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ध्यान- योग साधना और अमरत्व की पूर्णता

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       अनामिका, प्रयागराज 

ध्यान-योगसाधना स्थूल शरीर से शुरू होकर आत्मा तक की अंतरंग साधना-यात्रा है. लकीर के फ़कीर बने लोगों के मामले में एक जन्म में नहीं पूरे चौदह जन्म लग जाते हैं। मनुष्य शरीर में तीन महत्वपूर्ण केंद्र हैं। उन्हीं से आत्मा का सम्बन्ध जुड़ा हुआ है और उसी से जीवन हर पल संचालित रहता है। 

    यदि उन केंद्रों का ज्ञान और अनुभव साधक को नहीं है तो वह क्या खाक साधक है. किस बात का साधक/साधिका है वह. उसकी साधना कभी भी सफल नहीं हो सकती, यह निश्चित है. यह भी निश्चित है कि ऐसा अपाहिज साधक कभी भी आत्मतत्व को उपलब्ध नहीं हो सकता।

    स्थूल शरीर में उन महत्वपूर्ण केंद्रों में पहला केंद्र है–‘मस्तिष्क’। वैसे यदि विचार- पूर्वक देखा जाय तो मस्तिष्क का सम्बन्ध मन से है। मन का कार्यक्षेत्र मस्तिष्क है। मस्तिष्क के लिए मन महत्वपूर्ण है। मन के माध्यम से मस्तिष्क का सम्बन्ध आत्मा से है। मस्तिष्क और आत्मा के बीच मन है। हृदय दूसरा केंद्र है। प्राणों के माध्यम से हृदय का सम्बन्ध आत्मा से है। ह्रदय और आत्मा के बीच प्राण हैं। 

       तीसरा केंद्र है–नाभि। नाभि से आत्मा का सम्बन्ध सीधा है। उन दोनों के बीच किसी की मध्यस्थता नहीं है। मानव शरीर को जीवन प्रवाह जहाँ से मिलता है, वह है–नाभि और यही कारण है कि नाभि केंद्र सबसे पहले विकसित होता है शिशु का। मानव के शरीर का सर्वाधिक महत्वपूर्ण बिन्दु नाभि है। गर्भावस्था में इसी बिन्दु से शिशु का सम्बन्ध माता के प्राणों से, चेतना से और जीवन से जुड़ा हुआ रहता है।

      ज्ञान, कृपा, करुणा, प्रेम, स्नेह आदि का जन्ममस्तिष्क और मन के संयोग से ज्ञान, बुद्धि, विवेक, प्रज्ञा और विचार का जन्म होता है। हृदय और प्राणों के संयोग से प्रेम, स्नेह, दया, कृपा, करुणा, अनुकम्पा आदि का जन्म होता है हृदय में और यही एकमात्र कारण है कि मनुष्य मस्तिष्क और हृदय पर सर्वाधिक बल देता रहता है।जितनी भी शिक्षाएं हैं, वे सब मस्तिष्क की शिक्षा है। 

      सारा ज्ञान मस्तिष्क का ज्ञान है। नाभि पर किसी का ध्यान नहीं जाता और जाता भी है तो बहुत कम। अन्य केंद्रों से सर्वाधिक महत्वपूर्ण केंद्र नाभि को मानते हैं योगी और साधकगण। सभी प्रकार के लोगों का जीवन मस्तिष्क से हीे उलझा हुआ रहता है। मस्तिष्क की ही परिक्रमा करता रहता है वह।

      नाभि सम्पूर्ण शरीर का केंद्र बिन्दु है। योगी और साधकों की साधना धारा सर्वप्रथम मस्तिष्क से प्रारम्भ होकर हृदय केंद्र पर आती है और वहां से आती है नाभि केंद्र पर। नाभिकेंद्र एक ओर तो आत्मा से जुड़ा हुआ है और दूसरी ओर जुड़ा हुआ है हृदय से भी। मनुष्य को प्राणऊर्जा प्राप्त होती है नाभि से।

      इसलिए कि नाभि का आतंरिक सम्बन्ध हृदय से है। गर्भस्थ शिशु की नाभि से निकल कर एक नाड़ी जिसे योग की भाषा में ‘पीयूष नाड़ी’ कहते हैं, माता के हृदय से जुडी हुई रहती है।

       इसी रहस्यमयी नाड़ी के द्वारा शिशु प्राणशक्ति और उस प्राणशक्ति के माध्यम से जीवनीशक्ति को बराबर प्राप्त करता रहता है।मानव सभ्यता जैसे-जैसे विकसित होती गयी, वैसे-ही-वैसे मनुष्य मस्तिष्क को अधिक-से- अधिक महत्त्व देता चला गया। मस्तिष्क उसके लिए मुख्य हो गया। 

      शरीर का मूल्य कम तथा मस्तिष्क का मूल्य सर्वाधिक हो गया उसकी दृष्टि में लेकिन मनुष्य को यह समझना चाहिए कि मस्तिष्क को मुख्य मानना और उसे महत्त्व देना सर्वाधिक घातक सिद्ध हो रहा है वर्तमान समय में उसके लिए–इसमें सन्देह नहीं मस्तिष्क के अत्यधिक विकास का परिणाम वर्तमान समय में एक पूर्ण योग्य और पूर्ण विवेकशील व्यक्ति का दर्शन दुर्लभ हो गया है और यही एकमात्र कारण है कि आज का प्रत्येक व्यक्ति मानसिक रूप से अस्थिर है, उद्भ्रान्त है और तनावग्रस्त है। 

        वह क्या करना चाहता है और कर क्या रहा है–इसका होश उसे नहीं और यही एकमात्र कारण है कि इस समय जितने भी रोग और जितनी भी व्याधियां हैं, उनमें 80 % मन से सम्बंधित हैं, शरीर से नहीं। 

    यदि भविष्य में भी ऐसी ही स्थिति रही तो एक दिन ऐसा आएगा जब 100 % लोग मानसिक रूप से रुग्ण हो जायेंगे।

प्राचीन काल में तीनों केंद्रों का उपयोग होता था समय- समय पर। 

      उसके बाद मानव जीवन, मानव सभ्यता और मानव संस्कृति में भारी परिवर्तन हुआ। इसका परिणाम यह हुआ कि मनुष्य का ध्यान नाभि केंद्र से हट गया और केंद्रित हो गया मस्तिष्क केंद्र और हृदय केंद्र पर।

       इसके फलस्वरूप आध्यात्मिक उन्नति हुई और अध्यात्म से सम्बंधित योग, तंत्र आदि का विकास हुआ और उन पर आधारित हज़ारों ग्रन्थों की भी रचनाएँ हुईं। कालान्तर में सर्वाधिक भक्ति और प्रेम-रस का भी विकास हुआ जिसका परिणाम यह हुआ कि रस, प्रेम, श्रृंगार, सौंदर्य, त्याग आदि का आश्रय लेकर विभिन्न प्रकार के काव्यों की रचना कवियों ने की लेकिन नाभि केंद्र का उपयोग बहुत कम होता गया।

      इसका भी परिणाम सामने आना ही था और वह आया पतंजलि, बुद्ध, महावीर आदि जैसे कुछ ही योगी प्रत्यक्ष रूप में संसार को अपने-अपने ज्ञान से प्रकाशित कर सके, इससे अधिक नहीं।

       मस्तिष्क के विकास का परिणाम पिछले 500 वर्षों में मनुष्य ने सर्वाधिक उपयोग मस्तिष्क का किया है और अभी भी कर रहा है जिसके परिणामस्वरूप प्रबल रूप से ज्ञान-विज्ञान का विकास हुआ और उसके प्रत्येक क्षेत्र की उन्नति हुई।     

       लेकिन मनुष्य को यह ज्ञात होना चाहिए कि मस्तिष्क अत्यन्त नाजुक अंग है और ऐसे नाजुक अंग पर पिछले 500 वर्षों से इतना भार बराबर दिया जा रहा है कि अब तक मस्तिष्क के तन्तु टूटकर बिखरे क्यों नहीं?

     यह आश्चर्य की बात है। सोचने की बात है कि मानव मस्तिष्क पर कितना भार पड़ता है–दुःख का भार, कष्ट का भार, चिन्ता का भार, शोक का भार, रोग का भार, शिक्षा का भार, ज्ञान का भार यहाँ तक कि सम्पूर्ण जीवन का भार.

      मस्तिष्क में अरबों-खरबों कोशिकाएं हैं और लगभग सात करोड़ सूक्ष्म तन्तु हैं। इसी से समझ लेना चाहिए कि मस्तिष्क कितना नाजुक है। 

      सबसे आश्चर्य की बात यह है कि उन सात करोड़ तन्तुओं से पृथ्वी को नापा जाय तो पूरी पृथ्वी का व्यास उसके अन्दर आ जायेगा। इतने सूक्ष्म हैं वे तन्तु।

मस्तिष्क पर सर्वाधिक भार विचारों का पड़ता है.

     विचारों का भार जब अपनी सीमा अधिक हो जाता है तो मनुष्य को पागल बनने में देर नहीं लगती। अत्यधिक विचार करने पर जीवन की जो धारा है, वह मस्तिष्क के चारों ओर घूमने लगती है।     

    एक साधक या साधिका द्वारा उसी जीवन धारा को अपनी विशेष साधना बल से नीचे उतारने का प्रयास करता किया जाता है। लेकिन यह तभी सम्भव है जब वह शरीर विज्ञान से सम्बंधित आवश्यक ज्ञान प्राप्त किये हुए होता है। शरीर के प्रति दो दृष्टियां हैं वे दो दृष्टियां हैं–भोग दृष्टि और त्याग दृष्टि। 

      जो इन दोनों से ऊपर उठ जाता है अर्थात्–न भोग और न त्याग। वही साधक सफल होता है। जीवन में जो भी श्रेष्ठ है, जो भी महत्वपूर्ण है और जो भी उपलब्ध करने योग्य है, उसका मार्ग शरीर के भीतर है। 

     जो इस मार्ग से भली भांति परिचित और अनुभवयुक्त है, वही आपकी जीवन धारा को नाभि केंद्र तक ले जा सकने में समर्थ है। पूर्णत्व का अनुभव आपको हमारे डॉ. मानवश्री की ऊर्जा मात्र चौबीस घंटे में कराने में सक्षम है. लेकिन आपकी ओर से यह समय केवल उन्हें देना होगा, परिवार, रिस्तेदार, बाजार, समाज, संसार को रत्ती भर भी नहीं- एक बात. दूसरी बात यह कि सर्वस्व की उपलब्धि के लिए आपको उन्हें कोई भी भौतिक चीज नहीं देनी है. उनके प्रति मात्र स्वयं का  समर्पण करना है : समग्र समर्पण.

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