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धीरज भाई की यादें!

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कनक तिवारी 

ऐसा शालीन मुंहफट व्यक्ति नहीं देखा। उनके सामने बैठना आईने के सामने बैठना रहा है। दुर्ग में पत्रकारिता में यह नाम अटल रहा है। सहकर्मी मुख्यमंत्री, सांसद, विधायक, संस्थाओं के पदाधिकारी, वकील, डाक्टर बनकर अपनी राह रेंग लिए। ये पत्रकारिता से इश्क लड़ाते लड़ाते उससे ब्याह कर एक खूंटे से बंधे रहे।

मोतीलाल वोरा मेहनती पत्रकार रहे हैं। पत्रकारिता उनका पाथेय नहीं पथ रहा है। अचानक प्रेस क्लब के गठन का विचार आया। अध्यक्ष पद के लिए धीरजलाल उपयुक्त नजर आये। पुलिस अधीक्षक ने दरीनुमा गलीचा प्रेस क्लब को भेंट किया। कुछ कुर्सियां और टेबलें वगैरह थीं। पता नहीं उनका क्या हुआ? दरी मेरे घर बैठक में बिछ गई थी। एक दिन धीरजलाल जी कुछ लोगों के साथ आ टपके। जुबान खुजलाने लगी। बोले ‘अच्छा, यह प्रेस क्लब वाला गलीचा है न? मोतीलाल के चेले हो न? तुम्हारा बस चले तो, प्रेस क्लब को ही उठा लाओगे।‘ मैंने कई दफे कहा कि आप अध्यक्ष तो दिखें। दाढ़ी तो नियमित बनाया करें। फोटो ठीक नहीं आती। बाल खिचड़ी हो चले हैं। जवाब मिला। ‘मुझे अध्यक्ष ही तो बनाया है, कोई दूल्हा बना रहे हो क्या?‘ मैंने जिरह की ‘कम से कम करीम मियां के जूतों की तरह ये फटी चप्पलें बदल आया करो।‘ जवाब मिला-‘देखो यार, मुझे अध्यक्ष वध्यक्ष नहीं बनना है। मैं प्रेस क्लब के लिए नाई या मोची तो नहीं बन सकता।‘ मोतीलाल वोरा, बिसाहू राम यादव, त्रिभुवन यादव जैसे नवभारत के संवाददाताओं को प्रतिष्ठित राजनेता बनने के बावजूद मुंहफटता से ही शिक्षा देता। धीरजलाल जैन के अन्दर एक रसिक भी बैठा जग का मुजरा लेता रहता। इन हजरत की कहानियां बीसियों बरस पहले सरिता वगैरह में छपती थीं। पत्रकारिता ने कई साहित्यकारों को लील लिया। एक शिकार ये भी रहे।

मध्य वर्ग के संस्कारों से लबरेज उनका ‘दुर्ग की डायरी‘ काॅलम रहा है। पाखंड, दोमुंहेपन, विलासिता और दम्भ के विरुद्ध मदारी की तरह डमरू बजाबजाकर पाठकों की भीड़ से तालियां बजवाने की कला धीरजलाल को आती रही। उनके लेखों के स्थानीय सन्दर्भों को संशोधित करके सर्वसुलभ बनाया जा सकता है। अपने दमखम पर परिवार की गृहस्थी को हाथी की चाल और हाथी की मस्ती से इसने खींचा। लड़कों को कच्ची उम्र में चालाकी और दूरदर्शिता से पैतृक व्यवसाय में खपा दिया। विज्ञापन, एजेंसी, आजीवन ग्राहक योजना वगैरह के मामले में धीरजभाई ने मुख्यालय का मुकाबला किया। खाली हाथ प्रेस जाने में उन्हें कोफ्त होती रही है। अदालती नोटिस छपाने के बाद एक वकील की हैसियत से कई बार मैंने अदालती विज्ञापनों के बिलों का भुगतान करने में स्वभावगत लापरवाही की। तब भी यह आदमी सम्बन्ध खराब किए बिना बरसों याद दिलाता रहा। एक वकील से तीन वर्ष बाद भी बेमियाद पैसे वसूल कर ले जाता।

सांसद चंदूलाल चन्द्राकर की पहली पत्रकारवार्ता मैंने आयोजित की थी। तरह तरह के व्यंजन और फलों के सेवन के बावजूद चाय नदारद थी। चंदूलालजी चाय नहीं पीते थे। पिलाते भी नहीं थे। धीरज लाल जी ने बदइंतजामी पर चुटकी ली ‘अखबार वाले या तो चाय पीते हैं या दारू। उसके बिना जो नमक आपने खिलाया है, वह बजाना मुश्किल है।‘ मुझे खिला पिला देता तो उलाहना देता, ‘‘तुम पर तो नमक का असर होता नहीं है। तुम्हें खिलाने से क्या फायदा?‘‘ अलबत्ता भाभी ने मुठिया की सब्जी कई बार खिलाई। यह सब लिखकर नमक का हक अदा कर रहा हूं। जाने इसे पढ़कर उसकी आत्मा के अंदर चौकन्ना बैठा आलोचक मेरे बारे में दिवंगतों के संसार में क्या क्या कहता फिरेगा।

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