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कन्हैया कुमार के हवन करने के मायने

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रमाशंकर सिंह,

वरिष्ठ समाजवादी नेता व पूर्व मंत्री 

यह जेएनयू के पूर्व छात्र संघ अध्यक्ष , आज उत्तरपूर्वी दिल्ली से कांग्रेस उम्मीदवार और कांग्रेस के राष्ट्रीय महामंत्री कन्हैया कुमार का चित्र है जिसमें वे चुनाव नामांकन पूर्व हिंदू विधि से एक पंडित की उपस्थिति में हवन कर रहे हैं।  नामांकन के ऐन पहले हवन किसी और मंतव्य के लिये तो हो नहीं सकता सिवाय इसके कि वे किसी काल्पनिक दैवीय शक्तियों से अपनी जीत की प्रार्थना कर रहे हैं।  सामान्यतः इस पर किसी को क्यों आपत्ति होना चाहिये ? 

कन्हैया कुमार की कम्युनिस्ट पृष्ठभूमि किसी से छिपी नहीं है और उस पर भी किसी को आपत्ति कैसे हो सकती है ? कम्युनिस्ट होना एक निश्चित राजनीतिक विचारधारा के साथ साथ वैज्ञानिक विवेकपूर्ण सोच विचार को अपने जीवन व आचरण में अपनाना  होता है । ऐसी सोच रखना उनका संवैधानिक अधिकार है  और बहुतों की दृष्टि में प्रशंसनीय भी । 

सबने वे दृश्य खूब देखे हैं जिसमें आसमान की ओर उँगली तानते हुये कन्हैया कुमार कुछ नारे लगाते थे जैसे कि – हमें चाहिये आज़ादी – जान से प्यारी आज़ादी- मनुवाद से आज़ादी आदि आदि । पहली बात तो यह कि किसी कम्युनिस्ट राज्य व्यवस्था में सबकी आज़ादी और आज़ाद ख़याली का विचार और उसका क्रियान्वयन है ही नहीं । कोई कम्युनिस्ट अगर सबकी आज़ादी की बात करता है तो उसे पहले मार्क्सवादी विचार का परिसंशोधन करना होगा और घोषित भी। दूसरा कि  ईश्वरीय सत्ता या उस पर आधारित किसी भी धर्म में कम्युनिस्ट कार्यकर्ता का भरोसा और उन पर आधारित कर्मकांड का आचरण अस्वीकार है। कम्युनिस्ट धर्म को जनता के लिये अफ़ीम कहते आयें हैं। किसी पुरोहित की उपस्थिति तो मनुवाद के मुख्य अंगों में है। अन्य बातें भी हैं पर आज इन्हीं पर चर्चा करनी है। मैं यह स्पष्ट कर दूँ कि शुरुआती जीवन में घनघोर  धार्मिक परंपराओं और कर्मकांड में पला हूँ और मुझे यह कुछ देर से समझ आया कि धर्म व ईश्वर की अवधारणा मनुष्य ने ही बनाई है जो मूलतः शोषण आधारित एक विशेष राजनीतिक व्यवस्था को पुष्ट करने के लिये है। यह सभी धर्मों के बाबत कम या ज़्यादा सच है और जब यह मन मस्तिष्क में पैठ गया तो फिर जीवन का संपूर्ण आचरण दूसरी तरह से होने लगता है जिसमें हवन यज्ञादि का कोई स्थान नहीं रहता। विवेक विज्ञान समता और विचार की प्रमुखता नास्तिक या कहिये मानवीय वैज्ञानिक सोच पर आधारित विवेकपूर्ण जीवन की नींव है। यह भी नोट कीजिये कि धर्म और सामाजिक राष्ट्रीय संस्कृति का अंतर स्पष्ट है !

पिछले तीन सालों से कन्हैया कम्युनिस्ट से कांग्रेसी हो गये और अपरिपक्व कांग्रेसी नेतृत्व जो स्वयं १९४७ के बाद के अपने मूल नेहरूवादी चरित्र व विचारधारा से अनभिज्ञ हैं ( गांधी विचार की मैं चर्चा नहीं करूँगा जो कांग्रेस ने १९४८ में ही शनैः शनैः परित्याग कर दिया था )ने उन्हें अखिल भारतीय महामंत्री बना दिया। उनका पुराना सबसे मज़बूत साथी आज भी जेल में हैं और उनकी ओर कन्हैया का किंचित् मात्र भी ध्यान नहीं है। 

क्या आपने आज तक किसी सार्वजनिक मंच पर कन्हैया से सुना कि वे मार्क्सवादी विचार का पूर्णतया त्याग कर चुके हैं और कि उन्हें अब मनुवाद पर पूरा विश्वास जम चुका है ! वे ईश्वर की सत्ता स्वीकार कर चुके हैं और कि आज़ादी की अवधारणा कम्युनिस्ट विरोधी है ! नहीं सुना होगा , क्योंकि कन्हैया एक वाचाल इकतरफ़ा भाषणबाज़ अवसरवादी है जो कहीं से भी मिली निजी राजनीतिक ताक़त के लिये लालायित रहा है। कन्हैया कुमार को इतना अधिक प्रचार मिला है कि उनकी कहीं सब बातें जनता के ज़ेहन में सदैव ताज़ा रहेंगीं । यह बात बार बार साबित हो रही है कि मतदाता कार्बन कॉपी पसंद नहीं करते । वे एक निश्चित निजी व राजनीतिक ईमानदारी को चाहते हैं। यहॉं जीत हार मेरे लिये मायने नहीं रखती वरन व्यक्ति की सच्ची निष्ठा का प्रश्न है । विचार परिवर्तन होना संभव है लेकिन चुपके चुपके नहीं। राजनीतिक भविष्यवाणी करने की ज़रूरत नहीं है पर ऐसे लोगों को अंततः वहीं ठौर मिलेगा जहॉं धर्म व ईश्वर का राजनीतिक दुरुपयोग होता है। 

दुख की यह भी बात है कि बेहतर वैचारिक विकल्प कहीं खड़ा होता नहीं दिखता ! सभी दल एक जैसा आचरण दिखाते हैं जब वे सत्तारूढ़ हो जाते है।सहिष्णुता और सच्ची लोकतांत्रिक भावना अब दलों से तिरोहित हो रही है। कार्यकर्ता की जगह ख़त्म हो रही है।कांग्रेस के लिये भी गांधी विचार की उपयोगिता तो शनैः शनैः १९४८ से ही मद्धम होती जा रही थी जो आगामी तीस सालोंंमें एकदम ख़त्म हो गई। अन्य दल भी इसे मॉडल मान कर वे सब समझौते करने लगे जो कि उनके मौलिक विचार व संस्कृति के सर्वथा विपरीत थे। समाजवादी पृष्ठभूमि के गुटों व दलों ने कम पाप नहीं किये।  यह सिलसिला आज तक बदस्तूर बढ़ता ही जा रहा है।  अब १९-२० के गुणात्मक अंतर पर चुनाव करना पड़ रहा है।  

कन्हैया के टिकिट से कांग्रेस में बड़े पैमाने पर वे लोग भी पार्टी छोड़ेंगे या निष्क्रिय हो घर में बैठ जायेंगे जो अन्यथा कांग्रेस में रहने के लिये कटिबद्ध हैं। यह कांग्रेस की विचारशून्यता है कि अपने भीतर से वे चमकदार तेजस्वी युवा नेता पैदा नहीं कर पा रही और ऐसे लोगों को मौक़े की जगहों पर बिठा रही है जो न सिर्फ़ आयातित हैं बल्कि अपने विचारों व कर्मों से कांग्रेस को ख़ाली कर देंगें। यह इस चुनाव का ही प्रश्न नहीं है बल्कि लंबान में इस बूढ़ी पार्टी के अवसान ग्रस्त  होने की संभावना को मज़बूत करेगा।

रमाशंकर सिंह,

वरिष्ठ समाजवादी नेता व पूर्व मंत्री 

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