संजय रोकड़े
कह सकते है कि वे पानी रे पानी तेरा रंग कैसा जिसमें मिलाए उस जैसा। या जोडऩे को आप उनको बहुरूपिया के किरदार के साथ भी जोड़ सकते है। बहुरूपिया भारतीय समाज की संस्कृति में एक अलग तरह किरादार हुआ है। इसे समाज में नकारात्मक पहचान ज्यादा मिली है। समाज में जब भी किसी व्यक्ति के चरित्र को लेकर उलहाना देना होता है तो अक्सर लोग यही कहते-सुनते दिखाई देते है कि उसका क्या वो तो बहरूपिया है।
दरअसल ये भी एक सच है कि बहरूपिया को जब भी देखो तब वह एक अलग रूप में ही दिखाई देता है। असल में उसका असली रूप होता क्या है उससे हर कोई अनभिग्य होता है। बहुरूपिया बहुरंग क्यूं बदलता है, ऐसा करने के पीछे उसका मकसद या भाव क्या होता था, उसके इस कृत्य और चरित्र को हमारा नागरिक समाज आज तक न समझ सका है न जान सका है। ना ही ये अंदाज लगा पाया है कि आखिर वो ऐसा करता क्यूं है। बहरहाल ये आपका नजरिया है कि आप हमारे बहु पोषाखधारी प्रधान सेवक या मुख्य चौकीदार के हिमाचली चोला धारण करने वाले इस किरदार को किस रूप में लेते है या देखते है। मतलब उनके हिमाचली पुरूषों का घाघरा पहनने या चोला धारण करने का आंकलन किस रूप में करते हो।
हम यहां बिना किसी लाग लपेट के अपनी बात को कुछ इस तरह से शुरू करने के साथ एक सवाल करते है कि आखिर वे जब- तब, जहां- तहां कहीं भी जाकर वहां का चोला धारण कर स्थानीय जनता की भावनाओं के साथ खिलवाड़ क्यूं करते है। मानसिक शोषण क्यूं करते है। हालाकि राजनीति में इस तरह का शोषण करने वाले वो पहले और अंतिम नेता नही है। इनके पहले भी कई आए और कई गए जिनने स्थानीय लोगों के चोले धारण कर उनकी भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया है। मुझे अच्छे से याद है करीब- करीब अस्सी के दशक और सन चौरासी से पहले एक दफा पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय इंदिरा गांधी राजनीतिक सभा लेने मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले के कठ्ठीवाड़ा पहुंची था। वहां पर उनने जिस तरह का भेष बदला था उसे देखकर कोई ये नही कह सकता था कि इंदिरा गांधी अदिवासी महिला नही है। याद करने वाले आज भी उस बात को याद करके यही कहते है कि स्वर्गीय इंदिरा गांधी ने जिस तरह से आदिवासी महिलाओं की पोशाख पहन कर खुद को उनके पहनावे में ढाला था वह किसी आदिवासी महिला से कमतर नही दिख रही थी।
खैर। राजनीति में पोषाख राजनीतिक हथकंड़े के रूप में कितना काम आती है उसे हम आप जैसे नागरिक नही समझ सकते है। ये तो बेचारा नेता ही जानता है कि स्थानीय लोगों की पोशाख धारण कर कैसे उनके वोट को हथियाया जा सकता है। वोट की राजनीति क्या न करवाए, ठीक उसी तरह एक आम इंसान खुद का पेट भरने के लिए क्या न करे। सच तो ये है कि किसी भी राजनेता को कभी भी इस बात का कोई शौक नही चढ़ता है कि वह अपनी असल पोशाख उतार कर नकली पोशाख को धारण करे। पर हर किसी की चोला धारण करने की अपनी राजनीतिक मजबूरी होती है। जब भी कोई नेता अपनी असली पोशाख उतारकर नकली पोशाख धारण करता है तब उसे इस बात को जानने की परवाह नही होती है, या जानने समझने की दरकार नही होती है कि किसी क्षेत्र या जाति विशेष के लोगों की पौषाख का उनके जीवन में क्या महत्व होता है। क्या अहमियत होती है। पोषाख के साथ उसका सामाजिक तानाबाना और मान-सम्मान किस तरह से जुड़ा होता है। भारत में खासकर यहां के आदिवासियों में पहनावे को लेकर एक अलग
ही संवेदनात्मक रिश्ता या लगाव होता है। लेकिन राजनेता ये क्या जाने की उनका अपने लिबास का जीवन में कितना महत्व है। राजनेता को तो पोशाख का राजनीतिकरण खुद के तन पर ड़ालकर वोट कबाडऩे भर से मतलब होता है। सीधे शब्दों में कहे तो मतलब यही कि उनकी भावनाओं का शोषण कर वोट हथियाने का घीनौना खेल भर खेलना होता है। यह खेल हर कोई अपने हिसाब से खेलता ही है। खैर जहां शहद होगा वहां मधुमक्खी तो बैठेगी ही।
हिमाचल में गद्दी जनजाति की सामाजिक,भौगोलिक और राजनीतिक हैसियत को जाने
आखिर प्रधान सेवक को गद्दी जनजाति का चौला धारण करने को क्यूं मजबूर होना पड़ा इसके लिए हमें हिमाचल में गद्दी जनजाति की सामाजिक, भौगोलिक और राजनीतिक हैसियत क्या है, थोड़ा इस और नजरें इनायत करना होगा। राज्य में गद्दी जनजातियों की अधिकता मुख्य रूप से प्रदेश के धौलाधार श्रेणी पर पाई जाती है। इन इलाकों में काफी संख्या में गद्दी है। ये मुख्य रूप से चंबा जिले के ब्रह्मौर क्षेत्र में, रावी नदी के ऊंचे क्षेत्रों और बुधिल नदी की घाटियों में बसती हैं। इसके अलावा कांगड़ा जिला भी शामिल है, इसमें मुख्य रूप से तोता रानी, खनियारा, धर्मशाला के करीब-करीब सभी गांवों में है। प्रदेश के चंबा व कांगड़ा जिलों में करीब 13 विधानसभा क्षेत्रों में गद्दी समुदाय के मतदाता निवासरत है। इन दोनों जिलों में गद्दी जनजाति के लोग किसी भी राजनीतिक दल की तकदीर व तस्वीर बदलने का माद्दा रखते हैं। ये कहने में कोई अतिश्योक्ति नही होगी कि कांगड़ा-चंबा और मंडी संसदीय क्षेत्र की करीब 13 विधानसभा सीटों पर गद्दी वोट बैंक जीत और हार में सीधा प्रभाव डालता है। कांगड़ा और मंडी संसदीय क्षेत्र में गद्दी समुदाय का करीब साढ़े 3 से 4 लाख वोट है। चुनावी समीकरण के हिसाब से गद्दी समुदाय अहम मंडी संसदीय क्षेत्र के तहत चंबा जिले का भरमौर विधानसभा क्षेत्र पूरी तरह गद्दी बहुल है।
एक स्थानीय सर्वे के अनुसार भटियात में गद्दी समुदाय के करीब 25 हजार वोटर हैं। डलहौजी में करीब 18 हजार, चुराह में 16 हजार, चंबा में करीब 25 हजार वोट बैंक गद्दी समुदाय का है। कांगड़ा जिले की सभी सीटों पर इस समुदाय का खासा प्रभाव है। पालमपुर विस क्षेत्र में गद्दी समुदाय के सबसे अधिक करीब 21 हजार वोटर हैं।
बैजनाथ और सुलह में करीब 10-10 हजार, धर्मशाला में करीब 12 हजार, शाहपुर में करीब 14-14 हजार, नूरपुर में करीब 15 हजार, जवाली में करीब 8 हजार गद्दी वोट बैंक है। मंडी संसदीय क्षेत्र के जोगिंद्रनगर विस क्षेत्र में करीब 8 हजार वोट गद्दी समुदाय से है। इतनी बड़ी तादात में जिस जाति का वोट बैंक हो, वह विधानसभा चुनाव में क्या असर ड़ाल सकता है इससे कोई कैसे राजनीतिक दल अनभिग्य रह सकता है। हालाकि इस चुनाव में गद्दी समुदाय का वोट बैंक किसको ताज पहनायेगा और किसको हार का मजा चखाएगा, यह तो वक्त ही बताएगा। पर इस समय कोई इसे लालच देने और उस पर ड़ोरे ड़ालने में पीछे नही है।
पर सच तो ये है कि इस समय राज्य का गद्दी समुदाय मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर और केन्द्र की मोदी सरकार की नीतियों से खुश नही है। प्रदेश गद्दी कल्याण बोर्ड के सदस्य कईं मौकों पर व्यक्तिगत और सार्वजनिक तौर पर अपनी नाराजगी केन्द्र व राज्य सरकार के खिलाफ जाहिर कर चुके है। वे अपनी उस बात को बार- बार दोहराते है कि वर्ष 2003 में गद्दी समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिया गया था, इस दौरान कई जातियां इसमें शामिल नहीं की गई थीं। दुर्भाग्य है इन जातियों का कि अभी तक किसी भी राजनीतिक दल ने इन छूटी हुई जातियों को इसमें शामिल करने की जहमत नही उठाई। इसके उलट प्रदेश के राजनीतिक दलों ने इस मुद्दे का लाभ उठाकर समुदाय के लोगों का खूब शोषण किया है।
मीडिय़ा माध्यमों में ये भी जब- तब देखने सुनने और पढऩे को मिल जाता है कि कांगड़ा जिले में गद्दी समुदाय की चार लाख से अधिक आबादी है। यहां समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिले 14 वर्ष गुजर चुके हैं लेकिन, केंद्र सरकार ने समुदाय को साढ़े सात फीसदी आरक्षण देने की अधिसूचना को आज दिन तक लागू नहीं किया है। इस बात को लेकर गद्दी जनजाति खासी नाराज है कि प्रदेश सरकार जनसंख्या का हवाला देकर मात्र पांच फीसदी आरक्षण ही समुदाय को दे रही है, जो उनके साथ अन्याय है।
आपको बता दे कि इसके अलावा भी गद्दी समुदाय की अनेक मांगें है जो राज्य व केन्द्र सरकार की अवहेलना का शिकार बनी हुई है। ये बात दीगर है कि राज्य में गद्दी समुदाय को साढ़े 7 प्रतिशत आरक्षण नही दिया गया मगर चुनाव आयोग ने भी लंबे समय से उनकी लंबित मांग को नही माना है। काबिलेगौर हो कि गद्दी समुदाय चुनाव आयोग से लंबे समय से कांगड़ा जिले में कम से कम दो विधानसभा सीटें अपने लिए आरक्षित करने की मांग कर रहा है लेकिन इस ओर कोई ध्यान नही दिया गया।
चुनाव आयोग की इस उपेक्षा के चलते चुनावी मुहाने पे गद्दी समुदाय के लोगों ने हर उस विधानसभा स्तर पर समुदाय की चिंतन बैठकें आहुत की है जहां वे जनसंख्या में बाहुल्य है। कुल मिलाकर इन बैठकों का लब्बोलुवाब यही था कि अब जो भी नेता या राजनीतिक दल हमें छलेगा हम उन्हें इस चुनाव में बेनकाब करेंगे।
जाने हिमाचल का जातीय गणित और पिछली बार किस जाति ने किस दल को पसंद किया
अब हम चलते चलते गद्दी समुदाय की राजनीतिक हैसियत के अलावा ये भी जान ले कि हिमाचल का जातीय गणित क्या है और पिछली बार किस जाति ने किस दल को अपना वोट देकर पसंदकिया था। चलो इस पर भी नजरें ड़ालते चलते है।
असल बात तो ये है कि यहां का जातीय गणित ही चुनाव में जीत की गारंटी बनता है। हिमाचल की सर्वाधिक आबादी राजपूतों की है। यही कारण है कि हिमाचल में अब तक 6 सीएम में से 5 राजपूत रहे हैं। इसके अलावा दलित, ब्राह्रण और ओबीसी भी यहां सरकार बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। सनद रहे कि 2017 के विधानसभा चुनावों में राजपूतों की पसंदीदा पार्टी बीजेपी रही थी, उस चुनाव में भाजपा को राजपूतों का 49 फीसदी वोट मिला था, जबकि कांग्रेस के खाते में इस जाति का वोट 36 फीसदी आया था। यहां ब्राह्मणों की आबादी करीब- करीब 18 प्रतिशत है। पिछले विधानसभा चुनाव में इस जाति का सर्वाधिक 56 फीसदी वोट भाजपा की झोली में गया था। जबकि 35 प्रतिशत ब्राह्मणों ने कांग्रेस को पसंद किया था, शेष अन्य के खाते में गया था।
राज्य में दलितों की आबादी भी सरकार की जीत हार तय करती है, यहां 31 फीसदी आबादी एससी-एसटी समुदाय की है। इनमें अकेले 26 प्रतिशत एससी हैं, पिछले चुनाव में 48 फीसदी दलित वोट कांग्रेस के खाते में गया था, जबकि 47 प्रतिशत वोट भाजपा के खाते में दर्ज हुआ था। राज्य में ओबीसी की जनसंख्या 14 प्रतिशत है। पिछले चुनाव में ओबीसी मतदाताओं की पसंदीदा पार्टी बीजेपी रही थी, उस चुनाव में बीजेपी को ओबीसी का 48 फीसदी वोट मिला था, वहीं कांग्रेस के खाते में 43 फीसदी वोट गया था, अन्य पार्टियों में शेष 9 प्रतिशत वोट बंटा था।
हिमाचल प्रदेश में मुस्लिमों की आबादी सबसे कम है, पिछले चुनाव में इनकी पसंदीदा पार्टी कांग्रेस रही थी और सबसे ज्यादा 67 फीसदी मुस्लिम वोट कांग्रेस के खाते में ही गया था। जबकि दूसरे नंबर पर बीजेपी ही रही थी, जिसे 21 प्रतिशत वोट मिला था, शेष 12 प्रतिशत अन्य पार्टियों के बीच बंट गया था। तो कुल मिलाकर हिमाचल का यह जातिय राजनीति आधार है। सब कोई इस वोट को पाने मे अपने-अपने स्तर पर जुटे है। अब देखना यह है कि गद्दी समुदाय का चोला धारण करने वाले नरेन्द्र मोदी और उनकी पार्टी को गद्दी जानजाति के लोग कितना अपनाते है या ठुकरात है। इसके साथ ही गद्दी समुदाय का चोला धारण उनको एहमियत देने से दूसरी जातियां कितनी खुश और कितनी नाराज होती है।
लेखक द इंडिय़ानामा पत्रिका के संपादन के साथ ही सम-सामयिक विषयों पे कलम चलाते है।
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