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कूडेदान में फेंक दिये गये प्रतीक पुरुष

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सिद्धार्थ रामू

भारत को आधुनिक बनाने का स्वप्न देखने वाली सभी धाराएं फिलहाल पराजित हो गई हैं, शायद ही कोई इससे इंकार करे. आधुनिक युग में ही जन्म ली सबसे प्रतिक्रियावादी धारा (आरएसएस) ने पूरे देश पर अपनी विजय पताका फहरा दी है. इसके लिए कौन जिम्मेदार है और इसका प्रतिवाद और प्रतिरोध कैसे किया जा सकता है, आज के समय का यह यह सबसे विचारणीय प्रश्न है.

भारत में आधुकिता की परियोजना में देश की संप्रभुता, जनसंप्रभुता, समग्रता में लोकतांत्रिक प्रणाली, धर्मनिरपेक्षता, वर्णगत-जातिगत और पितृसत्तात्मक वर्चस्व और अधीनता के संबंधों से पूर्ण मुक्ति, उत्पादन और संपत्ति संबंधों में गुणात्मक परिवर्तन और नई सृजित होने वाली संपत्ति का न्यायसंगत बंटवारा शामिल था. इस परियोजना के अलग-अलग तत्वों को केंद्र मे रखने वाली भिन्न-भिन्न धाराएं विकसित हुईं. इसके भिन्न-भिन्न प्रतीक पुरूष थे.

  • गांधी देश की आजादी के प्रतीक पुरूष बने और उनका सपना था कि आजादी के बाद एक ऐसा भारत बनेगा, जिसके केंद्र में भारत का आमजन होगा.
  • नेहरू यूरोपीय लोकतांत्रिक परंपरा और राज्य नियंत्रित पूंजीवाद के अगुवा थे और आजीवन यह आश लगाए रहे कि इसी से देश के भीतर सामाजिक समता और संसाधनों का न्यासंगत बंटवारा हो जायेगा.
  • डॉ. अंबेड़कर और पेरियार भारत के आधुनिकीकरण की बुनियादी शर्त वर्ण-जाति व्यवस्था का पूर्ण उच्छेद और जातिवादी पितृसत्ता के खात्में को मानते थे और वे राजकीय समाजवाद के हिमायती थे.
  • लोहिया गांधी, मार्क्स, अंबेड़कर के बीच के सेतु कायम कर आधुनिकता की परियोजना को पूरा करना चाहते थे.
  • आधुनिकता की परियोजना को एक और शक्ति, उसकी परिणति तक ले जाना चाहती थी, जिन्हें वामपंथी कहते हैं. ये उत्पादन संबंधों-संपत्ति संबंधों में परिवर्तन के माध्यम से ऐसा करना चाहते थे और यह उम्मीद करते थे कि ऐसा होते ही राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक सभी स्तर पर वर्चस्व और अधीनता के संबंधों में अपने आप परिवर्तन आ जायेगा. इनके प्रतीक पुरूष मार्क्स थे।

तीखी असहमतियों ओर असमाधेय से लगते संघर्ष के मुद्दों के बावजूद इन सभी के पास भारत के आधुनिकीकरण की एक परियोजना थी. आधुनिकीकरण की इन इस सभी परियोजनाओं के खिलाफ खड़े संघ के प्रतीक पुरूष सावरकर, गोवलकर-हेडेगेवार हैं. यह एक हिदू राष्ट्र की सपना देखती थी, जिसका निहितार्थ मुसलमानों के बरक्स हिंदुओं की एकता और सामाजिक जीवन में वर्ण-जाति एवं जातिवादी पितृसत्ता की स्वीकृति और सपत्ति संबंधों में यथास्थिति को कायम रखना था.

कूडेदान में फेंक दिये गये प्रतीक पुरुष

आधुनिकता के सपने, दर्शन, विचार और उनके प्रतीक पुरूषों को उनके तथाकथित वारिसों ने धीरे-धीरे कूडेदान में फेंक दिया.

  • गांधी को खुद कांग्रेसियों ने आजादी के साथ ही हाशिए पर डाल दिया था, और हिंदुत्ववादियों ने उनकी हत्या कर शारीरिक तौर पर भी उन्हें खत्म कर दिया.
  • बसपा और रिपब्लिकन पार्टी आदि ने अंबेड़कर-पेरियार के विचारों को उलटा लटका दिया और अब केवल उनका नाम लेते हैं.
  • लोहिया का सपाईयों और अन्य सामाजिक न्यायवादियों ने कैसी दुर्गति की है, यह जगजाहिर है.
  • मार्क्स को प्रतीक पूरूष मानने वाले दो हिस्से में बंटे हुए हैं. संसद-विधान सभाओं से क्रान्ति की अलख जागने की चाह रखने वालों का जन से नाता काफी कमजोर पड़ चुका है, वे कभी कांग्रेस और कभी सामाजिक न्ययावादियों की पालकी ढोते रहे और उनका सारा सपना तथाकथित धर्मनिरपेता की रक्षा तक सीमित रह गया और अब उसे भी धीरे-धीरे छोड़ रहे हैं. आभिजात्य घोसलों में सिमटे इसके नेता जन नेता कम अकादमिक बुद्धिजीवी ज्यादा लगते हैं.

रही बात क्रान्ति की अलख जगाए रखने वाले जनसंघर्षों में लगे हुए वामपंथियों की, तो वे अपनी सारी प्रतिबद्धता, कुर्बानी के बावजूद कुछ सीमित क्षेत्रों से बाहर ही नहीं निकल पा रहे हैं, शायद इसका कारण यह है कि वे अभी भी बीसवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध की हकीकत में जी रहे हैं और उसके बाहर निकलकर आज के भारत को नेतृत्व और दिशा नहीं दे पा रहे हैं.

इसी बीच आम आदमी पार्टी नाम से एक एनजीओवादी (NG0) पार्टी सामने आई है, जो कुछ खैरात देकर जनता का कल्याण करना चाहती हैं. यह जनपक्षधर भावना का प्रदर्शन तो करती है, लेकिन वैकल्पिक राजनीति का कोई व्यापक विजन नहीं है.

धीरे-धीरे समग्रता में आधुनिकता की परियोजना छीझती गई, उसके सपने, दर्शन, विचार मरते गए, और पूंजीवादी नवउदारवादी नीतियों के स्वागत के लिए आधुनिक परियोजना के तथाकथित वारिसों और उसके विरोधियों में होड़ मच गई. इसके साथ ही इसके वाहक व्यक्तित्वों का चरित्र पतित होता गया.

जिस भारतीय जन को साथ लेकर इसे पूरा करना था, उससे भौतिक और संवेदनात्मक नाता टूटता गया. जनता सत्ता, लालसा और स्वार्थों के पूरा करने का मोहरा बनती गई. सपने, विचार, व्यक्तित्व, चरित्र सभी मामलों में उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम पूरे भारत में खाली जगह सृजित हुई. इसी खाली जगह को आरएसएस-भाजपा ने भरा.

आरएसएस-भाजपा क्या है ?

आरएसएस भारतीय अतीत के सबसे प्रतिक्रियावादी विचारों और पतनशील मूल्यों के वाहक लोगों का संगठित गिरोह है, जो न्याय, समता, स्वतंत्रता, बंधुता की हर भावना के खिलाफ है. लोकतंत्र के साथ जिसका जन्मजात विरोध है. भारतीय संविधान लंबे समय से जिसके आंख की किरकिरी है, वर्ण-जाति व्यवस्था और पितृसत्ता आरएसएस के नाभि में बसती है.

आरएसएस के निशाने पर जितना मुसलमान हैं, उतना ही वे दलित-बहुजन हैं, जो वर्ण-जाति व्यवस्था के खिलाफ हैं और इसका समर्थन करने वाली हिंदू विचारधारा को चुनौती देते हैं. आरएसएस उन महिलाओं के भी खिलाफ है, जो मर्दवादी वर्चस्व को चुनौती देती हैं और जीवन के सभी क्षेत्रों में पुरूषों के साथ बराबरी का दावा करती हैं.

आरएसएस आदिवासियों को उजाड़ने और उनका जल, जंगल और जमीन हड़पने में पूरी तरह कार्पोरेट के साथ है. वह आदिवासियों का हिंदूकरण करके उन्हें वर्ण-व्यवस्था और जाति व्यवस्था के निचले क्रम में डालने की पूरी कोशिश कर रहा है.

आरएसएस दक्षिण भारत के अपेक्षाकृत उन्नत, लोकतांत्रिक और प्रगतिशील समाज पर हिंदी पट्टी (आर्यावर्त) के गलीज मूल्यों और परंपरों को थोपता-थापता है. उन्हें उत्तर भारत के वैचारिक-सांस्कृति-धार्मिक उपनिवेश में तब्दील में करना चाहता है.

2014 में कार्पोरेट से हाथ मिलाकर आरएसएस पूरी तरह से इस देश के मेहनतकशों के खिलाफ हो गया है. आरएसएस इस देश के गरीबों और निम्न मध्यवर्ग का शत्रु हैं. कार्पोरेट के साथ गलबहियां करने के बाद आरएसएस इस देश के छोटे कारोबारियों-व्यापारियों को उजाड़ने के प्रक्रिया में कार्पोरेट के साथ हो गया है. आरएसएस इस देश के स्रोत-संसाधनों को चंद कार्पोरेट घरानों को सौंपने में नरेंद्र मोदी के साथ पूरी तरह साथ खड़ा है.

आरएसएस इस देश की सारी सकारात्मक, उन्नत और प्रगतिशील विरासत को नष्ट करने में लगा हुआ है. आज लोकतंत्र, संविधान और जनतंत्र के लिए आरएसएस सबसे बड़ा खतरा बन गया है.

आरएसएस से मुकाबला कैसे किया जा सकता है ?

संघ और भाजपा उनके अन्य आनुषांगिक संगठनों को व्यापक जन के हित वाले सपने, विचार, सिद्धांत और उनको अमली जामा पहनाने वाले कार्यक्रम, संगठन और प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं के बिना, इस या उस सत्ता लालसा से प्रेरित व्यक्तिगत स्वार्थ केंद्रित अवसरवादी गठजोड़ से पराजित नहीं किया जा सकता, चुनावों में पराजित कर भी दें तो भारत के व्यापक जन को कुछ खास हाथ नहीं लगने वाला है.

संघ, भाजपा और उनके भारत निर्माण के प्रतिक्रियावादी जनविरोधी अभियान को रोका और पराजित तब किया जा सकता है, जब आधुनिकता की एक समग्र परियोजना को उसके राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक निहितार्थों तक ले जाया जाए और इस पूरी परियोजना को व्यापक जन की परियोजना बनाया जाए. इसमें व्यापक जन के साथ गहरी एकता और उनके आधुनिकता विरोधी मूल्यों के साथ तीखा संघर्ष दोनों चीजें शामिल हैं.

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