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पर्यावरण संतुलन में हिमालय के ग्लेशियरों का पिघलना बड़े ख़तरे की घंटी?

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स्वदेश कुमार सिन्हा

दुनिया के पर्यावरण संतुलन में हिमालय का‌ बहुत योगदान है। इस पर्वत श्रृंखला में दुनिया की सबसे ऊंची‌ पर्वतमालाएं हैं तथा इनके ग्लेशियरों से निकलने वाली सदाबहार नदियों से एशिया के अनेक देशों; जिसमें भारत, चीन, नेपाल, बांग्लादेश, पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान के कृषि अर्थव्यवस्था पर इन नदियों का बहुत योगदान है।

इसके साथ ही इन देशों के आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक क्षेत्रों में भी इन‌ नदियों की बहुत अधिक भूमिका है, लेकिन जलवायु परिवर्तन के कारण हिमाचल के क्षेत्रों में वर्षा तथा बर्फबारी अनियमित हो गई है। पिछले वर्ष सर्दी के मौसम में हिमालय क्षेत्रों में बहुत कम बर्फ गिरी और इस बार बहुत ज़्यादा।

हिमालय क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन के कारण गर्मी बढ़ने से ग्लेशियर के पिघलने की गति बहुत तेज़ हो गई है, जिसके कारण से हिमालय की‌ बहुत सी सदाबहार नदियों के लुप्त हो जाने का ख़तरा बढ़ गया है। 

प्राकृतिक तौर पर ग्लेशियर बनने और पिघलने के तीन कारण हैं।

पहला-धरती सूरज के इर्द-गिर्द गोल नहीं, बल्कि अंडाकार घेरा बनाते हुए घूमती है। यह अंडाकार घेरा भी हमेशा एक जैसा नहीं रहता। यह घेरा कभी छोटा हो जाता है, तो कभी बड़ा। यह घेरा चालीस हज़ार साल बाद बदलता है।

दूसरा कारण- धरती का अपनी धुरी पर झुके होना है। पहले दो कारण धरती की अंतरिक्ष में स्थिति पर निर्भर हैं।

तीसरा कारण- धरती के भौगोलिक वातावरण के कारण है। यानी इसके वातावरण में गैसों की मात्रा, नमी, ख़ुश्की आदि।

ग्लेशियर के बनने की प्रक्रिया को ‘ग्लेशिएशन’ और पिघलने की प्रक्रिया को ‘इंटर-ग्लेशिएशन’ कहा जाता है। यह सच है कि अब मौजूद ग्लेशियर लाखों साल पहले बने थे। आज से दस हज़ार साल पहले ये पिघलना शुरू हो चुके थे। क्या यह चिंता का विषय है या नहीं? आइए इस संबंध में कुछ अन्य तथ्यों समेत बात करते हैं।

अब इंसानी गतिविधियों के कारण प्राकृतिक कारणों के साथ-साथ मानव निर्मित कारण भी इस प्रक्रिया में जुड़ चुके हैं, जैसा कि 18वीं सदी के बाद विकसित हुई पूंजीवादी व्यवस्था के बाद आज 2024 तक दुनिया भर में हर जगह फ़ैक्टरियों, वाहनों और घरेलू स्तर पर ऊर्जा की खपत में वृद्धि हुई है।

कोयला, जीवाश्म ईंधन, पेट्रोल-डीज़ल आदि के इस्तेमाल से ग्रीनहाउस गैसों में भी बड़े स्तर पर वृद्धि हुई है। यानी 200 साल पहले सिर्फ़ प्राकृतिक कारण थे,लेकिन आज पूंजीवादी उत्पादन के कारण इंसानी गतिविधियां हावी हो चुकी हैं। इसमें मुख्य दोषी पूंजीपति हैं। इंसान ने ग्लेशिएशन के तीसरे कारक को बहुत ज़्यादा प्रभावित किया है।

ग्लेशियरों का पिघलना तब तक चिंताजनक नहीं है, जब तक ये प्राकृतिक कारणों से पिघल रहे थे, क्योंकि इनके पिघलने की दर बहुत कम थी। लेकिन कारख़ानों और वाहनों के प्रदूषण के साथ विश्व स्तर पर जितना तापमान बढ़ा है, उसके साथ इनके पिघलने की दर में कई गुना वृद्धि हुई है।

प्राकृतिक तरीक़े से जब वातावरण बदलता है, तो इसके साथ ही इंसान के साथ-साथ अन्य जीव प्रजातियों को वातावरण के अनुसार ढलने के लिए काफ़ी समय मिल जाता है। लेकिन जब इसकी दर कई गुना बढ़ जाती है, तो जीव प्रजातियां (समेत मनुष्य) थोड़े समय में बदल नहीं पातीं, जिसके कारण इनमें से कई लुप्त होने की कगार पर पहुंच जाती हैं।

साल 2024 पिछले सालों के मुक़ाबले सबसे अधिक गर्म साल दर्ज किया गया है। साल 2024 के जून-जुलाई महीनों ने गर्मियों के पिछले सभी रिकॉर्ड तोड़ दिए। साल 2024 का नवंबर महीना भी अब सबसे अधिक गर्म नवंबर महीनों में से एक रहा। पिछले दो दशकों में ही धरती के 270 अरब टन ग्लेशियर पिघल चुके हैं।

अगर साल की दर देखनी हो तो यह 267 गीगाटन प्रति वर्ष बनता है। यह कितना पानी है, आप इसका अंदाज़ा इस बात से लगा सकते हैं कि इससे आयरलैंड जैसे देश को सारा साल तीन मीटर पानी के साथ ढंककर रखा जा सकता है। यह यहीं नहीं रुकता, बल्कि यह हर दशक के दौरान 48 गीगाटन प्रति वर्ष की दर से बढ़ रहा है।

इसी कारण आई.सी.आई.एम.ओ.डी. के अनुसार, अगर इसी तरह तापमान बढ़ता रहा, तो साल 2100 तक 80% ग्लेशियर ख़त्म हो जाएंगे, लेकिन अगर साल 2100 तक विश्व स्तर पर धरती का तापमान सिर्फ़ 1.5°C ही बढ़ता है, तो इसके साथ 30% ही ग्लेशियर ख़त्म होंगे। अब आप ख़ुद सोच सकते हैं कि पूंजीवादी व्यवस्था वातावरण को किस हद तक प्रभावित कर रही है।

धरती की सतह का दसवां हिस्सा ग्लेशियरों से ढंका हुआ है, जो कि लोगों के पीने और अन्य कामों में इस्तेमाल के लिए साफ़ पानी का स्रोत है। नेपाल में बहुत सारे इलाक़े इस पानी पर निर्भर थे, जिन्हें अब पानी की तलाश में अपनी जगह छोड़कर जाना पड़ रहा है।

हिमालय की पर्वत-श्रृंखला से 10 बड़ी नदियां निकलती हैं, जिनके पानी का स्रोत ग्लेशियर ही हैं और लगभग 1.3 अरब लोग इस पर निर्भर हैं। ग्लेशियरों के पिघलने के बुरे प्रभाव इस प्रकार हैं:

आर्थिक प्रभाव: सिंध, गंगा, सतलुज, ब्यास, ब्रह्मपुत्र आदि नदियां हिमालय से निकलती हुई निचले मैदानी इलाक़ों से गुज़रती हैं। इंसानी सभ्यता हज़ारों सालों से इन नदियों पर किसी ना किसी हद तक निर्भर रही है। ये नदियां मनुष्यों के लिए खेती-बाड़ी, मछलियां और अन्य तरह के भोजन की प्राप्ति का मुख्य स्रोत रही हैं।

बदल रहे मौसमों में पड़ रहे फ़र्क़ के कारण वर्षा का समय-काल प्रभावित हुआ है। बढ़ती गर्मी के कारण समय से पहले ही ग्लेशियर पिघल जाते हैं, जिसके साथ फ़सल की सिंचाई का समय प्रभावित होता है। बाढ़ जैसी आपदाओं के साथ हमारी रिहायश, फ़सलों आदि को नुक़सान होता है।

लंबे समय में जब ग्लेशियर बड़े स्तर पर पिघल जाएंगे, तो हमारे लिए ये नदियां नहीं रहेंगी, जिन पर आज खेती के लिए, पीने वाले पानी के लिए और अन्य बहुत सारे स्रोतों के लिए हम निर्भर करते हैं। भू-जल (धरती के नीचे मौजूद साफ़ पानी) का स्तर पहले ही बहुत नीचे जा चुका है और इसकी भरपाई भी नदियों और वर्षा के पानी के साथ ही होती है। यह भी बुरी तरह प्रभावित हो जाएगा।

धरती पर कुछ चुनिंदा जगह हैं, जहां फूलों, जानवरों की प्रजातियों की भरमार है। इन जगहों को बायोलॉजिकल हॉट-स्पॉट कहा जाता है। धरती पर कुल ऐसे 27 हॉटस्पॉट हैं और उनमें से हिमालय पर्वत (पूर्वी हिमालय) एक है। पर आज हिमालय बढ़ रही गर्मी और पिघल रहे ग्लेशियरों के कारण बुरी तरह प्रभावित हो रहा है, जिससे हिमालय में बसे कीड़े-मकौड़े, फूलों, तितलियों की प्रजातियाँ विलुप्त होने की कगार पर है।

आप यह भी सोच सकते हैं कि प्रजातियों के विलुप्त होने से हमें क्या फ़र्क़ पड़ेगा? धरती के कुल वातावरण का संतुलन इसके जैविक और अजैविक कारकों पर टिका हुआ है। जब एक भी प्रजाति विलुप्त होती है, तो इसके साथ आप अंदाज़ा नहीं लगा सकते हैं कि कुल संतुलन किस हद तक तबाह हो जाता है।

जैसे मधुमक्खी की एक प्रजाति अगर हिमालय पर 100 फूलों की प्रजातियों का परागण करती हों और यह प्रजाति विलुप्त हो जाए तो इसके साथ इन 100 फूलों की प्रजातियों का विलुप्त होना लगभग तय है। आगे हर एक फूल की प्रजाति पर मान लो अन्य कीड़े-मकौड़ेे, पंछी आदि निर्भर करते हों, तो वे सब भी ख़त्म होने की ओर बढ़ेंगे।

असल में यह ताश के पत्तों का बना हुआ एक महल है, जिससे आप अगर एक भी पत्ता खिसका दें, तो यह सारा महल तबाह हो जाता है। अगर प्रजातियां ख़त्म होंगी, तो हमारा वातावरण भी तबाह होगा। इसका असर हम पर, फ़सलों आदि पर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से ज़रूर पड़ेगा, जो इंसानी अस्तित्व के लिए भी ख़तरे पैदा करेगा।

विशेषज्ञों का मानना है कि जब लाखों साल पहले ग्लेशियर अस्तित्व में आए थे, तब उस समय बैक्टीरिया, वायरस और अन्य जीव इनकी सतह के नीचे दफ़न हो गए थे। जितनी तेज़ी से ग्लेशियर पिघलेंगे, उतनी ही तेज़ी से हमारा सामना इन मुसीबतों से भी होगा और कई तरह के वायरस हमें प्रभावित करेंगे।

इसके अलावा ग्लेशियर धरती के तापमान, वायु-दाब आदि को भी प्रभावित करते हैं, जिनमें बदलाव आने के कारण हमें मुसीबतों का सामना करना पड़ेगा।

ब्यास, गंगा, ब्रह्मपुत्र आदि नदियों पर हमने बांध बनाए हुए हैं, जिससे हमें ज़्यादातर बिजली इन हाइड्रोपावर प्रोजेक्टों से मिलती है। जैसे-जैसे ग्लेशियर ख़त्म होंगे और नदियां सूखती जाएंगी, हमारे लिए ऊर्जा के वैकल्पिक साधनों का सवाल उठ खड़ा होगा।

कुल मिलाकर ग्लेशियरों का तेज़ी से पिघलना ख़तरे की निशानी है। ग्लेशियरों के पिघलने के प्रभाव को देखने के लिए सिंध नदी का उदाहरण लिया जा सकता है। सिंध 2880 किलोमीटर लंबी नदी है, जिसमें से 709 किलोमीटर लद्दाख से गुज़रती है और यह 32,124,8 वर्ग किलोमीटर की जगह घेरती है।

इसके अलावा सिंध की सहायक नदियां जम्मू-कश्मीर और अन्य राज्यों में फैली हुई हैं। यह नदी कश्मीर-लद्दाख के बाद पाकिस्तान के लोगों के लिए जीवन जीने का ज़रूरी साधन है। इसी तरह गंगा नदी उत्तराखंड से होती हुई उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल से गुज़रती है और ब्रह्मपुत्र उत्तर-पूर्व के राज्यों में फैली हुई है।

इन नदियों के सूख जाने के साथ ही हिमालय के पैरों में बसे राज्य पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, सिक्किम आदि पूरी तरह उजड़ जाएंगे।

कुल मिलाकर ग्लेशियरों का पिघलना एक बड़े ख़तरे की घंटी है। इसी तरह हो पर्यावरणीय विनाश अगर नहीं रोका गया, तो बड़े मानवीय विनाश का‌ कारण बन सकता है।

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