चंद्रभूषण
जर्मनी में आम चुनाव के बाद नई सरकार बनाने के लिए पार्टियों के बीच गठबंधन वार्ता जारी है, लेकिन राजनीति में कम दिलचस्पी रखने वाले आम लोगों के बीच यह सवाल मंडरा रहा है कि चांसलर एंजेला मर्केल पिछली सदी में अपनी ही पार्टी के हेल्मुट कोह्ल द्वारा बनाया गया अधिकतम शासन का रेकॉर्ड तोड़ पाएंगी या नहीं। उनका कार्यकाल पूरा हो चुका है और हाल में खत्म हुए चुनाव में हिस्सा न लेने की घोषणा वे काफी पहले कर चुकी थीं, लेकिन जर्मन संविधान के मुताबिक जब तक नई सरकार शपथ लेने की स्थिति में नहीं आ जाती, तब तक वह किसी नई नीति की घोषणा भले न कर पाएं, लेकिन चांसलर बनी रहेंगी। हेल्मुट कोह्ल का रिकॉर्ड तोड़ने के लिए उन्हें 17 दिसंबर तक सत्ता में रहना होगा और काफी संभावना है कि नई सरकार बनने में अभी ढाई महीना तो लगेगा ही।
सरकार बनाने पर सौदेबाजी
जर्मनी में सरकारें आराम से बनती हैं। मर्केल की ही पिछली सरकार चुनाव के तकरीबन पांच महीने बाद बन पाई थी। प्रचार के दौरान जिसके खिलाफ सारी ले-दे कर लेने के बाद आपने चुनाव जीता है, उसी से मिलकर सरकार बनाने को वहां बिल्कुल खराब नहीं माना जाता। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की, यानी नाजी दौर गुजर जाने के बाद की जर्मन राजनीति में दो ही ध्रुव रहे हैं- क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक यूनियन (सीडीयू) और सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी (एसपीडी)। दोनों दल हर चुनाव में एक-दूसरे की धज्जियां उड़ाते दिखते हैं। लेकिन मर्केल की पिछली सरकार इन्हीं दोनों पार्टियों के गठबंधन ने बनाई थी। आप चुनाव जीतिए और अपने नतीजे और घोषणापत्र लेकर सभी दावेदारों के साथ बैठिए। जहां भी स्थिर सरकार बन सके और जनता से किए हुए आपके वादे पूरे हो सके, वहां जाइए।
पिछली बार छोटी पार्टियों की सौदेबाजी ज्यादा सख्त थी। उनसे बात नहीं बनी तो सीडीयू को एसडीपी से हाथ मिलाना पड़ा। इस बार ऐसी संभावना नहीं के बराबर है तो इसका कारण यह है कि एंजेला मर्केल सीन में नहीं हैं। पिछली बार एसडीपी उनकी छत्रछाया में चलने को तैयार हो गई, इस बार किसी हाल में क्रिश्चियन डेमोक्रेट्स के साथ जाने को नहीं राजी होगी। कहा जा रहा है कि इस बार ट्रैफिक सिग्नल गठबंधन सरकार बनाएगा। ट्रैफिक सिग्नल यानी सोशल डेमोक्रेट्स का लाल, ग्रीन पार्टी का हरा और लिबरल डेमोक्रेट्स (एफडीपी) का पीला। उनकी सीटें- क्रमशः 206, 118 और 92 सरकार बनाने के लिए बिल्कुल दुरुस्त हैं। लेकिन जर्मनी में पार्टियां अपने घोषणापत्रों को लेकर कुछ ज्यादा ही गंभीर रहती हैं, लिहाजा तीन पार्टियों की सरकार का चलना वहां जंगल में तीन टांग वाले जानवर के जिंदा रह पाने जितना ही मुश्किल समझा जाता है।
दूसरा चक्कर सत्तारूढ़ दल की दावेदारी का है। एंजेला मर्केल की पार्टी सीडीयू, जो एक क्षेत्रीय पार्टी सीएसयू के साथ लंबे समय से गठबंधन बनाकर चुनाव लड़ती आ रही है, यह चुनाव जरूर हार गई है, लेकिन सोशल डेमोक्रेट्स से वह सिर्फ 10 सीट पीछे है। जाहिर है, ग्रीन पार्टी और एफडीपी से गठबंधन बनाकर नई सरकार बनाने का रास्ता जितना एसपीडी के लिए खुला हुआ है, उतना ही सीडीयू के लिए भी खुला हुआ है। ऐसे में सौदेबाजी का लंबे से लंबा खिंचना स्वाभाविक है। किसी को लग सकता है कि जर्मनी की यह परंपरा ठीक नहीं है, इससे अवसरवाद को बढ़ावा मिलता होगा और विचारधारा जैसी किसी चीज के लिए कोई गुंजाइश ही नहीं बचती होगी। लेकिन जर्मनों ने उग्र विचारधारा के बल पर सिर्फ 32 प्रतिशत वोट पाने वाले हिटलर को न सिर्फ लंबे समय तक राज करते बल्कि अपने देश को अतल खंदक में ले जाते देखा है। राजनीतिक शब्दों का अर्थ उनसे बेहतर कौन समझ सकता है!
जर्मनी को लंबे समय से यूरोप का पावरहाउस कहा जाता रहा है और कोविड की विभीषिका वाला दौर पीछे छूटने के बाद यह यूरोप का सबसे बड़ा चुनाव है। ऐसे में इसकी परिणति को लेकर सबकी उत्सुकता स्वाभाविक है। इससे भी बड़ी बात यह कि एंजेला मर्केल के राजनीतिक परिदृश्य से हटने की घोषणा के बाद जर्मनी का भविष्य इससे निर्धारित होना है। एंजेला पिछले 16 वर्षों से जर्मनी की ही नहीं, यूरोप की भी धुरी बनी हुई हैं।
यूरोपियन यूनियन को उन्होंने ऐसे-ऐसे मौकों पर संभाला, जब ज्यादातर विश्लेषक उसका समाधि लेख लिखकर छपा चुके थे। ऐसे तीन मौके हम याद करना चाहें तो 2008-09 की मंदी, ग्रीस का दिवालिया होना और तीन दक्षिणी यूरोपीय देशों स्पेन, पुर्तगाल, आयरलैंड पर ऐसा ही खतरा मंडराना, और ब्रेग्जिट को याद कर सकते हैं। कोविड के हमले में पड़ोसी देशों की बहुत कम मदद करने और सारा फोकस जर्मनी पर रखने का आरोप तो उन पर आज भी चिपका हुआ है। लेकिन मर्केल के सख्त से सख्त विरोधी भी उनके प्रबंधन कौशल के कायल हैं। सख्ती और मुलायमियत का इतना सुंदर मेल किसी राजनेता में मुश्किल से ही मिलता है। यह उनके महिला स्टेट्समैन होने का यूएसपी है, ऐसा तो कोई नहीं कहता, जिस दिन वे अपने पद से विदा होंगी, उस दिन यह बात कही जाएगी।
राजनीतिक साहस की मिसाल
लोकतांत्रिक युग में दुनिया की मुलाकात उनसे पहले इंदिरा गांधी और मार्गरेट थैचर जैसी कुछ कद्दावर महिला राजनेताओं से हो चुकी है लेकिन कई तरह के आर्थिक संकटों से घिरे होने के बाद भी पश्चिम एशिया के शरणार्थियों के लिए अपने देश के दरवाजे खोल देने का जो कलेजा उन्होंने दिखाया, उस राजनीतिक साहस की मिसाल शायद ही कभी देखने को मिले। सबसे बड़ी बात कि यह सब करके भी उन्होंने जर्मनी का खजाना भरने में कोई कोताही नहीं बरती। 2005 में जब वे सत्ता में आई थीं, तब से अब तक जर्मनी का जीडीपी डेढ़ गुना हो चुका है और बेरोजगारी का प्रतिशत एक तिहाई पर आ चुका है। ऐसे सिर ऊंचा करके जाने वाले राष्ट्राध्यक्ष इतिहास में कितने हैं?
कोई बड़ा फेरबदल नहीं हुआ तो आने वाले दिनों में ग्रीन पार्टी और लिबरल डेमोक्रेट्स को साथ लेकर सोशल डेमोक्रेट नेता ओलाफ शोल्ज बतौर चांसलर एंजेला मर्केल की जगह लेंगे। यह एक असुविधाजनक गठबंधन होगा क्योंकि ग्रीन पार्टी पर्यावरण के मुद्दे पर बार-बार जर्मन उद्योगपतियों से टकराती है, जिनके हितों की खुली वकालत एफडीपी के लोग करते हैं। सोशल डेमोक्रेट्स का अपना जोर जनकल्याण कार्यक्रमों पर ज्यादा रहा है, जिन्हें वे पिछली सरकार की तुलना में शायद थोड़ा बेहतर तरीके से लागू कर सकें। लेकिन उनके सामने असल चुनौती बिना अतिरेक में गए उस संतुलन को साधे रखने की होगी, जो एक अर्से से एंजेला मर्केल का ट्रेडमार्क बना हुआ है।