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समाज के दर्पण का दायित्व?

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शशिकांत गुप्ते

साहित्य समाज का दर्पण है।प्रख्यात साहित्यकार महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने कहा है,जो भाषा अपना निज का साहित्य नहीं रखती वह रूपवती भिखारन की तरह समाज में कदापि आदरणीय नहीं होती है।
साहित्य के पास क्या होता है? स्पष्ट सोच और कलम की ताकत।
सच्चा साहित्यकार स्वयं अपना चेहरा दर्पण में देखने का साहस रखता है,कारण दर्पण ही मानव के चेहरें की असलियत दिखता है।इसीतरह साहित्यकार ही समाज को मतलब आमजन को यथार्थ से अवगत करवाता है।
प्रख्यात शायरा अंजुम रहबर फरमाती है।
सच बात मान लीजिए चेहरे पे धूल है
इल्जाम आईनों पे लगाना फजूल है
इस संदर्भ में सन 1962 में प्रदर्शित फ़िल्म असली नकली के इस गीत की कुछ पंक्तियां प्रासंगिक होंगी।इसे लिखा प्रसिद्ध शायर और गीतकार हसरत जयपुरीजी ने।
सच बातों पर लग सकता खामोशी का पहरा
दिल की बात बता देता है असली,नकली चेहरा
लोग तो दिल को खुश रखने को क्या क्या ढोंग रचातें हैं
भेष बदल के इस दुनिया में बहुरूपिये बन जातें हैं
मन दर्पण में मुखड़ा देखो उतरा रंग सुनहरा
साहित्य को दर्पण की उपमा जिसने भी दी है,एकदम सही उपमा दी है।
साहित्यिक दर्पण यथार्थ ही प्रकट करता है।सत्य से मुह मोड़ने के लिए यदि दर्पण को कोई तोड़ भी दे तब भी दर्पण का हरएक टुकड़ा भी सत्य ही बयां करेगा।
वर्तमान कुछ साहित्यकार सुविधाभोगी मानसिकता के शिकार हो गएं हैं।
जो साहित्यकार व्यवस्था प्रदत्त सुविधाओ का उपभोग करेंगे उनको भ्रष्ट्र व्यवस्था का भी गुणगान ही करना पड़ेगा।
यही स्थिति समाचार माध्यमो की है।
समाचार माध्यमों के लिए प्रख्यात शायर अकबर इलाहाबादी फरमाते हैं।
खींचो न कमानों को न तलवार निकालो
जब तोप मुक़ाबिल हो तो अख़बार निकालो
आज सजगप्रहरी भी सुविधाभोगी हो गएं हैं।इसीलिए व्यवस्था के सुर के सुर मिलाकर बनावटी फूलों पर सिंथेटिक खुशबू का स्प्रे कर उन्हें असली फूलों सा सजाने की कौशिश में लगें है।
इस संदर्भ में सन 1962 में ही प्रदर्शित फ़िल्म सन ऑफ इंडिया के गीत कुछ लाइनें याद आती है। शकील बदायूनी ने लिखें गीत की पंक्तियां इस तरह है।
आओ काकाजी इधर आओ मामा जी इधर सुनो दुनिया की खबर
खबरों को गीतकार कलम के माध्यम से यूँ प्रस्तुत किया है।
मैं तुम्हारे लिए दुःख और सुख भी लाया
देख लो आज के इंसान की हालत क्या है
आज की दुनियां में इमान की कीमत क्या है
लोग जीते हैं यहाँ दुनिया को धोका देकर
आज एक भक्त ने भगवान का मंदिर लूटा
एक बेईमान ने मस्जित से चुराया जूता
काले बाजार की एक टोली पुलिस ने धर ली
एक बूढ़े न जवान लड़की से शादी कर ली
एक लड़का उड़ा एक मेम का बटुआ लेकर
एक धनवान न आज अपना धर्म छोड़ दिया
कल से हो जाएगा बाजार में महंगा राशन
छः दशक पूर्व लिखी बातें आज भी वैसी ही है।
इस तरह का साहस रखने का माद्दा होता है, सिर्फ सच्चे साहित्यकरों में।
आज हर क्षेत्र में बाजारवाद हावी हो गया है।
बाजारवाद विज्ञापनों पर निर्भर होता है।बाजारवाद और पूंजीवाद के समन्वय अमीर और गरीब के बीच की खाई को बढ़ाता है।
बाजार की चकचौन्ध के कारण आमजन की मूलभूत समस्याएं नजरअंदाज हो जाती है।
धनकुबेरों के धन में बेतहाशा होती वृद्धि की खबरें निर्धनता को रौंदती है।
आर्थिक, सामाजिक विषमताओं के विरुद्ध बोलने लिखने का साहित्यकारों सिर्फ कर्तव्य ही नहीं दायित्व बनता है।
समाज को दर्पण दिखाना ही साहित्यकारों का परम कर्तव्य होना चाहिए।

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