डॉ. विकास मानव
मनुष्य जीवन में शांति और सलामती तब आ सकती है जब वो पीछे लौटे, आम प्राणी बन जाए। वो मनुष्य से ऊपर नहीं, देवता नहीं, मनुष्य से नीचे, सजीव हो कर जिए तो ही विश्वशांति संभव है। मन द्वारा निर्मित योजनाओं से कभी शांति नहीं आएगी। मन द्वारा रचित आदर्शों को कभी चरितार्थ नहीं किया जा सकता। मन को त्याग कर और केवल शरीर रह जाने पर ही शांति आएगी। शांति हमारा प्राणी सहज स्वभाव है, उसे प्राप्त नहीं कर सकते। वो तो प्राप्त ही है, बस मन को छोड़ देना है।
सभी लोग हमेशा के लिए मन को छोड़ कर केवल शरीर हो जाएं तो वे केवल दैहिक आवश्यकताओं के लिए जिएंगे। शरीर को केवल आहार और विश्राम चाहिए। शरीर प्रकृति से ही बैरागी है। मन कभी बैरागी नहीं बन सकता। मन का मतलब ही राग है, रंग है, रस है, मनोरंजन है। मन की मांगें पूरी करते रहना संसार है, मन से हो सके उतने दूर रहना सन्यास है।
अगर ऐसा हो जाए तो आरोग्य लाभ होगा, आयुष्य लाभ होगा। जब मन शरीर में एकाग्र हो जाए तो ऐसे ध्यान से स्वास्थ्य का सीधा सम्बंध है। आप के रोग मिटने लगेंगे, मनोरोग तो होंगे ही नहीं। समूह में, इस से कुदरती रूप से ही समाजवाद स्थापित होगा। सब सिर्फ रोटी कपड़ा मकान बिजली पानी सडक आदि प्राथमिक आवश्यकताओं से लोग सन्तुष्ट होंगे तो हम सब प्रेम से, मैत्री से रहेंगे।
हमेशा के लिए मन से मुक्त हो जाएंगे तो जीवन कैसे जिएंगे? व्यवहार कैसे करेंगे? परिवार, समाज, व्यवसाय और पूरा संसार है, उस में रहना भी तो है। व्यक्तिगत और नागरिक के तहत वहां कुछ जिम्मेदारियां है। इस निर्वहन के लिए मन चाहिए। और फिर सुख भी भोगने है, मनोरंजन करना है, रागरंग रस भी चाहिए। तो मन को रखना भी होगा और उस के उपयोग की अतिशयोक्ति से बचना भी होगा।
यह एक संतुलन है जो आप को शरीर और मन के बीच करना है। सब से पहले तो आप को कुछ दिन एकांत में रहना होगा। इस में मन के रचाए सारे खेल को एक निश्चित समय के लिए छोड़ देना होगा। किसी रिज़ॉर्ट में चले जाइए। केवल शरीर को व्यक्त होने दीजिए, मन को थोड़े समय के लिए चुप कर दीजिए।
आप देखेंगे कि आप एक शरीर है बस। आप को खाना चाहिए और सो जाना है। रागरंग, मनोरंजन, बातचीत, विचार कुछ ना हों, और मोबाइल भी ना हो इस का ध्यान रखिए। यह कठिन है। ज़्यादातर लोग यह नहीं कर पाएंगे। मैंने यह किया था। मैंने स्वयं को अनिश्चित समय तक अकेला रखा और मैं देख पाया कि मैं सिर्फ एक शरीर हूं। हालांकि मन का न्यूनतम उपयोग तो करना ही पड़ता है, फिर भी मैं उन डेढ़ वर्षों में आठ महीने तक लगभग शुन्यमन रहा।
उस के पहले मैं अनेक बार असफ़ल हो चुका था, लेकिन आखिर में मैंने हो सके उतना निराधार, निरालंब, निराश्रय जीवन जीने की कोशिश की और यह हुआ। कोशिशें जब समाप्त हो जाती तब विलक्षण ध्यान के क्षण आ जाते। यह भी सब नहीं कर सकते। केवल शरीर होने का एहसास एक लंबा प्रशिक्षण मांगता है।
हम अगर अपने शारीरिक स्वास्थ्य को सब से अधिक महत्व देंगे तो समाजवाद आएगा। हम मन को जितना कम सुनेंगे उतना ही हम निरोगी जिएंगे और हमें दीर्घायुष्य प्राप्त होगा। मन सुख की कामना करता है, शरीर भूख तृप्त हो जाए तो शांत हो जाता है। हम सब सजीव की तरह जिएं तो पृथ्वी स्वर्ग बन जाए। लेकिन ऐसा तो कौन जिएगा? कुछ ही लोग।
तो बाकियों का क्या? वे कभी केवल शरीर होने का अनुभव नहीं करेंगे, एक दिन के लिए भी वे उस तरह रिज़ॉर्ट में अकेले नहीं रह सकते। थोड़े दिन के लिए जाएंगे तो भी मन को तो कुछ न कुछ चाहिए ही और उसे वो देना ही पड़ेगा। फिर मन पर दमन गुज़रना तो उचित नहीं। तो कुछ क्रियाएं, कुछ तकनीकें, कुछ काम मन को देने पड़ेंगे, ऐसे काम जो उत्पादक ना हों, कुछ पाने के लिए नहीं, बस ऐसे ही।
कम से कम तीन दिन कुछ ध्यान प्रयोग करें, विधियों को सीखें और फिर उन में से जो पसंद आए उस क्रिया को घर पर रोज़ एक घण्टे के लिए दोहराएं। कम से कम एक प्रयोग, छुट्टी के दिन दो तीन, पांच, जीतने हो सके उतने प्रयोग कीजिए। वो समय आप को मन से छुटकारा और स्वास्थ्य लाभ देगा।
आप का ध्यान करना आप के लिए आरोग्य और आयुष्य की वृद्धि का तो कारण बनेगा ही, इसी से आध्यात्मिक राष्ट्रवाद, वैज्ञानिक धर्म और कुदरती समाजवाद की स्थापना होगी।
मैं जिस नव्य अध्यात्म की बात कर रहा हूं उस में कुछ दिव्य, अलौकिक, गुढ़ नहीं है लेकिन एक बुद्धिगम्य रहस्यवाद है। यहां ईश्वर की जगह प्रकृति, आत्मा की जगह ऊर्जा और भौतिकवादी अध्यात्म है।
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