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मोहर्रम : तवायफ़ों और हिंदुओं के ताज़िए

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दिव्यांशी मिश्रा 

मोहर्रम में ताज़िया बना जुलूस निकलता है।सदियों से ये चलन है। तमाम वर्गों के लोग ताज़िए बनाते हैं।

        आज हम लखनऊ की तवायफ़ों और आज़मगढ़ के हिंदुओं के ताज़ियों का ज़िक्र करते हैं।लखनऊ में चौक पर नामी तवायफ़ों के कोठे हुआ करते थे। रास-रंग और गीत संगीत नृत्य की महफ़िलें सजतीं। तब मनोरंजन के साधन कम थे इसलिए बड़ी संख्या में रईस मुजरा सुनने के लिए तवायफ़ों के कोठों पर जाते और अपने शुभ कामों में तवायफ़ों को बुलाने के लिए पेशगी भी देने कोठों पर चढ़ते।

     तवायफ़ें पूरे साल तो नाच गाना करतीं लेकिन जैसे ही मोहर्रम आता वो नाच गाना बंद कर देतीं। चाहे वो हिंदू तवायफ़ हों या मुसलमान तवायफ़ सबका यही दस्तूर था। सब ज़ेवर उतार देतीं,काले कपड़े पहन लेतीं और कोठों के बाज़ों-साज़ों को काले रंग की चादरों से ढक दिया जाता। उस दौरान तवायफ़ें मीर अनीस दबीर के मर्सिए पढ़तीं और मातम करतीं।

        तवायफ़ों के ताज़िएदारी मशहूर थी। उनके ताज़िए लखनऊ के चौक पर जब बैठाए जाते तो देखने के लिए लोगों की भीड़ उमड़ती। खचाखच भीड़ रहती और तवायफ़ों के ताज़ियों की धज बड़ी निराली होती। हस्सो नाम की नामी तवायफ़ का तो बक़ायदा इमामबाड़ा था जो बहुत शानदार था और नया गाँव में था, वहाँ वो सोज़ और नौहे पढ़ती थी।हस्सो ताज़िए के जुलूस के साथ मातम करती हुई पैदल निकलती तो जनता देखने टूट पड़ती। तवायफ़ें पक्के राग में पढ़ती थीं।

         एक तवायफ़ कुतबन की तो मातम के दौरान मौत भी हो गई थी।तवायफ़ों के आँसू बहते जाते और वो ताज़िए का जुलूस लेकर पैदल पैदल जातीं,ऐसा डूबकर मातम करतीं कि बाकी दिनों में उनके कोठों पर वाह-वाह करने वाली जनता उनका मातम देख आह-आह कर उठती और रो देती।बिग्गन और नब्बन तवायफ़ बहुत मशहूर थीं जो मोहर्रम में ताज़ियादारी करतीं।

      अब तो तवायफ़ें चौक और चौक की चावल वाली गली से उजाड़ दी गई हैं।अब अगर कहीं बची भी हैं तो ताज़ियादारी करती हैं या नहीं ये चर्चा में नहीं है। 

अब हम हिंदुओं की ताज़ियादारी का ज़िक्र करते हैं। आज़मगढ़ की तहसील सगड़ी जो सग्गड़ मतलब इक्के-तांगे-बैलगाड़ी का ठीहा होने की वजह से सगड़ी कही गई, वहीं के डोरवा गाँव के चौहान तक़रीबन ढाई सौ साल से मोहर्रम मनाते आ रहे हैं।

        उस वक़्त जब इन्होंने मोहर्रम मनाना शुरू किया तो आज़मगढ़ के इलाक़े में आज़मगढ़ बसाने वाले आज़म ख़ान उर्फ़ आज़म शाह के वंशजों का राज था। नमक मतलब नून बनाने के काम की वजह से ये जाति नोनिया कही गई। नोनिया मतलब लोनिया जाति पिछड़े वर्ग में शुमार है। मिट्टी खोदना और मकान बनाना भी इनका सदियों से पेशा था।मोहर्रम मनाना नोनियों ने शुरू किया तो आज तक मनाते आ रहे हैं।

         गाँव में ताज़िए बनाने के लिए चार सोने के झूमर और सोलह चाँदी की कलसियाँ सिंगापुर से नोनिया लोगों ने मंगाई जो काफ़ी पुरानी हैं और आज भी मौजूद हैं। नोनिया लोगों के पास दो सौ साल पुराना एक ख़ेमा भी है। गाँव में हिंदू लोगों का इमामबाड़ा भी है और ये ताज़िए दफ़न भी करते हैं। मलीदा और काली मिर्च-चीनी का शर्बत बनाते हैं।

        आज मोहर्रम मनाना शुरू करने वाले धर्मू चौहान के वंश से क़रीब सवा सौ घर इस गाँव में हैं। सभी रवायत निभा रहे हैं। बीते बरसों इनके मोहर्रम में क़रीब पांच लाख रूपया ख़र्च हुआ था जो इन हिंदुओं ने चंदा कर जमा किया था।

        इस गांव के ताज़िया बनाने वाले हिंदू नोनिया भी मशहूर हैं और उनकी अग्रिम बुकिंग होती है। ये हिंदू शानदार ताज़िए बनाते हैं।

      (चेतना विकास मिशन)

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