2024 लोकसभा चुनाव के परिणाम आये करीब सप्ताह बीत चुके हैं, लेकिन राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के सर संघचालक मोहन भागवत ने पहली बार कल 10 मई 2024 के दिन को ही चुना। इस बार के पूरे चुनावी अभियान के दौरान कई बार ऐसा देखने को मिला, जिसमें लगा कि नरेंद्र मोदी और आरएसएस के बीच की दूरी घटने के बजाय काफी बढ़ गई है। कल के भागवत के भाषण ने इन अटकलों पर अब अपनी मुहर भी लगा दी है। अपने भाषण में भागवत ने हर किसी को मर्यादा में रहने की नसीहत देकर जता दिया है कि आरएसएस को अब पीएम नरेंद्र मोदी के कार्यकलापों पर सख्त एतराज है, और वह मानता है कि भाजपा को इस चुनाव में जो झटका लगा है, उसके पीछे भाजपा नेतृत्व की स्वेच्छाचारिता और अमर्यादित आचरण का बड़ा हाथ है।
नागपुर में आरएसएस कार्यकर्ता विकास वर्ग प्रशिक्षण शिविर के दौरान जब मोहन भागवत लोकसभा चुनाव को लेकर संघ का मत प्रकट कर रहे थे, तो दिल्ली में एनडीए सरकार भाजपा और सहयोगी दलों के बीच मंत्रालयों के बंटवारे को लेकर व्यस्त थी। नरेंद्र मोदी के 400 पार के उद्घोष का हश्र अभी तक भाजपा समर्थकों को साल रहा है, विशेषकर उत्तर प्रदेश में मिली अप्रत्याशित हार से हिंदुत्ववादी खेमा बुरी तरह से बौखलाया हुआ है। लेकिन संघ जो खुद को एक सांस्कृतिक संगठन बताता रहा है, ने खुद को लगता है इस हार से दूर रखने का फैसला ले लिया है।
अपने 35 मिनट के भाषण में भागवत ने पहले दस मिनट तक चुनाव प्रचार में शामिल दलों के शीर्ष नेतृत्व के आचरण को लेकर कुछ तीखे सवाल खड़े किये हैं। मसलन, पूरे चुनाव अभियान के दौरान देश ने देखा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किस प्रकार भाजपा के चुनावी अभियान को चलाया। इसमें भाजपा के दस वर्षों की उपलब्धियों या भविष्य की दशा-दिशा पर एक भी ठोस बात नहीं की गई, सिर्फ कांग्रेस के चुनावी घोषणापत्र को मुस्लिम लीग से प्रेरित हिंदू महिलाओं के मंगलसूत्र पर डाका डालने वाला साबित करने की असफल कोशिश से जो शुरू हुआ वह भैंस छीन लेने के स्तर तक गिरता चला गया। हालांकि, अपने भाषण में मोहन भागवत ने दोनों पक्ष को लेकर अमर्यादित आचरण की बात कही है, लेकिन जिसने भी 2024 का चुनाव अभियान देखा होगा, वह सहज अंदाजा लगा सकता है कि उनका इशारा किसकी तरफ था।
एक सच्चे सेवक के बारे में कबीर की एक सूक्ति का उद्धरण देते हुए मोहन भागवत ने जो कहा वह बेहद समीचीन है, “जो वास्तविक सेवक है, जिसे वास्तविक सेवक कहा जा सकता है, वो हमेशा मर्यादा से चलता है। उस मर्यादा का पालन कर वो कर्म करता है लेकिन कर्मों में लिप्त नहीं रहता। उसमें यह अहंकार नहीं आता कि ये सब मैंने किया, और वही एकमात्र सेवक कहलाने का अधिकारी है।”
याद कीजिये, संसद के भीतर नरेंद्र मोदी ने कुछ माह पहले ही खुद को “एक अकेला, सबपे भारी” घोषित किया था। भाजपा सांसदों ने मेजें थपथपाकर सिर्फ पालकी ढोने वाला काम किया था। सभी जानते हैं कि पिछले दस वर्षों के दौरान सरकार और भाजपा के सांगठनिक ढांचे को पूरी तरह से एक व्यक्ति और एक चेहरे के पीछे खड़ा कर दिया गया है। आज के दिन भले ही भारतीय जनता पार्टी दावा करे कि वह विश्व की सबसे बड़ी पार्टी है, लेकिन सच तो यह है कि मोदी के चेहरे ने पूरे संगठन को अंधरे में डाल दिया है। 543 लोकसभा सीटों पर एनडीए के उम्मीदवारों के लिए अपने व्यक्तित्व या काम का मोल नरेंद्र मोदी के चेहरे से बड़ा शायद एक-आध लोकसभा क्षेत्र को छोड़कर कहीं नहीं था।
विरोधी पक्ष को प्रतिपक्ष की संज्ञा देते हुए मोहन भागवत असल में नरेंद्र मोदी की शैली की आलोचना करते नजर आते हैं। चुनावी रण में अपने पक्ष की जीत को सुनिश्चित बनाने के लिए प्रतिस्पर्धा को भागवत यथोचित मानते हुए भी मर्यादा का ध्यान रखने की हिदायत देते हैं। इस लिहाज से देखें तो संसद के भीतर प्रतिपक्ष के नेता राहुल गांधी का अपने भाषण के बाद पीएम नरेंद्र मोदी के गले लगने की घटना, मोहन भागवत की नजर में आदर्श मर्यादित आचरण के दायरे में आता है। वहीं दूसरी तरफ, संघ से प्रशिक्षित प्रधान मंत्री और भाजपा का शीर्ष नेतृत्व किस प्रकार मोदी सरनेम को लेकर राहुल गांधी को निशाने पर लेता है, और चुनिंदा अदालती प्रकिया को अपनाकर एक मानहानि के मामले में अधिकतम सजा को सुनिश्चित करता है, जो राहुल गांधी की न सिर्फ संसद सदस्यता छीनने की ओर ले जाती है, बल्कि इसमें 2 वर्ष का कारावास तक संभव था। हालांकि, सर्वोच्च अदालत ने इस मामले में स्टे देकर सरकार के मंसूबों पर पानी फेर दिया था।
आरएसएस चीफ ने अपने भाषण में मणिपुर का भी उल्लेख किया। मोहन भागवत ने साफ़ कहा है कि पिछले एक वर्ष से मणिपुर अशांत है। देश में कहीं भी सामाजिक वैमनस्यता है तो वह सही नहीं है। पिछले दस वर्ष से मणिपुर पूरी तरह शांत था। लेकिन हाल के दिनों में वहां बंदूक की संस्कृति देखने को मिली है। यह कैसे फैली या यह स्थिति पैदा की गई? लेकिन तथ्य यह है कि मणिपुर आज भी जल रहा है। मणिपुर की समस्या के तत्काल समाधान के लिए पहल कौन करेगा? इसके बाद भागवत कहते हैं कि तत्काल प्राथमिकता देकर इस स्थिति से निपटना होगा।
जाहिर सी बात है, जिस मणिपुर राज्य को इस चुनाव में भाजपा ने झांककर भी नहीं देखा, उसके दोनों लोकसभा क्षेत्रों से कांग्रेस को जीत हासिल हुई थी। सभी चुनावी पर्यवेक्षक मानकर चल रहे थे कि इनर मणिपुर तो कांग्रेस किसी भी सूरत में नहीं जीतने जा रही है, लेकिन चमत्कार देखिये एक वर्ष तक भयानक जातीय हिंसा में विभाजित मणिपुर के मैतेई और कुकी दोनों समुदाय के लोग आज नफरत की बजाय शांति चाहते हैं। लेकिन नफरत की आग इस कदर दोनों समुदायों के बीच में सुलगा दी गई है, कि उन्हें एक-दूसरे के साए पर भी भरोसा नहीं रहा। ये हालात भाजपा की डबल इंजन सरकार की देन है, जिसे देख आरएसएस के मुखिया भी झट अपना पाला बदलते दिख रहे हैं।
संघ की नजर में विचारधारा से भाजपा नेतृत्व की दूरी बढ़ी है। लेकिन यह सिर्फ आरएसएस प्रमुख की धारणा है, ऐसा कत्तई नहीं है। भाजपा की ओर से भी ऐसे संकेत दिए जा चुके हैं। ऐन चुनाव प्रचार के बीच भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा ने एक समाचार पत्र को दिए इंटरव्यू में साफ़-साफ़ कहा था कि आज के दिन भारतीय जनता पार्टी इतनी सक्षम हो चुकी है कि उसे आरएसएस की मदद की जरूरत नहीं रही। लगातार पूर्ण बहुमत वाले दो कार्यकाल सफलतापूर्वक निकाल देने वाली भारतीय जनता पार्टी तब नरेंद्र मोदी के चेहरे पर 400 पार का दावा कर रही थी, और तीसरी बार और भी भारी जीत को लेकर आश्वस्त थी।
आरएसएस के अंग्रेजी मुखपत्र आर्गनाइजर में भी भाजपा कार्यकर्ताओं के अति-आत्मविश्वास को लेकर संघ के पूर्णकालिक कार्यकर्ता रतन शारदा ने कुछ चुभते सवाल खड़े किये हैं। वैसे यदि ध्यान दें तो आरएसएस ने पिछले वर्ष भी अपनी पत्रिका में इस बात की ओर इशारा किया था कि सिर्फ मोदी के चेहरे को आगे रख चुनाव में जीत की गारंटी नहीं की जा सकती है। लेकिन ताजे लेख में तो भाजपा-संघ के बीच की दूरियां खुलकर आमने आ गई हैं।
रतन शारदा के मुताबिक, भाजपा के भीतर काम करने वाले लोगों को यह घमंड हो गया था कि भाजपा नेता ही रियलपोलीटिक समझते हैं, जबकि आरएसएस वाले तो ग्रामीण गंवारू लोग हैं। वे आगे लिखते हैं, “इस चुनाव में भाजपा कार्यकर्ताओं ने आरएसएस की खोज-खबर नहीं ली। अगर भाजपा के कार्यकर्ता इस बार आरएसएस के पास नहीं गये, तो उन्हें बताना होगा कि उन्होंने ऐसा किस बिना पर किया?”
इतना ही नहीं रतन शारदा ने अपने लेख में उन बातों की ओर भी इशारा किया है, जिसे भाजपा-संघ के आम कार्यकर्ता सिर्फ दबी जुबान में चर्चा कर रहे थे। उनके मुताबिक, “भाजपा, संघ और आम नागरिकों की सबसे बड़ी शिकायत रही है कि भाजपा के मंत्री छोड़िये, विधायकों और सांसदों तक से मुलाक़ात कर पाना एक टेढ़ी खीर बना हुआ है। भाजपा के निर्वाचित सांसद हमेशा इतने व्यस्त कैसे रहते हैं?”
543 सीटों पर मोदी के चेहरे पर चुनाव लड़ने के विचार को ख़ारिज करते हुए शारदा उस बिंदु की ओर इशारा करते हैं, जिससे आरएसएस का आम कार्यकर्ता सबसे अधिक खफा है, वह है भाजपा के शीर्ष नेतृत्व के द्वारा संगठन के लिए दशकों से समर्पित कार्यकर्ताओं के स्थान पर रातों-रात भगौड़ों को पार्टी का टिकट देने की नई परंपरा। हालांकि इसकी शुरुआत तो 2014 से ही हो गई थी, लेकिन हाल के वर्षों में मोदी-शाह की जोड़ी ने इसे इतने बड़े पैमाने पर लागू कर दिया है कि वस्तुतः अब उन्हें संघ और भाजपा के पुराने कार्यकर्ताओं की जरूरत ही नहीं रह गई थी।
303 से 240 पर सिमट चुकी भाजपा का नेतृत्व आज भी मीडिया और सरकारी तामझाम से ऐसा माहौल बनाने में व्यस्त है, जैसे अल्पमत में आ जाने के बावजूद पीएम मोदी की सेहत में कोई फर्क ही नहीं पड़ा है, इसलिए बाकी लोग भी मान लें कि कहीं कुछ नहीं हुआ। इस पैंतरों से जनता के एक बड़े हिस्से को भले ही कुछ समय तक मूर्ख बनाये रखना संभव हो, लेकिन आरएसएस तो भाजपा की दाई है, जिसने इसके आज के नेताओं को नहला-धुलाकर चलना-बोलना और दौड़ना सिखाया है।
आरएसएस का यह स्पष्ट रुख भविष्य को लेकर बहुत कुछ संकेत देता है, जो यह भी बताता है कि संघ अपनी छवि को लेकर कितना सतर्क है। पिछले 10 वर्ष तक चुपचाप सब कुछ देखते हुए भी आरएसएस और उसके कार्यकर्ता ख़ामोशी से अपने हिस्से की मलाई खा रहे थे, लेकिन भाजपा की हार की आशंका या भावी टूटन की आहट उसे 1948 के सबक को याद दिला देती है, इन बातों को देखकर तो ऐसा ही लगता है।