राज वाल्मीकि
हिंदी साहित्य जगत के वरिष्ठ मार्क्सवादी विचारक, आलोचक और अंबेडकरी विचारधारा के समर्थक प्रोफेसर चौथीराम यादव का 12 मई 2024 को शाम 7:10 बजे निधन हो गया। वे दलित, स्त्री व आदिवासी साहित्य के पक्षधर आलोचक थे।
चौथीराम का जन्म 29 जनवरी 1941 को उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले के कायमगंज में हुआ। वे बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी से सेवानिवृत प्रोफेसर थे। बनारस में रहते थे। आपकी साहित्यिक सक्रियता अभी भी बरकरार थी। आपकी कई पुस्तकें हिंदी साहित्य जगत में चर्चित रही हैं। इनमे ‘उत्तरशती के विमर्श और हाशिये का समाज’, ‘हजारी प्रसाद द्विवेदी समग्र पुनरावलोकन और लोकधर्मी साहित्य की दूसरी धारा’, ‘लोक और वेद : आमने-सामने’ प्रमुख हैं।
चौथीराम को कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है। जिनमे प्रमुख हैं : साहित्य साधना सम्मान (बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना), सावित्री त्रिपाठी सम्मान, अस्मिता सम्मान, कबीर सम्मान, आंबेडकर प्रियदर्शी सम्मान और लोहिया साहित्य सम्मान आदि।
स्त्रियों की समानता और स्वतंत्रता की विरोधी है ब्राह्मणवादी व्यवस्था
हाल ही में उनसे हुई बातचीत में स्त्रियों के पक्ष की बात रखते हुए उन्होंने कहा था- ‘’अब तक लोग ज्यादातर इसी बात पर चर्चा करते हैं कि ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने दलितों शूद्रों अछूतों को उनके अधिकारों से वंचित रखा। पर एक सच्चाई यह भी है कि इस व्यवस्था ने सम्पूर्ण स्त्री समुदाय को भी उनके अधिकारों से महरूम किया। ब्राह्मणों में श्रेष्ठ वे ही माने जाते थे जिनका उपनयन संस्कार हुआ हो। जो जनेऊ धारण करते हों। और उपनयन संस्कार सिर्फ ब्राह्मण लड़कों का किया जाता था लड़कियों का नहीं। इसलिए ब्राह्मण स्त्रियों को भी पढ़ने लिखने का अधिकार नहीं था। उन्हें शिक्षा से दूर रखा जाता था। अगर डॉक्टर आंबेडकर ने दलितों पिछड़ों और स्त्रियों के लोकतान्त्रिक मूल्यों की रक्षा करने वाले संविधान की रचना नहीं की होती तो आज हम लोग तो कहीं होते ही नहीं..।”
इक्कीसवीं सदी में दलित विमर्श और स्त्री विमर्श शुरू हो गए थे। इस समय दलितों के सवाल उठाए गए। स्त्रियों के सवाल उठाए गए। ये महसूस किया गया कि पुरुष के साथ स्त्री का शरीर भी गिरवी रखा हुआ है। स्त्री अपने पति की दासी है। यही आदर्श माना जाता था। स्त्री-पुरुष का विवाह बंधन बराबरी पर है ही नहीं। पति परमेश्वर हो जाता है। यानी ईश्वर हो जाता है। और पत्नी को उसके चरणों की दासी कहा जाता है। इस पितृसत्तात्मक समाज में, इस पुरुष वर्चस्व वाले समाज में, स्त्री की भूमिका एक नौकरानी जैसी थी। वह अपने बच्चों की देखभाल करती थी। पति की सेवा करती थी। सास-ससुर की सेवा करती थी। एक स्त्री पूरी तरह बंट कर के पूरे परिवार की सेविका बनी हुई थी।
हिंदू धर्म की मूल समस्या है जाति व्यवस्था
हिंदू धर्म की मूल समस्या है जाति-व्यवस्था। वह लड़ाई अंबेडकर लड़ रहे थे। अंबेडकर ने जाति को एक ऐसा राक्षस बताया था जो दलित व वंचित वर्ग की मुक्ति के हर रास्ते पर अवरोध बनकर खड़ा था। इसलिए उन्होंने जाति के विनाश की बात कही थी। उन्होंने हिंदू धर्म को चार मंजिल की एक ऐसी इमारत बताया था जिसमें सीढि़यां नहीं हैं। यही कारण है कि हिंदू धर्म में उनका दम घुटता है और बौद्ध धर्म अपनाने की वजह भी यही रहा।
जाति व्यवस्था तो समाप्त हुई नहीं। इसलिए हमारी दूसरी लड़ाई सामाजिक-आर्थिक मुक्ति की लड़ाई है। यही लड़ाई फुले लड़ रहे थे और कथा साहित्य में प्रेमचंद।
लोक जीवन वास्तविक है काल्पनिक हैं आदर्श वेद ग्रंथ
चौथीराम यादव की एक पुस्तक है – ‘लोक और वेद’। इस पर बात की तो उन्होंने कहा था- ये जो लोक चेतना है, लोकजीवन है, लोक संस्कृति है, ये हमारी लोक परम्परा है, ये हमारा सामान्य लोगों का जीवन है, मजदूर है, किसान है, सामान्य जन है, जो मेहनतकश जनता है। जो हमारा श्रमजीवी समाज है। और ये समाज बड़ा व्यापक है। इसमें किसानों और मजदूरों से लेकर तमाम जो घुमंतू जातियां हैं। ये उन सब के लिए होता है। दूसरा है शास्त्र जीवन। ये शिक्षित लोगों का जीवन है। जो धर्मग्रंथ पढ़ते थे। पढ़ने-लिखने का काम कौन करते थे- ब्राह्मण। शिक्षा का अधिकार उन्हें ही था। शूद्रों को शिक्षा का अधिकार ही नहीं था। स्त्रियों को शिक्षा का अधिकार बिल्कुल नहीं था। चाहे ब्राह्मण स्त्री ही क्यों न हो। शूद्रों और स्त्रियों को वेद पढ़ने का अधिकार नहीं था। अब तक लोग ज्यादातर इसी बात पर चर्चा करते हैं कि ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने दलितों शूद्रों अछूतों को उनके अधिकारों से वंचित रखा। पर एक सच्चाई यह भी है कि इस व्यवस्था ने सम्पूर्ण स्त्री समुदाय को भी उनके अधिकारों से महरूम किया। वे इसे अपनी वैदिक संस्कृति मानते थे। स्त्रियां वेद नहीं पढ़ सकती थीं।
इसी श्रेष्ठता के अधिकार पर कबीर ने सवाल उठाए हैं। ब्राह्मण क्यों श्रेष्ठ है। श्रेष्ठता के दो आधार बताए गए हैं। एक तो यह कल्पना कि वे ब्रह्मा के मुख से पैदा हुए। अपनी श्रेष्ठता बताने के लिए कि हम परमपुरुष के मुंह से पैदा हुए। क्षत्रिय भुजाओ से पैदा हुए। वैश्य जंघा से पैदा हुए। शूद्र पैरों से पैदा हुए। ये थोथी कल्पना उन्होंने अपने को श्रेष्ठ साबित करने के लिए गढ़ी। ये कपोल कल्पित आदर्श गढ़ा। उनके ग्रंथों में यही सब कपोल-कल्पनाएं भरी हुई हैं।
हिंदुत्ववादी एजेंडे का उद्देश्य संविधान को खत्म करना है
राजनीति पर बात करते हुए चौथीराम जी ने अपनी बातचीत में कहा था – 2014 में मोदी जी का आभिर्भाव हुआ। वे अपना हिंदुत्व का एजेंडा लेकर आए। संघ का तो एजेंडा ही है- उग्र हिंदुत्व। इसे लागू करना उनका एजेंडा था। और डॉक्टर आंबेडकर का जो संविधान है ये उनके आगे सबसे बड़ी बाधा था। यानी हिन्दू राष्ट्र बनाने में सबसे बड़ी बाधा भारतीय संविधान है। क्योंकि ये सेकुलर है। धर्मनिरपेक्ष है। वह इंडिया दैट इज भारत कहता है। लेकिन इनका मतलब है “हिंदुस्थान” यानी हिन्दुओं के रहने की जगह। इसमें मुसलमानों के लिए कोई गुंजाइश नहीं है। हिन्दू बनकर रहना हो तो रहें। ये खेल उनका बहुत पहले से चल रहा था। 2014 से तो यह खुलेआम हो गया। इनका उद्देश्य संविधान को ख़त्म करना है।
आज के समय में सामाजिक न्याय और भारतीय संविधान के लिए लड़ाई लड़ो– यही सबसे जरूरी है। अगर वो संविधान पर चोट करेंगे, संविधान को ख़त्म करेंगे। लोकतांत्रिक मूल्यों को ख़त्म करेंगे। वे कर ले जाएंगे और आप आवाज नहीं उठाएंगे तो आप नहीं बच सकते। आप का देश नहीं बच सकता।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)