अग्नि आलोक
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ध्यान-तंत्र : मीन, मांस, मद्य, मुद्रा और मैथुन

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           रिया यादव 

ध्यान-तंत्र साधनाओं में पंच मकार का विशेष उल्लेख और महत्त्व माना गया है, विशेष रूप से साधना के प्रयोगात्मक स्तर पर। मीन, मांस, मद्य, मुद्रा और मैथुन पंच मकार हैं.

    सांसारिक विषयों से मानसिक त्याग और वैराग्य आवश्यक है.  पंच मकार में इनका विशिष्ट अर्थ है.

        *मीन :*

– ये शुक्राणु हैं जो मछली के स्वरूप में वीर्य में वास करते हैं, पुरुष के अंडकोष में। योग की क्रियाओं, आसन, प्राणायाम, बंध एवं मुद्रा आदि, से शुक्राणुओं को उत्तेजित किया जाता है, जिससे यह सूक्ष्म नाड़ियों में प्रवेश करते हैं।

 शुक्राणु ही योगबल को आत्मबल और तत्पश्चात् ब्रह्मबल में परिवर्तित करते हैं। कुंडलिनी शक्ति जागृत करने के लिए, जाग्रत होने के उपरांत उसके उपयोग के लिए, शुक्राणु ही आधार हैं।

*मांस :*

    म + अंश.  महर्लोक का, हृदय/अनाहत चक्र का, प्रवेशद्वार है, अंश है।

–  सुषुम्णा सूक्ष्म नाड़ी मांस से ओतप्रोत है अपने उद्गम में। अग्नि तत्त्व जाग्रत होता ‌है मणिपुर चक्र में और यह अग्नि कंठ में स्थित विशुद्धि चक्र का वेध करती है मुण्ड में प्रवेश करने के लिए। इस प्रवेश मार्ग/द्वार पर स्वयं के कच्चे मांस के जलने की गंध से योगी ओतप्रोत होता है।

*मद्य :*

म + त् (द्) + य. म है महर्लोक, अनाहत चक्र। यहां वायु तत्त्व विशेष है। ‘य्’ बीज वर्ण है। त् एकवचन है। यहां एक ही बाह्य केवल-कुंभक प्राणायाम से प्राण संधान किया जाता है। प्राण-जय सिद्धि उपलब्ध होती है योगी को।

–  प्राण-जय सिद्धि आधार है अनेकानेक अन्य सिद्धियों के लिए, अष्टमहासिद्धियों के लिए भी। चौरासी लाख योनियों में भ्रमण से मुक्ति भी प्राण-जय सिद्धि प्रदान करती है। वस्तुत: मोक्ष इसी सिद्धि पर अवलंबित है।

*मुद्रा :*

योग/तंत्र में विशिष्ट मुद्राएं हैं, आसन और प्राणायाम से संचालित होती हैं।

–  चैतन्ययोग मुद्राएं

अश्विनी/शक्तिचालिनी, महामुद्रा, महाबंध (मूल, उड्डियान, जालंधर), महावेध, शाम्भवी, विपरीतकरणी, वज्रोली, अमरोली, सहजोली आदि।

–  राजयोग मुद्राएं –

खेचरी, गोचरी, दिक्चरी, भूचरी, चांचरी, अगोचरी, उन्मनी आदि।

*मैथुन :*

–  वाममार्गी तंत्र विद्या के अभ्यास में नारी सहयोगिनी होती है पुरुष साधक के लिए। शिवलिंग द्योतक है शिवशक्ति के युग्म का, अर्धनारीश्वर स्वरूप का।

अर्थात्,

–  पुरुष और प्रकृति का योग ही सृष्टि का आधार है, सृजन, संचालन और विखंडन के लिए। यहां पुरुष, चैतन्य स्वरूप, निर्गुण तथा निराकार है और प्रकृति, शक्ति रूपा है, सिद्धि रूपा है, समस्त विधाओं और कर्मों की प्रतिबिंब है।

*श्रीविद्या :*

–  योग-तंत्र आध्यात्मिक साधना का परम् आयाम/लक्ष्य है बिन्दु का अनुसंधान। श्रीविद्या वाममार्ग का अनुमोदन करती है और वैदिक संस्कृति में ऋषिगण विवाह भी करते थे इसी उद्देश्य से।

–  श्रीं कूट बीजाक्षर है, जिससे क्रीं और ह्रीं प्रकट होते हैं। निर्गुण बिन्दु में कामना का उद्भव (श्रीं), तत्संबंधी ज्ञान/सिद्धि का प्रादुर्भाव (क्रीं) और उसका क्रियात्मक रूप में परिणत होना (ह्रीं), यह परम् पद है साधक के लिए।

–  वाममार्गी तंत्र कामेश्वर-कामेश्वरि के रूप में आध्यात्मिक साधना का विमोचन करता है। यहां त्रिपुरसुंदरी ललिता का प्राकट्य स्वत: होता है, अलौकिक सिद्धियों के रूप में, साधक के उपभोग के लिए। इसे राजराजेश्वरी विद्या, श्रीविद्या कहते हैं, जो ब्रह्म विद्या ही है।

*उपसंहार :*

*  कुण्डलिनी शक्ति का जागरण, शुक्राणु का ऊर्ध्वगमन, सुषुम्णा नाड़ी का मणिपुर चक्र से उत्थान और मुण्ड में अनाहत चक्र में चैतन्य आत्मप्रकाश का प्राकट्य। यह है प्रथम आयाम/लक्ष्य वाम तंत्र साधक के लिए।

*  द्वितीय आयाम/लक्ष्य है चैतन्य स्व-आत्मा को किसी पद विशेष में स्थिर करना, जैसे सिद्ध, इन्द्र, रुद्र, विष्णु, आदि और उन पदों से संबंधित शक्तियों का उपभोग करना।

*  तृतीय आयाम/लक्ष्य है निष्काम रहते हुए, पद पर आसीत् हुए बिना, बिना किसी धारणा, आसक्ति, संकल्प के, आज्ञा चक्र व सहस्रार में प्रवेश करना और बिन्दु, परम-आनन्द, शून्य/पूर्ण का बोध करना।

*  वैदिक संस्कृति और सभ्यता में उत्कृष्टतम है ब्रह्म विद्या, जिसका एक विस्तार है पंच_मकार युक्त श्रीविद्या।

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