुई। इस ऐतिहासिक हार के बाद भी मायावती सोशल इंजीनियरिंग फॉर्मूले पर डटी रहीं। 2017 का विधानसभा चुनाव आया तो बसपा और रसातल में चली गई लेकिन फार्मूले पर कायम रही। 2019 लोकसभा चुनाव में बसपा ने जरूर वापसी की और 10 सीटें जीतीं लेकिन इस वापसी के पीछे बसपा-सपा गठबंधन को ज्यादा श्रेय दिया गया। हालांकि चुनाव बाद मायावती ने ये कहते हुए सपा से गठबंधन तोड़ लिया कि उनके वोट सपा को ट्रांसफर हुए लेकिन सपा समर्थकों के वोट बसपा प्रत्याशियों को नहीं मिले। यानि 10 सीटों की जीत में भी मायावती कहीं न कहीं सोशल इंजीनियरिंग फार्मूले को ही अहम आधार मान रही थीं।
टूटा सोशल इंजीनियरिंग फार्मूले का ‘तिलिस्म’
इसके बाद 2022 का विधानसभा चुनाव आया तो बसपा ने सोशल इंजीनियरिंग फार्मूले पर पूरी ताकत झोंक दी। यूपी में सबसे पहले ब्राह्मणों को जोड़ने के लिए प्रबुद्ध सम्मेलन शुरू किया। पार्टी के सबसे बड़े ब्राह्मण नेता सतीश चंद्र मिश्रा को इसकी कमान सौंपी गई। पूरे प्रदेश में जिलों-जिलों सम्मेलन हुए। लेकिन चुनाव परिणाम आए तो बसपा सिर्फ 1 सीट ही जीत सकी। इस परिणाम ने देश की राष्ट्रीय पार्टी बसपा के भविष्य पर ही सवाल खड़ा कर दिया। बातें होने लगीं कि क्या मायावती अब यूपी की राजनीति के लिए पुरानी बात हो चुकी हैं? क्या बसपा खत्म होने की कगार पर है? जाहिर है बाहर ऐसी चर्चाएं चल रही थीं तो कहीं न कहीं मायावती को भी सोचने पर मजबूर किया होगा। और फिर आखिर वो समय आ ही गया, जब सोशल इंजीनियरिंग फार्मूले का ‘तिलिस्म’ टूट गया। और मायावती को समझ में आ गया कि ब्राह्मणों के जोड़ने के चक्कर में मुसलमान उनसे दूर हो चुका है, यही नहीं उनका आधार दलित वोट बैंक भी तेजी से खिसकने लगा है। कभी आराम से 20 प्रतिशत वोट हासिल करने वाली बसपा के पास अब कुल 13 प्रतिशत वोट बचें हैं।
दलित-मुस्लिम सियासत पर वापसी के साथ काम शुरू
एक मंझे हुए राजनेता की तरह मायावती ने फौरन इस पर एक्शन शुरू कर दिया और सोशल इंजीनियरिंग फार्मूले को किनारे कर वापस बसपा के पुराने दलित-मुस्लिम गठजोड़ की सियासत पर लौट आईं। पार्टी से कुछ नेताओं को बाहर किया गया, कुछ के पर कतरे गए यही नहीं उन्होंने फौरन ही रामपुर और आजमगढ़ लोकसभा सीटों पर होने वाले उपचुनाव को लेकर रणनीति बनानी शुरू कर दी। इसी क्रम में मायावती ने जेल में बंद सपा नेता आजम खान के खिलाफ दर्ज मुकदमों को लेकर सवाल उठाए। लखनऊ के सत्ता के गलियारे में मायावती के इस बयान को उनकी मुस्लिम वोट बैंक को वापस जोड़ने की कोशिशों के तौर पर देखा गया। ये तर्क तब और पुख्ता हो गया, जब मायावती ने रामपुर से प्रत्याशी नहीं खड़ा करने का ऐलान कर दिया। राजनीति विश्लेषकों के अनुसार कहीं न कहीं मायावती ने मुस्लिम मतदाताओं को ये संदेश देने की कोशिश की कि देखिए आजम खान चूंकि मुस्लिमों के बड़े नेता हैं, ऐसे में उनकी सीट जीतने की वह कोशिश नहीं करेगी।
बसपा की नजर में जमाली ने किया कमाल
लेकिन सपा को चुनौती देती रहेगी, ये एहसास करते हुए आजमगढ़ से अखिलेश की सीट पर प्रत्याशी खड़ा करने का ऐलान कर दिया। मायावती ने बसपा में वापसी करने वाले शाह आलम उर्फ गुड्‌डू जमाली को आजमगढ़ में टिकट देकर दलित-मुस्लिम गठजोड़ की अपनी रणनीति को आगे बढ़ाया। बता दें आजमगढ़ में यादवों के साथ मुस्लिम और दलित वोटर निर्णायक भूमिका निभाता रहा है। ये चुनाव अब भले ही बीजेपी के दिनेश लाल निरहुआ जीत गए और बसपा के गुड्‌डू जमाली तीसरे नंबर पर रहे। लेकिन वोट प्रतिशत पर नजर डालें तो बसपा का प्रदर्शन काफी अच्छा ही माना जाएगा।

चुनाव जीतने वाले दिनेश लाल यादव निरहुआ ने 3 लाख 12 हजार 432 वोट हासिल किए, वहीं दूसरे नंबर पर रहे धर्मेंद्र यादव को 3 लाख 3 हजार 837 वोट मिले। शाह आलम उर्फ गुड्‌डू जमाली को 2 लाख 66 हजार 106 वोट मिले। मत प्रतिशत की बात करें तो भाजपा को 34.39 प्रतिशत, सपा को 33.44 प्रतिशत और बसपा को 29.27 प्रतिशत मत मिला। इससे कहीं न कहीं पता चलता है कि विधानसभा चुनावों में जो मुस्लिम वोट बैंक एकमुश्त सपा के खाते में गया और सपा ने जिले की सभी 10 सीट जीत ली थीं, वहीं मुस्लिम वोटर लोकसभा उपचुनाव में बंट गया। बसपा को भी उसका समर्थन मिला।
मायावती के ट्वीट से अंदाजा लगाइए खुशी का
आजमगढ़ के रिजल्ट से मायावती कितना उम्मीद से भर गई हैं, इसका अंदाजा उनका 18 घंटों में किए गए दो ट्वीट से लगता है। उपचुनाव परिणाम आने के बाद मायावती ने कहा, “उपचुनावों को रूलिंग पार्टी ही अधिकतर जीतती है, फिर भी आजमगढ़ लोकसभा उपचुनाव में बीएसपी ने सत्ताधारी भाजपा व सपा के हथकण्डों के बावजूद जो कांटे की टक्कर दी है वह सराहनीय है। पार्टी के छोटे-बड़े सभी जिम्मेदार लोगों व कार्यकताओं को और अधिक मजबूती के साथ आगे बढ़ना है। यूपी के इस उपचुनाव परिणाम ने एक बार फिर से यह साबित किया है कि केवल बीएसपी में ही यहां भाजपा को हराने की सैद्धान्तिक व जमीनी शक्ति है। यह बात पूरी तरह से खासकर समुदाय विशेष को समझाने का पार्टी का प्रयास लगातार जारी रहेगा ताकि प्रदेश में बहुप्रतीक्षित राजनीतिक परिवर्तन हो सके।”
समुदाय विशेष को गुमराह होने से बचाना है: मायावती
वहीं आज उन्होंने ट्वीट किया, “बीएसपी के सभी छोटे-बड़े कार्यकर्ताओं, पदाधिकारियों तथा पार्टी प्रत्याशी शाह आलम उर्फ गुड्डू जमाली आदि ने आजमगढ़ लोकसभा उपचुनाव जिस संघर्ष व दिलेरी के साथ लड़ा है उसे आगे 2024 लोकसभा आमचुनाव तक जारी रखने के संकल्प के तहत चुनावी मुस्तैदी यथावत बनाये रखना भी ज़रूरी। सिर्फ आज़मगढ़ ही नहीं बल्कि बीएसपी की पूरे यूपी में 2024 लोकसभा आमचुनाव के लिए ज़मीनी तैयारी को वोट में बदलने हेतु भी संघर्ष व प्रयास लगातार जारी रखना है। इस क्रम में एक समुदाय विशेष को आगे होने वाले सभी चुनावों में गुमराह होने से बचाना भी बहुत ज़रूरी।”

दोनों ही ट्वीट में मायावती ने समुदाय विशेष का जिक्र किया। याद कीजिए विधानसभा चुनाव के बाद से ही मायावती लगातार मुस्लिम वोटर के गुमराह होने की बात कहती रही हैं और उन्हें बसपा में वापस लाने की जरूरत बताती रही हैं।

क्या होगी बसपा की भविष्य की सियासत?
मायावती ने अपने इस बयान के साथ ही साफ कर दिया कि वह अब दलित और मुस्लिम गठजोड़ की सियासत पर ही आगे बढ़ेंगी और 2024 के लोकसभा चुनावों की तैयारी भी बसपा इसी आधार पर करेगी। इसका असर बसपा के संगठनात्मक ढांचे पर भी दिखेगा। यही नहीं 2024 के चुनावों में बसपा प्रत्याशियों के चयन में भी इसकी झलक मिलेगी। दूसरी तरफ अखिलेश की कमजोर होती स्थिति का भी बसपा पूरा लाभ लेने की कोशिश करेगी। फिलहाल समाजवादी पार्टी की नजर में बसपा ‘वोट कटवा’ पार्टी बन चुकी है, जो सीधे उसको नुकसान पहुंचा रही है। लेकिन मायावती बसपा की ‘वोट कटवा’ इमेज से आगे की सोच पर काम करती दिख रही हैं और आजमगढ़ ने बसपा और पार्टी अध्यक्ष मायावती को उम्मीदों से भर दिया है।

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