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सांसद सेठ गोविंद दास हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने संसद में नेहरू से भी भिड़ गए थे

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राजभाषा हिन्दी के लिए जबलपुर हमेशा से आवाज बुलंद करता रहा। हिन्दी के लिए पहले सांसद सेठ गोविंददास संसद में नेहरू से भी भिड़ गए थे। यहां तक कि खुद को मिला पद्मभूषण सम्मान तक लौटा दिया था। हिन्दी के सवाल पर उन्होंने अपनी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस की नीति से अलग जाकर संसद में हिन्दी का जोरदार समर्थन किया था। हाईकोर्ट में हिन्दी को आधिकारिक भाषा बनाने की पहली आवाज भी जबलपुर से बुलंद हुई। 1990 में पहली बार हाईकोर्ट ने हिन्दी में फैसला सुनाया।

भारतेंदु हरीशचंद्र, बाबू पुरुषोत्तमदास टंडन के साथ सेठ गोविंददास ही ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने अपना पूरा जीवन हिन्दी के लिए समर्पित कर दिया था। जबलपुर के सांसद रहे साहित्यकार सेठ गोविंददास देश और हिन्दी के सुरताल में अंग्रेजी भाषा के मिश्रण के धुर विरोधी थे। क्षेत्रीय भाषाओं को अलग-अलग राज्यों की शासकीय भाषा का अधिकार देने के प्रस्ताव पर हुई चर्चा के दौरान संसद में दिया गया सेठ गोविंददास का भाषण हिन्दी के विकास में मील का पत्थर माना जाता है।

संसद में दिया गया उनका ऐतिहासिक भाषण

संसद में उन्होंने कहा-‘ जिस भाषा ने स्वाधीनता संग्राम में पूरे देश को एकसूत्र में पिरो दिया, उसे कमजोर नहीं माना जा सकता। हिंदी की वर्णमाला की आधी भी नहीं है अंग्रेजी की वर्णमाला। हिंदी का उद्गम संस्कृत से हुआ है, भारत में प्रचलित सभी भाषाओं की जननी संस्कृत ही है। एक मां से उत्पन्न बच्चों में अधिक सामंजस्य होगा या अलग-अलग माताओं की संतानों में? यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश के एक तिहाई से अधिक लोगों की भाषा को अपने ही देश में राजभाषा का दर्जा पाने के लिए याचना करना पड़ रहा है।”

संसद में संविधान संशोधन के खिलाफ मत देने वाले इकलौते सांसद थे

यहां बता दें कि 1962 में कांग्रेस ने संसद में विधेयक पेश किया था। इसमें अंग्रेजी को राजकीय भाषा बनाने और राज्यों को अपनी क्षेत्रीय भाषाओं को भी दूसरी राजकीय भाषा बनाने का अधिकार दिया जाना था। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से सहमति न बन पाने के बावजूद सेठ गोविंददास ने इसे अपना जनतांत्रिक अधिकार बताते हुए मत प्रकट करने की अनुमति मांगी। नेहरू को सेठ गोविंददास की जिद के आगे झुक कर उन्हें विरोध दर्ज कराने की अनुमति देनी पड़ी थी। संसद में संविधान के अनुच्छेद 343 में प्रस्तावित इस संशोधन के खिलाफ मत देने वाले वे इकलौते सांसद थे।

संविधान के प्रारूप में करा लिया था हिन्दी को शामिल

हिन्दी के प्रति समर्पित सेठ गोविंदास ने 1946 में संविधान सभा की पहली बैठक में अपनी बात मुखरता से रखी थी। 14 जुलाई, 1947 को संविधान सभा की चौथी बैठक में सेठ गोविंददास और पीडी टंडन खुलकर हिन्दी के पक्ष में आ गए। सेठ गोविन्ददास ने दिल्ली में 6-7 अगस्त 1949 को एक राष्ट्रभाषा सम्मेलन आयोजित किया। इसमें देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली संस्कृतनिष्ठ हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित किए जाने का प्रस्ताव पास हुआ। प्रयास किए गए कि राजभाषा के सवाल पर आमसहमति बन जाए। पर लिपि के सवाल पर पेंच फंस गया। कुछ लोग अरबी लिपि को और कुछ लोग रोमन लिपि को अपनाने का सुझाव दे रहे थे।

पक्ष में बन गई आम सहमति

बहुमत हिन्दी के पक्ष में था फिर भी कुछ सदस्य राष्ट्रीय एकता के परिप्रेक्ष्य में हिन्दुस्तानी (अंग्रेजी) के पक्षधर थे। 12 सितंबर 1949 को भाषा के प्रश्न पर विचार करने के लिए संविधान सभा की बैठक में हिन्दी को राजभाषा के रूप में अपनाए जाने के पक्ष में आम सहमति बन गई। हालांकि अंकों की लिपि और अंग्रेजी को जारी रहने के लिए कितना समय दिया जाए इस पर सहमति नहीं बन पाई।

एमपी हाईकोर्ट में 1990 में पहली बार हिन्दी में सुनाया गया निर्णय।

एमपी हाईकोर्ट में 1990 में पहली बार हिन्दी में सुनाया गया निर्णय।

1990 में पहली बार हाईकोर्ट ने दिए हिन्दी में फैसला

जबलपुर ने राष्ट्रभाषा हिन्दी को लेकर हमेशा से अग्रणी भूमिका निभाता रहा है। 1990 हाईकोर्ट ने हिन्दी में दायर याचिकाओं पर हिन्दी में ही निर्णय भी दिए। पूर्व चीफ जस्टिस शिवदयाल, जस्टिस आरसी मिश्रा व जस्टिस गुलाब गुप्ता ने सिंगल बेंच में बैठते हुए हिन्दी में कई फैसले दिए। 2008 के बाद से हाईकोर्ट की तीनों खंडपीठों में अब वकीलों को हिन्दी में बहस करने की छूट है। बम्बादेवी मंदिर के पास रहने वाले वयोवृद्ध अधिवक्ता शीतलाप्रसाद त्रिपाठी ने मप्र हाईकोर्ट में हिन्दी में कामकाज की मांग को राष्ट्रीय आंदोलन का स्वरूप दिया।

जनहित याचिका दायर की गई हिन्दी को हाईकोर्ट की आधिकारिक भाषा बनाने के लिए

1990 में उनके आह्वान पर जबलपुर में देश के वरिष्ठ न्यायविद एकत्रित हुए। सबकी सहमति से हिन्दी को हाईकोर्ट की आधिकारिक भाषा बनाने के लिए जनहित याचिका दायर की गई। संविधान में दिए गए प्रावधानों का हवाला दिया गया। अंतत: कोर्ट ने याचिका का निराकरण करते हुए राष्ट्रपति व राज्यपाल को इस सम्बंध में अभ्यावेदन देनें को कहा। अंतत: 2008 में हाईकोर्ट ने भी नियमों में संशोधन किया। संशोधित मप्र हाईकोर्ट रूल्स एंड ऑर्डर 2008 में हिन्दी भाषा को अंगीकार कर लिया गया। हिन्दी में याचिका दायर करने, बहस करने की अनुमति मिली।

हिन्दी को लेकर सेठ गोविंददास का ये रहा योगदान

  • 16 अक्तूबर 1896 को जबलपुर के समृद्ध माहेश्वरी परिवार में उनका जन्म हुआ
  • 1923 में 26-27 साल की उम्र में ही केंद्रीय सभा के लिए चुने गए।
  • स्वतंत्रता संग्राम के दौरान राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के सभी आंदोलनों में हिस्सा लिया, कई बार जेल भी गए।
  • सरकार से बगावत के कारण उन्हें पैतृक संपत्ति से उत्तराधिकार भी गंवाना पड़ा।
  • 1947 से 1974 तक वह जबलपुर लोकसभा सीट से सांसद रहे।
  • 1961 में भारत के तीसरे बड़े नागरिक सम्मान ‘पद्मभूषण’ से सम्मानित किया गया था।
  • हिंदी के सवाल पर संसद में मजबूती से हिंदी का पक्ष लिया, राजभाषा का दर्जा दिलाने में अहम भूमिका रही
  • 1917 में उनका पहला नाटक विश्व प्रेम छपा, जिसका मंचन भी हुआ।
  • हिंदी में पहले-पहल मोनो ड्रामा उन्होंने ही लिखे, विकास उनका स्वप्न नाटक है तो नवरस उनका नाटय़-रुपक है।
  • हिंदी में 100 से ज्यादा पुस्तकों की रचना की, जिनमें उपन्यास, काव्य संग्रह और नाटक तीनों शामिल हैं।
  • सेठ गोविंद दास के साहित्य पर पहला प्रभाव तिलिस्मी उपन्यास चंद्रकांता और चंद्रकांता संतति के लेखक देवकीनंदन खत्री का पड़ा।
  • चंद्रकाता से प्रभावित होकर ही उन्होंने चंपावती, कृष्णलता और सोमलता जैसे चर्चित उपन्यास लिखे।
  • बाद में अंग्रेजी नाटककार शेक्सपीयर से प्रेरणा लेकर सेठ गोविंद दास ने सुरेंद्र-सुंदरी, कृष्णकामिनी, होनहार और व्यर्थ संदेह नामक उपन्यासों की रचना की।
  • सेठ गोविंद दास की साहित्यिक यात्रा उपन्यासों से शुरू हुई। फिर उनकी रुचि कविता में भी जगी। भीवाणासुर-पराभव नाम का काव्य रचा।
  • सेठ गोविंद दास हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति भी रहे। 18 जून 1974 को मुंबई में सेठ गोविंद दास का निधन हो गया।

जबलपुर और हिन्दी का रहा गहरा नाता

  • नागरी प्रचारिणी सभा इलाहबाद द्वारा वर्ष 1916-17 में शहर में हिंदी साहित्य सम्मेलन का आयोजन हुआ था।
  • इस सम्मेलन में कामता प्रसाद गुरू और गोविंददास का हिन्दी प्रेम उसे मातृभाषा के रूप में स्थापित करने में कारगर साबित हुआ।
  • सन् 1910 में कवि समाज का गठन का हुआ था। यह शहर की पहली साहित्यिक संस्था थी।
  • दूसरी संस्था शारदा भवन पुस्तकालय 1915 से 1920 तक सक्रिय रहा। यह बल्देवबाग में स्थित था।
  • तीसरी विशिष्ट संस्था के रूप में साहित्य सम्मेलन सामने आया। जो 1920 से 1930 तक हीरजी गोविंदजी फर्म में संचालित था।
  • 1920 में साहित्यकारों के गढ़ शारदा भवन पुस्तकालय के वार्षिकोत्सव में मदनमोहन मालवीय शहर आए थे।
  • अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के 5वें अधिवेशन में जबलपुर में हिन्दी मंदिर बनाने घोषणा हुई। हालांकि चंदा एकत्रित होने के बाद भी यह बन नहीं पाया।
  • महावीर प्रसाद द्विवेदी 16 वर्षों तक शहर में ही रहे। माखनलाल चतुर्वेदी ने कर्मवीर का प्रकाशन कुछ समय तक यहीं से किया था।
  • कामता प्रसाद गुरु हिन्दी साहित्य के पहले साहित्य वाचस्पति रहे। जबकि दूसरे साहित्य वाचस्पति की उपाधि पंडित लज्जाशंकर झा को मिली।
  • हिन्दी के सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई ने जबलपुर में रहते हुए ही अपने लेखन की आभा लोगों तक पहुंचाई।
  • 1990 में जस्टिस आरसी मिश्रा ने एमपी हाईकोर्ट में सबसे पहले हिन्दी में फैसला सुनाया था। जबकि कामकाज हिन्दी में हों, यह याचिका शीतला प्रसाद त्रिपाठी ने दायर की थी।
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